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नवीन ज्ञान प्रकारों की सम्भावना मानते हैं, अतः इन ज्ञान प्रकारों को रूद अर्थ में न लेकर अनुभव की संभावनाओं के रूप में लेना चाहिये ।
जैन विचारों के अनुसार, ज्ञान को मोक्ष प्राप्ति में एक साधन के रूप में माना गया है। ज्ञान का तार्किक स्वतंत्र ज्ञान-मीमांसा के रूप में विकास नहीं किया गया है। यहाँ ज्ञान को सवाँच्च महत्व नहीं दिया गया है बल्कि मूल्यों को अधिक महत्व दिया गया है। ज्ञान को पहीं तक महत्व दिया गया है वहाँ तक लोक व्यवहार में उपयोगी है। यह ही कारण है कि ज्ञान को उत्पत्ति और मूल्यांकन दोनों ही दृष्टियों से सापेक्ष माना गया है ।
वास्तव में, इस दृष्टि से जैन भान-मीमाता को आन्वीक्षिकी के अन्दर रखा ही नहीं जा सकता क्योंकि आन्वीक्षिकी में तर्क का खंडन किसी भी प्रकार से नहीं किया जा सकता किन्तु जैन दार्शनिक ज्ञानों के विवेचन में अंत में, तर्क का खंडन करते प्रतीत होते हैं।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आगम युग में यधपि ज्ञान प्रकारों का 'विवेचन किया गया किन्तु यह विवेचन धार्मिक ही रह गया, वहाँ तार्किक विवेचन का अभाव है जिससे उस युग में स्वतंत्र ज्ञान-मीमाता का निमाण न हो सका।
__ तार्किक ज्ञान-मीमाता का बाद में विकास हुआ जिले न्याय परम्परा के रूप में रखा जाता है। इस परम्परा में आचार्य उमास्वाति, सिमोन, समन्तभद्र, अफलक देव, विधानन्दि, वादिदेवतरि, माणिक्यनन्दि आदि के नाम उल्लेखनीय है। इन विद्वानों ने उस समय अन्य दर्शनों की तार्किक प्रवृत्तियों से आगमकालीन धार्मिक ज्ञान-मीमाता का सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया। यहा ज्ञान का तार्किक स्पष्टीकरण करने का प्रयास दिखायी भी पड़ता है। इस युग में दार्शनिक विचारों की तफपूर्वक प्रतिष्ठा की गयी। इस स्म में प्रमाणशास्त्र का विस्तृत विवेचन किया गया। इसके पूर्व जागम युग में यधपि प्रमाण पशब्द का