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है, वह प्रमाण है 114
माणिक्यनन्दि के विचार में - हे त्याज्य एवं उपादेय ग्राम रूप-पदार्थों की तिथि ज्ञान- प्रमाण हो होती है 115 अर्थ-संतति के प्रधान कारणभूत प्रमाण से वस्तुस्परूप का यथार्थ ज्ञान होता है । अतः स्पष्ट है कि प्रमाण का कार्य वस्तु के यथार्थ रूप को प्रदर्शित करना है । प्रमाण के इस कार्य में ज्ञान सहायक होता है । अन्य दर्शन द्वारा मान्य सन्निकर्ष, इन्द्रियवृत्ति, योग्यता आदि ज्ञान की उत्पादक सामग्री में तो सम्मिलित किये जा सकते हैं, किन्तु ये स्वयं अवेतन होने के कारण प्रमाण के साधारण नहीं हो सकते 116 प्रमाण का साक्षात्करण तो वेतन ज्ञान ही हो सकता है ।
लघीयस्त्र की विवृत्ति में इसी ज्ञान की प्रमाणता का समर्थन करते हुए अकलंक देव ने लिखा है कि आत्मा को प्रमिति क्रिया या स्वार्थविनिश्चय में, जिसकी अपेक्षा होती है, वही प्रमाण है और वही साधकतम रूप से अपेक्षणीय ज्ञान है | 17
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प्रमाण संपत्यय का विकास :
जैन दार्शनिकों की प्रमाण-विषयक परिभाषाओं का क्रमिक विकास देखने के लिए उनके ऐतिहासिक विवेचनों को देखना होगा | उमास्वाति ने सर्वप्रथम, ज्ञान और प्रमाण का स्पष्ट निरूपण किया था। अतः उमास्वाति की प्रमाण-परिभाषा का विश्लेषण आवश्यक है । इनके मत में मतिज्ञान, शुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान, ज्ञान के प्रमाण के पांच प्रकार हैं 112 उमास्वाति के ही मत मैं सम्यक ज्ञान ही प्रमाण है। जिसका अर्थ है जो प्रशस्त डी, अव्यभिचारी हो और
संगत हो ।
उमास्वाति के पश्चात्वर्ती विचारकों ने प्रमाण के लक्षण में "ज्ञान" पद को