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प्रधान सम्पादक "म.विनयसागर
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Jain Education Intemational
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प्राकृत भारती पुष्प 45
गीता-चयनिका
अनुवादक डॉ. कमलचन्द सोगाणी :
पूर्व प्रोफेसर, दर्शन विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय
उदयपुर (राजस्थान)
प्रकाशक
प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर
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प्रकाशकः
देवेन्द्रराज मेहता संस्थापक एवं मुख्य संरक्षक, प्राकृत भारती अकादमी १३-ए, मेन मालवीय नगर, जयपुर-302017 दूरभाष: 0141-2524827
तृतीय संस्करण, 2005
मूल्य: 85/- -
© प्रकाशकाधीन
मुद्रकः दी डायमण्ड प्रिंटिंग प्रेस, जयपुर फोन नं0 - 0141-2562929, 2564771
Gita-Chayanika/Philosophy Kamal Chand Sogani, Udaipur - 1988
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आध्यात्मिक प्रेरणा के स्त्रोत स्व. डॉ. रामचन्द्र दत्तात्रये रानाडे
स्व. मास्टर मोतीलालजी संघी (संस्थापक, श्री सन्मति पुस्तकालय, जयपुर)
को
श्रद्धापूर्वक समर्पित
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अनुक्रमणिका
— 1. प्रकाशकीय
2. प्राक्कथन
3. सम्मति 4. सम्मति 5. प्रस्तावना 5. गीता-चयनिका के श्लोक एवं हिन्दी अनुवाद 2-61 6. संकेत-सूची
62-63 7. व्याकरणिक विश्लेषण
64-128 8. गीता-चयनिका एवं गीता श्लोक-क्रम 129-132 9. सहायक पुस्तकें एवं कोश
133-134
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प्रकाशकीय
प्राकृत भारती अकादमी के 45वें पुष्प के रूप में गीता चयनिका का तृतीय संस्करण पाठकों के कर-कमलों में समर्पित करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है। विश्व-संस्कृति के मूल्यात्मक निर्माण में भगवद्गीता, सुमणसुत्तं, धम्मपद्, बाईबिल, कुरान आदि ग्रंथों का विशेष महत्त्व है। ये सभी ग्रंथ मनुष्य को उचित दिशा प्रदान करने में सक्षम हैं। इनके चिन्तन-मनन से मनुष्य मूल्यात्मक जीवन जीने के लिए प्रेरणा प्राप्त करता है। पाशविक वृत्तियाँ उसे त्यागने योग्य मालूम होने लगती हैं। वह अपने आन्तरिक जीवन की विषमताओं को समझकर समता-प्राप्ति की ओर अग्रसर होने के लिए उत्साहित होता हैं। आज के औद्योगिक जीवन की व्यस्तताओं में व्यक्ति इन ग्रंथों के हार्द को समझ सके तो अत्यन्त उपयोगी है। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर डॉ. सोगाणी ने भगवद्गीता की चयनिका तैयार की है। इस गीता-चयनिका में 170 श्लोक हिन्दी अनुवाद-सहित प्रस्तुत हैं। इनका व्याकरणिक विश्लेषण भी दिया गया है, जो उनकी विशिष्ठ शैली का परिचायक है।
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डॉ. सोगाणी द्वारा संपादित संमणसुत्तं चयनिका (पंचम संस्करण) आचारांग-चयनिका (चतुर्थ संस्करण), दशवैकालिकचयनिका (द्वितीय संस्करण), अष्ट पाहुड-चयनिका (पंचम संस्करण), वाक्पतिराज की लोकानुभूति, वज्जालग्ग में जीवनमूल्य (द्वितीय संस्करण), उत्तराध्ययन-चयनिका (चतुर्थ संस्करण), परमात्मप्रकाश व योगसार चयनिका, समयसार-चयनिका आदि प्रकाशित की जा चुकी हैं।
