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जैन दार्शनि: जो समुद्र की उपमा के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि जिस तरह समुद्र की एक बैद अथवा अंश को समद नहीं कहा जा सकता, यह कथन भी उचित नहीं है। हम चावल का उदाहरण ले। चावल माहे बारे में भरकर रखा हो या एक छोटे बर्तन में हो चावल ही कहलायेगा।
अतः स्पष्ट है कि प्रमाण और नय के बीच सम्बन्ध के 'विष्य में जैन दार्शनिकों के विचार तार्किक दृष्टि से उचित नहीं हैं और इसलिए शानमीमांतीय 'सिद्धात के रूप में यह ठीक नहीं हैं। क्षानमीमाता में नप और प्रमाण को तार्किक आधार पर प्रतिfi.orr करने की आवशयकता है।
उपर्युक्त नय विषयक छैन व्याख्याओं से यह प्रतीत होता है कि नय द्वारा जैन दार्शनिक जो कहना चाहते हैं उसका आशय है - सातारा पस्तु का एक 'विशेष दुष्टिकोण से प्रत्यक्षीकरण | दूसरे शब्दों में, वस्तु के विषय में या सत्ता के 'विष्य में, व्यक्ति की अपनी मान्यता हो सकती है, अपने विश्वास हो सकते है जो उसके विशिष्ट दृष्टिकोण और प्रत्यक्षीकरण की विशिष्ट स्थितियों के परिचायक हैं। अतः स्पट है कि जैन दर्शन के मन में नय व्यक्ति का सस्ता 'विषयक विशि- विश्वास I belop | है 122 साथ ही, जैन दर्शन इस संभावना को भी स्वीकार करता है कि नयारा सम्पूर्ण वस्तु का ज्ञान नहीं मिलता अथात् वस्तु जो नप :राजानी गयी उसके अतिरिक्त भी हो सकती है। फिर जैग दार्शनिक इस पात को मानते हैं कि नय अथात् ध्यापित्त का यतिगत मत या परामर्श उस व्यक्ति के लिए सत्य हो सकता किन्तु आवश्यक नहीं जिप दूसरे स्थति के लिए reTT सार्वभौमिक स्य से भी सत्य हो ।25 वह दूसरे व्यक्ति के 'लिए असत्य हो सकता है। आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिकों की भाषा में कुछ esident. Proporrhen असाथ : fals भी हो सकते 24 बात नय प्रमाण नहीं माना जा सकता । पाश्चात्य दर्शन में जो अन्तर belion और Knowledge में है वही अन्तर जैन दर्शन में मय और प्रमाण में है।