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________________ सामान्य रूप से जैन-दर्शन को दो युगों में बांटा जाता है भागमऔर न्याय युग । यदि दोनों युगों का ज्ञान-मीमाता की दृष्टि से अध्य किया जाये तो स्पष्ट होगा कि उपरोका दोनों पुगों में ज्ञान-मीमांसा के स्वरूप में अन्तर है। पास्तव में कहा जाये तो आगम-युग में कोई शान-मीमाता नहीं क्योंकि वहा पर बान-मीमासा का स्वतंत्र विवेचन कहीं भी नहीं मिलता वस्तुत: उस युग में दार्शनिक विचारों का स्वतन्त्रतापूर्वक कहीं उल्लेख नहीं धार्मिक विचारों के सन्दर्भ में ही दार्शनिक विचारों का उल्लेख किया गया इस युग में दार्शनिकों का दृष्टिकोण धार्मिक ज्ञान का है, ताकि बान का है। यधपि जैन दार्शनिक स्पष्ट रूप से इस बात को स्वीकार नहीं करते भी जिस प्रकार अवधि, मनःपर्यय और केवल ज्ञानों का जैन-गधों में विवेचन किया गया है उससे उनके परम्परागत धार्मिक विश्वासों और विचारों की होती है। उदाहरणार्थ, जैन ज्ञानों को इन्द्रिय जन्य और अतीन्द्रिय पर बाँटते हुये भी इन्द्रियजन्य झानों को दूसरे दर्शन मैं मान्य प्रत्यक्षा प्रमाण के नहीं रखते वरन् परोक्ष प्रमाण मानते हैं, क्योंकि जैन "अक्षा शाब्द का अर्थ । न मानकर आत्मा" मानते हैं और उती जान लौकिक ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं जो आत्ममान सापेक्ष होता है | अत: स्पष्ट है कि यहाज्ञान तार्किक विवेचन का अभाव है। केवलज्ञान का विवेचन 'निरपेक्षान के रूप में किया गया है किन्तु दुष्टि से इसके विवेपन का प्रयास नहीं किया गया है, क्योंकि इस ज्ञान से परे माना गया है। इसे तर्क से परे एक आध्यात्मिक अनुभति के रूप उपाधि किया गया है। ये ऐसे धान के प्रकार नहीं हैं जो वस्तुगत ज्ञान अतः इन्हें वस्तगत ज्ञान की कसौटियों से प्रमाणित भी नहीं किया जाता यह ज्ञानगत भेद है ही नहीं, यह तो आध्यात्मिक अनुभूतिया है। जैन र
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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