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पाँच इन्द्रिया एक ही द्रव्य की भिन्न भिन्न अवस्थाओं को जानती हैं।" ये पांचों गुण अलग-अलग नहीं रहते । ये वस्तु के सभी भागों में सम्मिलित रूप से रहते हैं । इन गुणों में जो भेट प्रतीत होता है वह इन्द्रियजन्य है क्योंकि इन्द्रियों सीमित है इसलिये ये वस्तु के एक ही गुण को एक समय में देख पाती हैं । एक भौतिक द्रव्य में स्पर्श, रस आदि सभी पयायें होती है किन्तु एक ही समय सभी पर्यायें प्रत्यक्षीकरण का विषय नहीं बनती । प्रत्यक्षीकरण का विषय बनना प्रणता पर निर्भर है अर्थात् यद्यपि सभी पयार्थी वस्तु में होती है किन्तु जो पायें
की
का होती हैं, उसी को इन्द्रियाँ ग्रहण लेती हैं। फिर इन पांचों की काताअबलता आदि इन्द्रियों की योग्यता पर भी निर्भर होती हैं, क्योंकि इन्द्रियों की ग्रहणाक्ति में भी विविधता होती है। 7 अतः पाश्चात्य वस्तुवादियों की तरह वस्तु भी ज्ञाता निरपेक्ष है और गुण भी । यहाँ पर जैनों का विशिष्ट अनेकांतवादी, सापेक्षवादी दृष्टिकोण स्पष्ट लक्षित होता है। जैनदार्शनिक किसी भी स्था पर ऐकान्तिक रूप से न सिर्फ मेट को मानते हैं न सिर्फ अमेट को, बल्कि एक स्थिति मैं भेद को भी मान्यता देते हैं और दूसरी दृष्टि से अभेद को भी इन्द्रियों में भेद भी होता है और अभेद भी । एस आदि मैं भी भेद और अभ्ट दोनों होता है द्रव्य की दृष्टि से अभेद और पर्याय की दृष्टि में भेद 18 यदि उनमें सिर्फ अभेद हो तो दो इन्द्रियों में अनुभवों में कोई भेद नहीं होगा यदि उनमें सिर्फ मे होगा तो वे मिलकर एक साथ ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकतीं ।"
मानते हैं । पाँच इसी प्रकार इन्द्रियों के विषयों प
पूज्यपाद के अनुसार - स्पर्शादि परस्पर तथा द्रव्य से कदाचित् भिन्न कदाचित् अभिन्न हैं । यदि स्पर्शादि में सर्वथा एकत्व है, स्पर्धाों के होने पर रस rica हो जाना चाहिये । यदि द्रव्य से सर्वथा एकत्व हो तो या तो द्रव्य भी सरता रहेगी या फिर स्पर्शीद की । यदि द्रव्य की सत्ता रहती है तो लक्षण के अभाव में उसका भी अभाव हो जायेगा और यदि गुणों की तो निराश्रय होने से उनका अभाव ही हो जायेगा । यदि सर्वथा भेद माना जाता