________________
प्रमेष दोनों ही है।
सिद्धसेन प्रमाण के कई अर्थ बतलाते हैं। उनका कान है कि कस्ता-कारक में प्रमाण का अर्थ आत्मा, कर्म-कारक मैं पदार्थ, करण-कारक में ज्ञान, सम्पदान-कारक में अर्थ-किया, अपादान कारक में कारण-कलाप, अधिकरण कारक योपशाम और भाष-साधन में प्रमिति होता है। प्रमाण के इन ज्ञात अर्थों में प्रमाण का अभीष्ट अर्थ शान है, क्योंकि अन्य अर्थों की परीक्षा शान पर निर्भर है। अत: बान ही प्रमाण है "मीयते अनेन इति प्रमाणम यही प्रमाण का ध्युत्पत्तिमलका अर्थ है 112
यहा एक प्रश्न उठाया जा सकता है कि यदि प्रमाण का अभीष्ट अर्थ ज्ञान है तो प्रमाण के इन सात अर्थों को मानने का औचित्य क्या है' इस प्रश्न का समाधयन जैन-दर्शन के अनेकान्तवाद* में पाया जाता है. जहा वस्तु को अनन्नाघमात्मक माना गया है। अत: जहा पर प्रमाण का जो अर्थ उपयुक्त हो, वहाँ पर यही अर्थ लिया जाये। यहा जिसके द्वारा ठीक-ठीक जाना जाये उस करण साधन के अर्थ में "ITन" प्रमाण का लक्षण हो सकता है। शान के द्वारा ज्ञाता वस्तु को जानता है। यह ज्ञान आत्मा मैं रहता है इसलिए यह आमा का धर्म है। अत: ज्ञान आत्मा से अभिन्न है।
सान की प्रमाणताः
जैन-दर्शन सिद्धान्ततः प्रमाण को कई अर्थों में प्रयोग करता है लेकिन फिर भी उतको मुख्यतः ज्ञान के अर्थ में ही प्रयोग करता है। परन्तु ऐसा मानने का कारण क्या है' इसे स्पष्ट करने के लिए प्रमाण का लदा जानना अपेक्षित है। पूज्यपाद का कहना है, जो अचसी तरह बान प्राप्त कर लेता है या जिसके .रा मान अच्छी तरह पान लिया जाता है या जो मिति है वह प्रमाण है। अलंकदेव का कथन है, जो प्रमा का साधकतम कारण हो या जिसके द्वारा अच्छी तरह से जाना जाता