इस पुस्तक के प्रथम संस्करण के प्रकाशन में राजस्थान सरकार के कला एवं संस्कृति, शिक्षा विभाग, जयपुर ने आर्थिक अनुदान प्रदान कर महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। अतः हम शिक्षा विभाग के अधिकारीगण के आभारी हैं।
इस पुस्तक की सुन्दर छपाई के लिए डायमण्ड प्रिन्टर्स, जयपुर को धन्यवाद प्रदान करते हैं।
देवेन्द्रराज मेहता संस्थापक एवं मुख्य संरक्षक प्राकृत भारती अकादमी
जयपुर
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प्राक्कथन
प्रोफेसर कमलचन्द सोगाणी द्वारा सम्पादित गीता - चयनिका को पढ़कर अपार हर्ष का अनुभव हुआ । इसमें विद्वान् लेखक ने गीता से लगभग पौने दो सौ श्लोक चुनकर उनका हिन्दी में अनुवाद किया है तथा एक विद्वत्तापूर्ण भूमिका के द्वारा गीता-दर्शन के विभिन्न आयामों का एक सर्वथा मौलिक ढंग से समन्वय करते हुए उसकी अतीव सारगर्भित विवेचना प्रस्तुत की है।
डॉ. सोगाणी कुछ वर्षों से एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य में संलग्न हैं। उन्होंने हमारे प्राचीन साहित्य के आर्ष ग्रंथों की चयनिकाएं जन सामान्य को सुलभ कराने का बीड़ा उठाया है । वे इस कार्य को एक सच्चे कर्म के समान कर रहे हैं। अपनी इस योजना को क्रियान्वित करने की प्रक्रिया में वे अब तक अनेक चयनिकाएं प्रकाशित कर चुके हैं। अब तक की सभी चयनिकाएँ जैन ग्रंथों तथा प्राकृत साहित्य की कृतियों से सम्बन्धित थीं । किन्तु इस बार वे प्राकृत के दायरे से बाहर निकल कर संस्कृति के क्षेत्र में आये हैं और आश्चर्य की बात कि इस क्षेत्र में भी उन्होंने अपना पूर्ण आधिपत्य प्रकट किया है।
पूर्व चयनिकाओं के समान प्रस्तुत गीता - चयनिका भी एक महत्त्वपूर्ण कृति है । यह गीता के श्लोकों का चयनमात्र नहीं है। इसमें अनेक ऐसी विशेषताएँ हैं जो गीता के अन्यान्य संस्करणों से इसे विशिष्टता प्रदान करती हैं। श्लोकों के चयन में विद्वान् लेखक की
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अपनी दृष्टि परिलक्षित होती है। गीता के लगभग सात सौ श्लोकों में से केवल उन्हीं को चुना गया है जो उसके मूलवर्ती दार्शनिक चिन्तन का प्रतिनिधित्व करते हैं । श्लोकों का यह चयन अपने आप में डॉ. सोगाणी की एक उपलब्धि है। गीता के सारभूत पद्यों का ऐसा चयन शायद ही किसी ने किया हो।
चयन के पश्चात् दूसरा कार्य अनुवाद का था। इस क्षेत्र में भी डॉ. सोगाणी ने अपनी मौलिकता की छाप अंकित की है। गीता पर सैकड़ों टीकाएँ, व्याख्याएँ और विवेचनाएँ विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी है। अनुवाद भी अनगिनत हुए हैं। पर गीता-चयनिका के लेखक ने उन सब अनुवादों और व्याख्याओं को परे रख कर अपनी स्वतंत्र मति और दृष्टि का उपयोग किया है। यही कारण है कि उनका अनुवाद अन्य अनुवादों से अलग है। उन्होंने गीता के शब्दों का मर्म पकड़ने की चेष्टा की