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विषय में विसंवाद होने के कारण संख्याज्ञान अप्रमाण है किन्तु चन्द्र के स्वरूपाश में तत्वज्ञान सम्यग्ज्ञान अविसंवा दि होने से उस अंश में ज्ञान प्रमाण ही है । अतः ऐकान्तिक रूप से कोई भ्रम भ्रम नहीं कहा जा सकता 134
यदि किसी ज्ञान में प्रामाण्य और अप्रामाण्य नियत नहीं है तब एक ज्ञान को प्रमाण और दूसरे ज्ञान को अपमाण कैसे कहा जा सकता है। इस प्रश्न के उत्तर में अकलंक ने कहा कि संवाद या विसंवाद की मात्रा से प्रामाण्य और अप्रामाण्य का निश्चय होता है । जिस ज्ञान में संवाद की अपेक्षा विसंवाद की मात्रा अधिक होगी उसे अप्रमाण कहा जाता है जैसे कस्तूरी दृव्य में स्पशादि गुणों की अपेक्षा गधा गुण की मात्रा अधिक होने से वह गंधद्रव्य कहा जाता है वैसे ही भ्रमज्ञानों में संवाद की अपेक्षा विसंवाद की मात्रा अधिक होने से व्यवहार में उन्हें अप्रमाण कहा जाता है 135
एक अन्य दृष्टि से भी भ्रम में प्रामाण्य अप्रामाण्य का विचार हो सकता है। स्वप्रकाशावादी जैनदृष्टि से सभी ज्ञान स्वपरसवे दि है । अतः वे स्वाश में प्रमाण और पराशा में अप्रमाण हैं। ज्ञान की बाह्य और आंतरिक वैधाता स्वीकार कर के जैनों ने मीमांसा दार्शनिकों के सिद्धान्त का विरोध किया है 136
यह ज्ञान के वास्तववादी सिद्धान्त की ओर संकेत करता है और यह सिद्ध करता है कि सभी प्रमाण ज्ञान है किन्तु सभी ज्ञान प्रमाण नहीं है। एक इन्द्रियानुभति तब तक प्रामाणिक है जब तक वह तत्संबंधी व्यवहार में उपादेय बनी रहती है। सामने जल है। यह जलसंबंधी इन्द्रियानुभति तब तक सत्य है जब तक उससे प्यास बुझ सकती है अथवा उसकी अन्य प्रकार से पुष्टि होती रहती है 137 इस प्रकार प्रत्येक तत्व की वैधता व्यवहारगत उपादेयता की विषय है। हा जैन इस परत: प्रामाण्य निर्णय को सर्वथा सत्य स्वीकार नहीं करते। जैसे-जैसे ज्ञान की सार्वभौमिकता में विकास होता जाहा है परत: प्रामाण्य स्वतः प्रामाण्य में बदलता जाता है। इस प्रकार जैनों को परतः और स्वत: दोनों ही प्रामाण्य मान्य है ।