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अत: आत्मा की भी सत्ता है और वस्तु की भी सत्ता है। वस्तु गुण है और आस्मा गुणी । गुणी और गुण मैं भिन्नता होती है। कुंदकुंद का कथन है कि ज्ञानी ज्ञान स्वभाव होता है और परत जय स्वभाव । अतएव चिन्न ल्यभाव वाले ये दोनों स्वातंत्र हैं। उनके मत में न तो शेय से शन उत्पन्न होता है और न ज्ञान से शेय। पस्तुयें हमारे ज्ञान की विषय बने या न बने फिर भी वे अपने रूप में अवस्थित रहती है, उसी प्रकार वरतुयें हमारे ज्ञान की 'विष्य बने या न बनें, हमारा मान हमारी आमा में अधाि रखता है क्योंकि कान पदार्थ का धर्म नहीं है, कान तो arrer का है। जान अन्तरंग में शेतन रूप से तथा अर्थ बहिरंग में जहत्य से अनुभव में आता है। अर्थ शुन्य भान रवाकारया तथा भान शून्य अर्थ अपने आप में अस्तित्व रखते ही हैं।
पात: मान श्री तिन की उत्पत्ति की रिर्धात नहीं होती किन्तु यह कान के प्रयोग की नियति है, क्योंकि ज्ञान की स्थिति हमारी आगा श्री स्वाभाविक स्थिति है। मामा का ही है चैतन्य । धान्य ही सारी ज्ञान की प्रवृत्तियों का स्मोत है। अत: जैन दर्शन के वास्तववादी पो जाने के पीछे यही कारण है कि वे पास्तवादी दर्शन की भाति ज्ञाता से बाह्य वस्तु जगा की स्वतंत्र सत्ता मानते हैं।
अब पान यह उठता है कि मैं जिसे जैन दार्शनिक पुत्गल-द्रव्यलतले हैं, जो वर्ण, गंध, रस, स्पर्धा आदि इन्द्रियों के विजय बनते हैं उनकी क्या स्थिति है' चे भी वस्तुओं की तरह Tता निरपेक्ष हैं या नहीं' सामान्य दि बताती है कि चेतना के संबंध से स्वतंत्र भी गुलाब लाल और पत्तिया हरी होती हैं। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक अणु जो वस्तु की सूक्ष्मतम झकाई है में एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और दो स्पो अनिवार्यता होता है। यहां पुदगल द्रव्य का लाग ही है वर्ण, गा, रस और रपयुक्त होना । ये रवम से अलग-अलग परतुयें न होकर पुदगल द्रष्य के ही अंधा है। ये इन्द्रियों के विय है। अ