है। शब्दों के प्रचलित व प्रसिद्ध अर्थों को प्रामाणिक न मानकर उन्होंने प्रत्येक शब्द की धातु या प्रकृति के मूल अर्थ का सन्धान करते हुए स्वतंत्र रीति से अर्थनिर्णय किया है। एक विशेष बात यह है कि अनुवाद में श्लोकों की मूल अभिव्यक्ति की यथासंभव रक्षा की गयी है; लेखक ने अपनी ओर से मूल वाक्य शैली में परिवर्तन का परिहार किया है। जहाँ भी मूल की शब्दावली से बात स्पष्ट नहीं होती वहाँ कोष्ठकों में अर्थ के स्पष्टीकरण के लिए अपनी ओर से शब्द बढ़ाये गये हैं। इस प्रकार लेखक ने अनुवादक के धर्म का कड़ाई से पालन
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करते हुए अनुवाद को कोष्ठकों से बाहर तथा अपनी व्याख्यात्मक टिप्पणियों को सर्वत्र कोष्ठकों के भीतर ही दिया है।
गीता-चयनिका की तीसरी विशेषता चयनित श्लोकों की भाषा का व्याकरणिक विश्लेषण है। यह एक नया प्रयोग कहा जा सकता है। डॉ. सोगाणी अपनी पूर्व चयनिकाओं में प्राकृत भाषा का ऐसा विश्लेषण प्रस्तुत कर चुके हैं पर संस्कृत के सन्दर्भ में इस विश्लेषणपद्धति का प्रयोग लेखक की एक बिल्कुल नयी देन है। इस विश्लेषण में एक स्वउद्भावित सांकेतिक पद्धति की सहायता से प्रत्येक श्लोक के शब्दों एवं रचना-पद्धति का सूक्ष्म व्याकरणिक विश्लेषण किया गया है। यह विश्लेषण चयनिका के भाषा-पक्ष की अवगति में विशेष रूप से सहायक है। भाषा-विश्लेषण की यह पद्धति इतनी मौलिक तथा उपयोगी है कि संस्कृत-क्षेत्र में कार्य करने वाले विद्वान् भी इसे अपना कर लाभान्वित हो सकते हैं।
विद्वान् लेखक ने चयनिका की प्रस्तावना में गीता के दार्शनिक चिन्तन का मौलिकतापूर्ण विवेचन किया है। गीता-दर्शन में आपाततः अनेक विसंगतियाँ एवं विरोधाभास दृष्टिगत होते हैं। डॉ. सोगाणी ने अपनी तत्त्वग्राहिणी दृष्टि से गीता-दर्शन के इन विरोधाभासों का समाधान करते हुए उसके मौलिक सन्देश एवं तात्पर्य को पर्याप्त स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार गीता का आदर्श कर्मयोगी है जो गुणातीत एवं भक्तियोगी से अभिन्न है। गीता में ज्ञानयोगी या कर्मसंन्यासी
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की भी चर्चा आयी है किन्तु अनुभव की भूमिका पर कर्मयोगी के समकक्ष होते हुए भी कर्मों का परित्याग कर देने से वह लोक के लिए उतना उपयोगी नहीं है। लेखक के अनुसार गीता की विचारधारा हमारे आज के समाज की मानसिक अशान्ति, असन्तोष, तनाव और नैतिक विघटन को रोकने में पूर्णतया समर्थ है।
डॉ. सोगाणी ने गीता-चयनिका के माध्यम से गीता को सामान्यजन तक पहुँचाने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। साथ ही विद्वानों और विद्यार्थियों के लिए भी यह कृति अतीव उपादेय है। मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि प्राचीन भारत के आध्यात्मिक वाङ्मय के दीप्तिमान् रत्नों को विभिन्न चयनिकाओं में सजाकर वे आज के दिग्भ्रांत समाज में नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों की जिस उदात्त चेतना को जगाना चाहते हैं वह इनके माध्यम से अवश्य जाग्रत व समृद्ध होगी। मेरी हार्दिक कामना है कि एक मनीषी कर्मयोगी के रूप में वे लोक-कल्याण की जिस साधना में संलग्न हैं वह उत्तरोत्तर सशक्त और फलवती हो।
