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और संयोजन से संभाव्यता की मात्रायें मानते हैं । क्या यह विचार स्व-विरोधी नहीं है कि एक तरफ तो अन्तःप्रज्ञा द्वारा प्राप्त सामान्य ज्ञान की सत्यता का दावा किया जाये और दूसरी तरफ संभाव्यता की मात्रायें मानी जायें ।
रसेल । इसका उत्तर देते हैं कि अन्तःप्रज्ञा द्वारा ज्ञान प्राप्त कर जब्द हम उस पर विचार करके उसे अभिव्यक्त करते हैं तब उसमें भूल की संभावना हो सकती है। इसलिए उसमें सत्यता की आशिक गारंटी हो सकती है। ऐसे ज्ञान को रसेल वर्णनात्मक ज्ञान कहते है । इस बात को इस प्रकार समझाया जा सकता है कि हम जब प्रातःकाल सूर्य को पूर्व से निकलता हुआ देखें और कहें कि "सूर्य पूर्व से निकलता है" तो यह अतः पुत्रा ज्ञान है और इसकी सत्यता में कोई संदेह नहीं है किन्तु जब ये जानते हैं कि सूर्य पूर्व से निकलता है और इस आधार पर कहें कि सूर्य पूर्व से निकलता है तो रसेल के मत में यह वर्णनात्मक ज्ञान है और इसमें पूर्ण निश्चितता का दावा नहीं किया जा सकता क्योंकि यहाँ पर हम तथ्यों में संबंध बैठाते हैं । अतः आन्तः पूज्ञ सत्य के आधार पर प्राप्त ज्ञान में संभाव्यता की मात्रा होती है । इसलिए रसेल का विचार है कि हमारे ज्ञान का अधिकांश हिस्सा संभावित ज्ञान है । रसेल का यह विचार आलोचनाओं से परे नहीं है । ।
तो क्या इसका तात्पर्य है कि सामान्य का ज्ञान संभाव्य है, निश्चित
"नहीं"
रसेल के उपर्युक्त विचारों की आलोचना करते हुए प्रो. सालमन कहते हैं, यदि हम आगमन संप्रत्यय के स्पष्टीकरण के प्रयास में संभाव्यता के विचार की स्वीकार करते हैं और वाक्यों को आवृत्ति के अर्थ में लेते हैं तो हम एक परेशानी मैं फँस जाते हैं, तब यह कहना कहा तक ठीक होगा कि असंभाव्य निष्कर्षो की are संभाव्य निष्कर्षो को स्वीकार करना चाहिए । हम ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि यदि हम संभाव्यता को आवृत्ति अर्थ में लेते हैं तो यह दिखाना तरल होगा कि जो हमारे स्वीकृत आगमनों को निश्चित करते हैं अपने निष्कों को
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