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वाकी तीन नय तो मुख्य रूप से शब्द पर ही आश्रित हैं, इसलिए उनके शब्दात्मक होने में कोई का नहीं है 142 कोई भी नम हो शब्द अथवा अर्थमय, शब्द सुनने के अनन्तर अपेक्षा से उत्पन्न होना नयात्मक होने के लिए आवश्यक है। जहा नयाान है पहा अपरिहार्य अपेक्षा का होना आवश्यक है । मामाघम नय अETRA शब्द बोध के रूप में होता है।
जैन दार्शनिकों के मा में अर्थ वाध्य और बादों में वायक रूप एक स्वाभाविक योग्यता मानी गयी है। इस योग्यता के कारण ही धाद सत्य अर्थ का शान कराते हैं। स प्रकार बाद में पदार्थ का बोध कराने की भाबत मावत: विधमान है, किन्तु श की अर्थशोधक शानिया नहीं है। बल्कि प्रत्येक शब्द में विश्व के समस्त पदाधों का बोध कराने की प्रापिा है किन्तु यह शामिल होने पर भी मानव समाज द्वारा निर्धारित सकेत प्रणाली के अनुष्य ही शाद अपने पाध्य का प्रतिपादक होता है। यदि ऐसा न हो तो शद के प्रयोग का उददेश्य ही नष्ट हो जायेगा।
अत: है कि नयवान अपेक्षात्मकान है और ज्ञानस्वरूप नय अपेक्षामक शब्दबोध के रूप में होता है।
निक्षेप-योजना जैनों की नयों की तरह ही मौलिक योजना है। आगमयुग में अनुयोग are में निक्षेप को नय के ATM स्वतंत्र स्थान मिला जबकि प्रमाण को नहीं fHIT न्याय-युग में भी प्रायः सभी तार्मिकों ने तय निरूपण में प्रमाण और नय के साथ ही निवेश का भी विचार किया | उमास्वातिका कथन है कि नाम artद निषों मे-बस्त जीव आदि तत्वों का अधिगम प्रमाण और नय से करना पाहिए 144
अत: स्पट है कि भाषा और दर्शनमेजो एक गहरा संबंध है, इसे जैनदा - निकों ने साक्षि-भाववादियों से बहुत पूर्व समय लिया था। जैसा घिरगेन्स्टाइन कहते हैं कि परम्परागत दर्शनमें जो gfarप्तया प्रयोग में लाई जाती हैं, वे भाषा की दृष्टि से अस्पष्ट होती हैं 145 उसी तरह जैन दार्शनिक मानते हैं कि