डॉ० मूलचन्द पाठक प्रोफेसर, संस्कृत विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर (राजस्थान)
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सम्मति
क्लासिक ग्रन्थ की प्रमुख विशेषता उसकी शब्द-शक्ति है जो अपने समय और सन्दर्भ को पार कर हर युग और संदर्भ को संबोधति करती है। हर व्यक्ति को लगता है कि उसके प्रश्न का समाधान उस ग्रन्थ में दिया हुआ है। गीता के बारे में यह विशेष रूप से चरितार्थ है। परमाणु के विस्फोट के समय वैज्ञानकि ने गीता में इसके स्वरूप का साक्षातकार किया-एक विराट् अनन्त का। जब डॉग हैमरशोल्ड अत्यन्त दुस्तर कार्य के लिए शुद्ध कर्त्तव्यबुद्धि के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ के महामन्त्री के रूप में वायुयान से जा रहे थे, तो उन्हें गीता का वह अमृतवाक्य याद आयाः कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन (9)।
भारत ने जब स्वातन्त्रय संघर्ष लड़ा तो तिलक, गाँधी ने गीता का सहारा लिया। उसकी नयी व्याख्या प्रस्तुत की। सुभाषचन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू जैस सेनानियों को उसने अजस्र प्रेरणा दी। यही नहीं स्वतन्त्रता पा लेने के बाद जब राष्ट्र के आर्थिक उत्थान का प्रश्र उठा तो उसका समाधान विनोबा ने गीता की व्याख्या करके दिया। मुझे जब कोई विद्यार्थी पूछता है कि अध्ययन-अनुसन्धान में मन निरन्तर कैसे लगाऊँ, तो उत्तर देता हूँ - अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते (90)। यानि कि चाहे प्रश्न मेरा हो, समाज का हो, विश्व का हो गीता में चिन्तन का कोई ऐसा सूत्र मिल जाता है जो मार्ग-दर्शक बन जाता है। पर यह कतई आवश्यक नहीं कि जो श्लोक मेरा मार्ग-दर्शक
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है, मेरे प्रश्न का समाधान है, वही आपका भी हो। इसलिए हर व्यक्ति को अपनी गीता चुननी होती है। जैसे कि दर्शन के सम्प्रदाय अनेक हैं, पर हर व्यक्ति को अपना जीवन-दर्शन संघटित करना पड़ता है, उसी प्रकार जो गीता का अपना श्लोक और अपना अर्थ खोजेगा, उसे अवश्य मिलेगा। जीवन में हर्ष-विषाद सभी को होते हैं और हर व्यक्ति को अर्जुन की भाँति समसयाओं के चौराहे पर आकुल मन से अपनेअपने प्रश्न पूछने पड़ते हैं। दूसरों का सहारा लीजिए, बाहर मित्र खोजिये
और शत्रु खोजिये या बनाइये - पर यह सब आपके जीवन को चौराहे से हटा कर रास्ता प्रशस्त कर देंगे, यह कहना कठिन है। और मुझे गीता का श्लोक बहुत अच्छा समाधान लगता है :
उद्धरेदात्मनात्मानं नातमानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥ (६७) __ आप अपने सबसे बड़े मित्र और सबसे बड़े दुश्मन हैं - यह जानने के बाद शेष सब अच्छे लगते हैं और मन आत्मनिरीक्षण में लग जाता है, फिर विषाद के लिए गुंजाइश ही नहीं। उद्धरेदात्मनात्मानम् आज के कई रोगों की अच्छी औषधि लगती है। पर हर व्यक्ति को इसे अपना अर्थ देना होगा, स्वयं औषधी के रूप में अपनाना होगा, तभी इसकी सार्थकता पहचानी जायेगी।
