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अनंतकाल तक प्रवाहित होने वाली है । इस धारा में कर्मबंधन शरीर संबंध, मन, इन्द्रिय आदि बाह्य और आंतरिक कारणों के सम्पर्क से ज्ञेयाकार यानि पदार्थो का ज्ञान रूप परिणमन होता है 1 इसका ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमानुसार विकास होता है । 13
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अम्लक के मत में विजय ग्रहण
ज्ञान शक्ति या क्षयोपशम के अनुसार होता है जित ज्ञान में पदार्थ को जानने की जैसी योग्यता है उस अनुसार पदार्थ को जानता है पदार्थ का निश्चय करना ।
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आन की साकारता का अर्थ है ज्ञान का उस वैतन्य धारा देव को जानने के समय पर होती समय में ज्ञानाकार । निराकार दर्शन इन्द्रिय और पदार्थ के सम्पर्क से पहले होता है जबकि साकार ज्ञान इन्द्रियार्थ सम्पर्क के बाद | 14
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अतः उपर्युक्त विवेचन में स्पष्ट है कि जैन दर्शन वास्तविकतावाद क पोक है, क्योंकि यह ज्ञाता और बान में पूर्ण अभेद नहीं मानता। ज्ञाता ज्ञान स्वभाव है और वस्तु ज्ञेय स्वभाव । अतः विषयी और विषय के रूप में दोनों स्वतंत्र है । किन्तु वस्तु में ज्ञान के द्वारा जाने जा सकने की और ज्ञान में वस्तु को जानने की क्षमता होती है ।
of पाश्चात्य दर्शन के वास्तववाद और जनदर्शन के वास्तववाद में यह समानता है कि दोनों के अनुसार बर्टिजगत का अस्तित्व यथार्थ है, ज्ञाता और ज्ञान दोनों ही पर्याय है, वस्तु का अस्तित्व धाता से स्वतंत्र है किन्तु परमात्मात्सववाद का ति है कि ज्ञाता इन वस्तुओं के अस्ति
को इन्द्रियों के माध्यम से जान लेता है । इसका तात्पर्य है कि वास्तववाद के अनुसार वस्तु कागन इन्द्रियों के माध्यम से ही होता है और यह ऐन्द्रिय ज्ञान साक्षात् ज्ञान की वस्तु ज्ञान को मात्र इन्द्रा
कोटि में रखा गया है । किन्तु जैन दार्शनिक एक सीमित नहीं करते और रेन्द्रिय ज्ञान को