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________________ धार्थ अध्याय परोभ-प्रमाण जैन दार्शनिकों का अतीन्द्रिय भान का विश्लेषा, जिसे वे प्रत्यक्ष भान' कहते हैं, का जहा तक संबंध है, पर जैन-दशी को अध्यारमबाद की ओर ले जाता हैं क्योंकि एक तरफ तो अतीन्द्रिय धान को स्वभाव-जान के रूप में मान्यता देते हैं तथा दूसरी तरफ यहा इन्द्रियों को माध्यम के रूप में अस्वीकार करते हुये भान को आत्मवेदी मानते हैं। इसका तात्पर्य है कि यह य के रूप में भौतिक वस्तु के अस्तित्व का प्रश्न गौण हो जाता है। तय है कि सामो एक मेल है, स मग के rfera के विषय में सदेव नहीं है, मेज एक भौतिक वस्तु है । स मेज का बाम हम सभी प्राप्त कर सकते हैं जब हम आखों से उसे देखें या उसे स्पर्श करें। यदि गुलाब काम देखना चाहें तो मात्र सोचने से गुलाब का फूल नहीं आ जायेगा । HOT तात्पर्य है कि भौतिक प्रस्तुओं काता से raria अस्तित्व है और उसका भान ऐन्द्रिय सदनों से होता है| इन्द्रियों द्वारा प्राप्त पत्र के जान को पाश्चात्य दान में प्रत्यक्ष ज्ञान बहा जाता है। इस सन्दर्भ में जैनों की क्या स्थिति पर प्रश्न क्षसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यद्यपि अतीन्द्रिय न की मान्यता जैसा fir देखा जा चुका है जैन दर्शन को अध्यादी सिद्ध करती है जिन्तु जैन दर्शन को धास्तपधादी और वस्तुवादी दर्शन ला जाता है। इसका तात्पर्य है कि प्रत्ययवादियों की तरह वे सिर्फ आत्मगत को यथार्थ नहीं मानते बलिक कान से पृथक स्वतंत्र सता रखने वाले बाध्य जड़ पदार्थों की लता भी यथार्थ मानते हैं, परतुओं के इन्द्रियान को भी प्रमाण मानते हैं। पही कारण है कि जैनों ने ईन को स्वतवेदी "विालेषा के साथ-साथ सदैव असंवेदी पि भी दिया है। तात्पर्य यह है कि शान पदार्थ बोध के साथ-साथ अपना सवेदन स्वयं कारता है।
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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