डॉ० कमलचन्द सोगाणी, प्रोफेसर, दर्शन-विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर, विगत कई वर्षों से क्लासिक कृतियों के नवनीत
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को सामान्य प्रबुद्ध व्यक्तियों के पठनार्थ निरन्तर प्रस्तुत कर रहे हैं। गीता-चयनिका गीता के अत्यन्त उत्कृष्ट एवं सारभूत श्लोकों का सानुवाद एवं व्याकरणिक विश्लेषण के साथ उपस्थापन है। प्रत्येक चयन चयनकार की दृष्टि का परिणाम होता है। महाभारत के आलोचनात्मक संस्करण को आधार बनाकर गीता का जो सर्वधर्म-दर्शन ग्राह्य स्वरूप है, उसे डॉ० सोगाणी ने अपने चयन का आधार बनाया है। गीता की सांप्रदायिक, शैव-वैष्णव मतावलम्बी व्याख्याएँ अनेक हैं, किन्तु साम्प्रदायिक परम्परा से अतीत रहकर उसका जो सर्वजन ग्राह्य स्वरूप है, वह आध्यात्मिक चेतना की विश्ववन्द्य आधार-शिला है। इस आध्यात्मिक चेतना तथा उसका सामाजिक-वैयक्तिक व्यवहार में उपयोग विरोधी कोटियाँ नहीं हैं। अत: व्यावहारिक तथा आत्मचिन्तन-प्रवण साधक दोनों ही इस चयनिका से लाभ उठा सकते हैं। अनुवाद, सरल, सुबोध तथा विश्वसनीय है, शास्त्रीय उलझाव अथवा साम्प्रदायिक अर्थबोध से यह आक्रान्त नहीं है। व्याकरणिक विश्लेषण उपयोगी है।
मेरी यह इच्छा है कि डॉ० सोगाणी विश्रान्ति के क्षणों में स्वयं द्वारा तैयार की हुई चयनिकाओं के लिए भारत की क्लासिकी में रूचि रखनेवालों की कक्षाएँ लगायें। मुझे विश्वास है कि इस प्रकार जो व्यक्ति किसी कारण भारत की संस्कृति-संपदा से बेखबर रहे हैं और आज जिनमें उसे जाने की ललक पैदा हुई है वे उनके चयनिका ग्रन्थों से बहुत लाभान्वित होंगे और यह देश भी अपनी नैतिक, आध्यात्मिक
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संपदा को पहचानना प्रारम्भ कर सकेगा। इसी में व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का अभ्युदय और निःश्रेयस सन्निहित है।
____ पाठक से भी मेरा एक निवेदन है। गीता के प्रत्येक श्लोक में तात्पर्य की अनन्तता निहित है। यह निस्सीमता प्रत्येक व्यक्ति अपना अर्थ खोजकर पा सकता है। गीता को नया अर्थ शास्त्रज्ञ पण्डित नहीं, अपितु सामान्य जन देता है। ऐसा अर्थ ही समाज को नया मार्ग तथा नया दिशा बोध प्रदान करता है। डॉ० सोगाणी के हम सभी संस्कृतज्ञ ऋणी हैं, जिन्होंने गीता की अमृतोपम वाणी को बुधजनहिताय, बहुजनसुखाय सुलभ बनाया है। उनका शेष जीवन समाज के लिए समर्पित इसी प्रकार की सारस्वत साधना में लगा रहे - यही हमारी प्रार्थना है।
डॉ० रामचन्द्र द्विवेदी प्रोफेसर, संस्कृत-विभाग राजस्थान विश्वविद्यालय,
जयपुर
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सम्मति
