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________________ 00 युक्तिसंगत है 15 इससे स्पष्ट है कि वस्तु का ज्ञान वस्तु की विशिष्ट दैशिक कालिक स्थिति ज्ञाता की विशिष्ट स्थिति और शक्ति के सापेक्ष प्रतीत होता है । अतः ज्ञान में इन अपेक्षाओं का निरूपण आवश्यक है । यही कारण है जैन दर्शन में वस्तु का ज्ञान चार अपेक्षाओं पर निर्भर माना गया है द्रव्य, क्षेत्र, काम और भाव । इन अपेक्षा भाव से प्राप्त ज्ञान को जैन-दर्शन में "नय" कहा गया है। नय ज्ञाता द्वारा एक विशिष्ट दृष्टि से अतधक वस्तु के एक विशिष्ट धर्म का ज्ञान है ।" रसेल का विचार: यहा पर रसेल के कुछ विचारों का उल्लेख आवश्यक है । पाश्चात्य दर्शन के आधुनिक युग के प्रमुख विचारक रसेल और जैन दर्शन के विचारों में काफी अन्तर होते हुए भी रसेल आधुनिक पाश्चात्य जगत के ऐसे दार्शनिक है जिनके कुछ विचार जैन दर्शन के कुछ विचारों से काफी समानता रखते हैं । रसेल भी इस प्रश्न को उठाते हैं कि यद्यपि प्रत्येक मन प्रत्येक क्षण इस मी जगत को देखता है किन्तु किन्हीं भी दो मनों को यह एक समान नहीं दिखाई देता । इस जगत में एक मन जो प्रत्यक्षीकरण करता है उसमें दूसरे मन के प्रत्यक्षीकरण से समानता नहीं होती । अन्य शब्दों में, प्रत्येक मन का प्रत्यक्षीकरण का अपना निजी जगत होता है जो दूसरे मनों के प्रत्यक्षीकरण से भिन्न होता है किन्तु फिर भी उसका अपना अस्तित्व होता है । इस दृष्टि से जगत के अनंत पक्ष होगें जो किसी मन द्वारा प्रत्यक्षीकृत नहीं किये गये किन्तु फिर भी उसका अस्तित्व है क्योंकि वे मन द्वारा प्रत्यक्षीकरण का विषय बनाये जा सकते हैं 18 इस जगत के एक विशिष्ट मन द्वारा प्रत्यक्षीकरण को रतेन दृष्टिकोण Perspective | कहते हैं, तथा एक मन द्वारा प्रत्यक्षीकृत जगत को Private Hored 1 इसे ही जैन दार्शनिक "नय" कहते हैं । रसेल इस private World
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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