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________________ 67 साक्षात् शान न कर परीक्षा शान मानो। गह जैनों का अपना विNिEHATIत है कि ज्ञान शाति का पूर्ण विकास होने पर जानने का प्रयत्न नहीं करना पड़ता, मान सतत प्रवृत्ता रहता है। प्रयत्न से कानापरण जितना क्षीण होता है उतना ही ज्ञान शिकपिलो जाता है और सामान और गाना #ई अन्तर नहीं रह जrar किन्त भान की अपूर्ण विकास की अवस्था में यतः ज्ञान की प्रवृति नहीं होती। जापुत्त जव में हमें जानने का प्रयत्न करना पड़ता है ।15 इरा अवा में म पन्तु को माध्यम को बिना नहीं जान । ये माध्यम बनाते हैं, शनि और मन । जैन-दर्शन . तुतार पार पाता इतर कारणों से जो ज्ञान होता है यह परीक्षामान है। यहाँ उमालत बद से इन्द्रिय और भने तथा अनुपात्त शब्द से प्रकाशा आदि का अर्थ अभिप्रेत है। इनकी अपेक्षा से होने वाला ज्ञान परोदा है। इस ऐन्द्रिय ज्ञान को परोक्ष इसलिये कहा गया था कि यह "पर" की सहायता से "अ" यानि आत्मा हो होने वाला मान है।16 जैन दर्शन के अनुसार मति और शुत, ये दो ज्ञान इन्द्रिय मन सापेदा जान को जाते हैं और इसलिये ये परोयान की श्रेणी में रखे जाते हैं। 7 मतिमान शुद्ध ऐन्द्रिक प्रत्यक्षा शान है जो पूर्णतया मन और इन्द्रिय पर आश्रित है। हमें स्मृति, संज्ञा चिन्ता, अभिनियो भी कियायें आ जाती है।18 भुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। तक्षान का मतलब है सना हुआ शान |19 मतिधान की चार रावस्थायें होती हैं - गावग्रह, ईटा, आवाय और धारणा 120 इन चारों अवस्थाओं से गुजरकर ही मतिज्ञान होता है। इन चारों अवस्थाओं में भेद भी है और अभेद भी । भेद बरा अर्थ में कि ये वस्तु की विभिन्न अवस्थाओं को दिखाती है, अभेद इस अर्थ में कि ये सभी अवस्थायें एक ही प्रक्रिया के विभिन्न परिणाम हैं।
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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