डॉ० कमलचन्द सोगणी की चार चयनिकाएँ - आचारांग - चयनिका, दशवैकालिक- चयनिका, समणसुत्तं चयनिका तथा अष्टपाहुड - चयनिका प्रकाशित हो चुकी हैं। ये चारों चयनिकायें जैन परम्परा से जुड़ी हैं। गीता - चयनिका का संबंध वैदिक परम्परा से है । इस दृष्टि से इस चयनिका का अपना महत्त्व है, क्योंकि यह उस उदार तथा असाम्प्रदायिक दृष्टि का प्रतिनिधित्व करती है जो सत्य को किसी सम्प्रदाय विशेष की थाती न मानकर उसको सभी जगह बिखरा हुआ देखती है। आज सम्प्रदाय- निरपेक्षता का युग है । डॉ० सोगाणी ने निष्ठापूर्वक गीता का आलोडन कर उसमें निहित सत्य को देखने का सफल प्रयास किया हैं ।
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डॉ० सोगाणी पाठक को केवल अनुवाद तथा अपनी व्याख्या के ही आधार पर अवलम्बित न रखकर व्याकरणिक विश्लेषण के माध्यम से मूल ग्रन्थ तक ले जाना चाहते हैं । कोई भी पाठक चाहे तो थोड़े से परिश्रम से स्वयं इस बात की जाँच कर सकता है कि उनका अनुवाद तथा विश्लेषण मूल ग्रन्थ के आशायानुकूल है या नहीं । धर्मग्रन्थों के विश्लेषण में यह मूलानुगामिता अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि इन धर्मग्रन्थों की रचना हजारों वर्ष पूर्व हुई और यह सदा संभव है कि लेखक आज की मान्यताओं को इन ग्रन्थों पर इस प्रकार थोप दे कि मूल ग्रन्थ के आशय के विपरीत बात उनके नाम पर प्रचलित हो जाए ।
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डॉ० कमलचन्द सोगाणी ने न केवल स्वयं मूल के प्रति निष्ठा बनाये रखने का पूरा प्रयत्न किया है, बल्कि यह भी प्रयत्न किया है कि पाठक स्वयं इस मूलानुगामिता की जांच कर सके। मेरी जानकारी में धर्मग्रन्थों की व्याख्या में व्याकरण शास्त्र का इतना व्यापक उपयोग पहली बार डॉ० सोगाणी ने ही किया है।
गीता-चयनिका की प्रस्तावना को देखें तो ज्ञात होगा कि डॉ० सोगाणी ने गीता को गीता के माध्यम से ही देखने का स्तुत्य प्रयास किया है। किसी भी प्रबुद्ध पाठक को संहज ही पता चलेगा कि उन्होंने तटस्थ रहने का भरसक प्रयत्न किया है और वे ज्ञान, कर्म और भक्ति के विवाद में नहीं पड़े हैं। उनकी मौलिकता यही है कि उन्होंने कहीं भी मल्लिनाथ के इस आदर्श को नहीं छोड़ा है कि "नामूलं लिख्यते किञ्चिन्नापेक्षितमुच्यते"
यही आदर्श इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता बन गया है।
डॉ० दयानन्द भार्गव आचार्य एवं अध्यक्ष, संस्कृत विभाग तथा अधिष्ठाता, कला, शिक्षा और सामाजिक
विज्ञान संकाय
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प्रस्तावना
यह सर्वविदित है कि मनुष्य अपनी प्रारम्भिक अवस्था से ही रंगों को देखता है, ध्वनियों को सुनता है, स्पर्शो का अनुभव करता है, स्वादों को चखता है तथा गन्धों को ग्रहण करता है । इस तरह उसकी सभी इन्द्रियाँ सक्रिय होती हैं । वह जानता है कि उसके चारों ओर पहाड़ हैं, तालाब हैं, वृक्ष हैं, मकान हैं, मिट्टी के टीले हैं, पत्थर हैं इत्यादि । प्रकाश में वह सूर्य, चन्द्रमा और तारों को देखता है । ये सभी वस्तुएँ उसके तथ्यात्मक जगत का निर्माण करती हैं । इस प्रकार वह विविध वस्तुनों के बीच अपने को पाता है । उन्हीं वस्तुनों से वह भोजन, पानी, हवा आदि प्राप्त कर अपना जीवन चलाता है । उन वस्तुओं का उपयोग अपने लिए करने के कारण वह वस्तु-जगत का एक प्रकार से सम्राट बन जाता है । अपनी विविध इच्छात्रों की तृप्ति भी बहुत सीमा तक वह वस्तु जगत से ही कर लेता है । यह मनुष्य की चेतना का एक श्रायाम है |
