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मुख्य लक्ष्य यह स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करना है कि वे किस प्रकार की बाधायें अथवा भ्रांतियाँ हैं जो वैज्ञानिक निर्णय में रुकावट डालती हैं । भ्रांतियों का पता लगने से चिंतन-पद्धति परिशोधित होती है । 13
यदि सत्य को जानने में अपनी इन्द्रियों और तार्किक शक्तियों पर पूर्णतया विश्वास किया जा सके, 'यदि इस बात को निश्चित किया जा सके कि ज्ञान को प्राप्त करने के साथ ही सत्यता का निश्चय भी हो जाता है तो वस्तु की वास्तविक प्रकृति को निश्चित करने वाले साधन रूप में न तो तर्कशास्त्र और न दर्शनशास्त्र ही संभव होता । अतः सुसम्बद्ध ज्ञान - सिद्धान्तों के आधार के रूप में भ्रांति का महत्वपूर्ण स्थान है ।
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जैनदर्शन के मत में अयथार्थ ज्ञान की उत्पत्ति में मुख्य हेतु प्रमाता या ज्ञाता ही हैं। सभी कुछ मिलकर ज्ञाता को भ्रांत कर देते हैं । यहा माना गया है कि साधनों और विषयों में दोष हो सकते हैं किन्तु यह दोष आत्मा की मोहावस्था के कारण ही कार्य करते हैं । अतः आत्मा जब निराकरण या सर्वता की अवस्था में होती है तो उस समय किसी प्रकार के भ्रम की संभावना नहीं रहती । अतः केवल ज्ञान ही अभ्रांत ज्ञान है। शेष ज्ञान प्रकारों में ज्ञान का वास्तविक, पूर्ण, सामान्य स्वभाव प्रकट नहीं हो पाता । अतः भ्रांति प्रमाता की आवरण दशा में ही संभव है ।
यद्यपि सभी आत्माओं में इस आवरणविलय की योग्यता समान होती है, किन्तु इस योग्यता का समान उपयोग परिलक्षित नहीं होता । यह उपयोग की विविधता बाह्य और आन्तरिक साधनों पर निर्भर है। विविधता के बाह्य कारण हैं विषयभेद, इन्द्रिय आदि साधन भेद और देशकाल का अंतर । आंतरिक कारण है ज्ञानों को ढक लेने वाले आवरणों की न्यूनाधिकता का तारतम्य | अभिप्राय है कि वाड्य और आन्तरिक इन साधनों की विविधता के कारण ही ज्ञान में अंतर आता है । जब आवरण- विलय नहीं होता अथवा अल्पमात्रा में होता है और बाह्य-सामग्री दोषपूर्ण होती है तो अयथार्थ ज्ञान होता है । 15