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फिर भी उनमें संशय, विपर्यय और
व्यवसाय उत्पन्न हो गया हो 127
प्रभाबन्द्र स मत का समर्थन नहीं करते, क्योंकि उनके मन में जो भी ज्ञान अभ्यभिचारादि से विशिष्ट प्रमा को उत्पन्न करता है वह प्रमाण है, चाहे वह ज्ञान अधिगतविषयक हो पा अनधिगताविषयक ।
विधानन्दि ने कहा कि "स्व" और "अपूर्व अर्थ का निश्चय करने वाला भान ही प्रमाण है, वह गृहीतग्राही हो या अगृहीतग्राही। उन्होंने प्रमाण को सुनिश्चितरामवाधकत्त्व '
विग दिया और से ही पूर्ति व्यवसायी माना ।
प्रमाण-ला 'विवेचन के प्रसंग में हेमचन्द्र का उल्लेक आवश्यक है। उनका कमान है कि रथकाशीबान को प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रमाण की भातिय, पिपर्यय और अनभ्यवसाय आदि अप्रमाण भी स्वसंवेदी होते हैं 128 हेमचन्द्र के मा में अर्थ का सम्यक निर्णय प्रमाण है ।29
प्रमाण ही परिभाषाओं के उपर्युक्त विश्लेग से स्माट है fir जैनदार्शनिकों द्वारा प्रमाण के लक्षण के स्य में किीध पद प्रयोग किये गये, जैसे- सम्यक. अविसंवादी, अनाधिगताणाही, स्वपूषार्थव्यवसायी और बाधाविधार्जित, स्पराषभाति । यहाँ स्थाभाविक स्प से प्रश्न उता है कि प्रमाण के विधा में यह मातभेद कों है, क्या प्रगाण की कोई सर्वमान्य परिभाषा हो सकती है" यह प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वस्तुतः शब्दों की इन विभिन्नताओं के पीछे सत्यता की कई तौटिया किसी
प्रमाण की सत्यता की कसौटी:
पूर्व-विवेधन से स्पष्ट हो युका है कि जैन-दार्शनिकों के अनुसार शान प्रमाण