धीरे-धीरे मनुष्य की चेतना एक नया मोड़ लेती है । मनुष्य समझने लगता है कि इस जगत में उसके जैसे दूसरे मनुष्य भी हैं, जो उसकी तरह हँसते हैं, रोते हैं, सुखी-दुःखी होते हैं । वे उसकी तरह विचारों, भावनाओं और क्रियानों की अभिव्यक्ति करते हैं ।
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चूंकि मनुष्य अपने चारों ओर की वस्तुओं का उपयोग अपने लिए करने का अभ्यस्त होता है, अतः वह अपनी इस प्रवृत्ति के वशीभूत होकर मनुष्यों का उपयोग भी अपनी आकांक्षाओं और आशाओं की पूर्ति के लिए ही करता है । वह चाहने लगता है कि सभी उसी के लिए जीएँ । उसकी निगाह में दूसरे मनुष्य वस्तुओं से अधिक कुछ नहीं होते हैं । किन्तु उसकी यह प्रवृत्ति बहुत समय तक चल नहीं पाती है । इसका कारण स्पष्ट है । दूसरे मनुष्य भी इसी प्रकार की प्रवृत्ति में रत होते हैं। इसके फलस्वरूप उनमें शक्तिवृद्धि की महत्वाकांक्षा का उदय होता है । जो मनुष्य शक्ति-वृद्धि में सफल होता है, वह दूसरे मनुष्यों का वस्तुओं की तरह उपयोग करने में समर्थ हो जाता है। पर मनुष्य को यह स्थिति घोर तनाव की स्थिति होती है । अधिकांश मनुष्य जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इस तनाव की स्थिति में से गुजर चुके होते हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह तनाव लम्बे समय तक मनुष्य के लिए असहनीय होता है । इस असहनीय तनाव के साथ-साथ मनुष्य कभी न कभी दूसरे मनुष्यों का वस्तुओं की तरह उपयोग करने में असफल हो जाता है। ये क्षण उसके पुनर्विचार के क्षण होते हैं । वह गहराई से मनुष्य-प्रकृति के विषय में सोचना प्रारम्भ करता है, जिसके फलस्वरूप उसमें सहसा प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्मान-भाव का उदय होता है । वह अंब मनुष्य-मनुष्य की समानता और उसकी स्वतन्त्रता का पोषक बनने लगता है। वह अब उनका अपने लिए उपयोग करने के बजाय अपना उपयोग उनके लिए करना चाहता है । वह उनका शोषण करने के स्थान पर उनके विकास के लिए चिंतन प्रारम्भ करता है। वह स्व-उदय के बजाय सर्वोदय का इच्छुक हो जाता है। वह सेवा लेने के स्थान पर सेवा करने को महत्त्व देने लगता है। उसकी यह प्रवृत्ति उसे ii ]
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तनाव मुक्त कर देती है और वह एक प्रकार से विशिष्ट व्यक्ति बन जाता है । उसमें एक असाधारण अनुभूति का जन्म होता है । इस अनुभूति को ही हम मूल्यों की अनुभूति कहते हैं । वह प्रब वस्तु-जगत में जीते हुए भी मूल्य-जगत में जीने लगता है । उसका मूल्य - जगत में जीना धीरे-धीरे गहराई की ओर बढ़ता जाता है । वह अब मानव मूल्यों को खोज में संलग्न हो जाता है । वह मूल्यों के लिए ही जीता है और समाज में उनकी अनुभूति बढ़े इसके लिए अपना जीवन समर्पित कर देता है । यह मनुष्य की चेतना का एक दूसरा प्रायाम है |
