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प्रयोग हुना था लेकिन प्रमाण के स्वतंत्र एवं विस्तृत विवैधन का अभाव था । इस युग में, आगम युग में मान्य पाच ज्ञान प्रकारों को स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रमाणों में रख दिया गया। साथ ही लोकपरम्परा का अनुसरण करते बुरी इन्द्रियपन्य ज्ञानों को सा व्यवहारिक प्रत्यक्ष की कोटि में रख दिया गया। प्रत्यक्ष का साव्यावहारिक और पारमार्थिक दो कोटियों में विभाजन किया गया।
इस सन्दर्भ में आवायं अकालक का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने प्रमाणशास्त्र की तार्किक प्रतिष्ठा की और उपर्युक्त दो भेदों में प्रत्यक्ष का तार्किक दृष्टि से विभाजन किया। बाद में आने वाले प्रायः सभी दानिक अकलंक-कृत इस विभाजन को मानते हैं।
आचार्य सिद्धसेन का भी इस संदर्भ में महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने अपनी कृति "न्यायावतार में अपने स्वतंत्र विचारों का परिचय देते हुये आगम के विपरीत तीन प्रमाण माने - प्रत्यक्ष अनुमान और आगम | साथ ही उन्होंने तार्किक ढंग से अनेकासवाद की भी प्रतिष्ठा की। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने जैन न्यायशास्त्र की या प्रमाण निरूपण में ही समाप्त नहीं की परन् नयाँ का लक्षण और विष्य बताकर जैन न्यायशास्त्र की विशेषता की और भी दार्शनिकों का ध्यान खींचा।
उपर्युक्त दो परम्पराओं के अतिरिक्त जैन दर्शन में हमें मान की एक और परम्परा मिलती है - नय मरम्परा। यह न आगम परम्परा है, न न्याय परम्परा: मलिक लोक परम्परा है। यह मय विचार लोक मा और सामान्य भाषा के जो आधुनिक दर्शन है उनकी कोटि का है। इस रूप में जैन जान-मीमाता मैं कई अत्याधुनिक विचारों का समावेश हो जाता है।
जैन दार्शनिक ज्ञान को नय और प्रमाण रूप मानते हैं। नय शान को