गीता' में चेतना के दूसरे प्रायाम की सबल अभिव्यक्ति हुई है । इसका मुख्य उद्देश्य एक ऐसे समाज की रचना करना है जिसमें नैतिक-प्राध्यात्मिक मूल्यों की प्रतिष्ठा हो । नैतिक मूल्य जहाँ सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की चर्या को सुव्यवस्था प्रदान करते हैं, वहाँ आध्यात्मिक मूल्य नैतिकता के लिए दृढ़ श्राधार का निर्माण करते हैं । बिना अध्यात्म के कोरी नैतिकता लड़खड़ा जाती है । अध्यात्म के आधार से नैतिकता वास्तविक बनती है । अध्यात्म और नैतिकता के इस मिले-जुले रूप को ही गीता ने देवी संपदा कहा है। जबव्यक्ति देवी संपदा को प्राप्त करने की ओर चलता है, तो उसमें नैतिक और प्राध्यात्मिक दोनों ही गुण विकसित होने
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1. गीता में 700 श्लोक हैं जो प्रट्ठारह अध्यायों में विभक्त है हमने इनमें से 170 श्लोकों का चयन 'गीता-चयनिका शीर्षक के अन्तर्गत किया है ।
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लगते हैं । एक ओर वह आत्म-संयम, ईमानदारी, अहिंसा, सत्य, विनय, दानशीलता, अक्रोध, सरलता, धैर्य आदि नैतिक गुणों को अपने में विकसित करता है, तो दूसरी ओर वह अभय, प्राणी मात्र के प्रति करुणा, प्राध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति में दृढ़ता, त्यागशीलता, अलोलुपता, आत्म-बल, क्षमा, उदारता, स्वाध्याय, तपस्या, शान्ति आदि आध्यात्मिक गुणों को अपने में विकसित करने की ओर अग्रसर होता है (160,16,162)। जिनके जीवन में देवी संपदा नहीं बढ़ती है, वे व्यक्ति आसुरी संपदा से उत्पन्न विकारी प्रवृत्तियों को ग्रहण करने लगते हैं। वे नाना प्रकार की इच्छाओं के वशीभूत होकर जालसाजो, उदण्डता, अहंकार, क्रोध, निर्दयता, कामुकता, दुराचरण आदि के वशीभूत रहते हैं (163, 166) । ऐसे व्यक्ति मृत्यु तक असंख्य चिन्ताओं से घिरे रहते हैं, विषय-भोगों में प्रवृत्ति करते हैं और अन्याय से धन कमाने में भी नहीं हिचकते हैं (167, 168)। इस तरह से जिस व्यक्ति में देवी संपदा बढ़ती जाती है, वह व्यक्ति परम शान्ति प्राप्त कर लेता है। इसके विपरीत पासुरी संपदावाला व्यक्ति प्रशान्ति, व्याकुलता, चिन्ता और मानसिक तनाव का शिकार रहता है (164, 170) । अतः कहा जा सकता है कि देवी संपदा अर्जित की जानी चाहिए
और आसुरी संपदा का त्याग किया जाना चाहिए। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि समाज में किए गए वे कर्म जो दैवी संपदा से प्रेरित हैं वे ही व्यक्ति व समाज को उत्थान की ओर ले जा सकते हैं और वे कर्म जो आसुरी संपदा से प्रेरित हैं वे व्यत्ति व समाज को पतन के गर्त में धकेल देते हैं। .
समाज में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को प्रतिष्ठा के
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साथ साथ गीता हमारा ध्यान एक ऐसे प्रादर्श की ओर आकर्षित करती है जिसके अनुसार व्यक्ति को प्रात्मानुभव की सर्वोच्च ऊंचाइयों पर पहुंचने के पश्चात् भी लोक-कल्याण में लगा रहना चाहिए । वह प्रात्मानुभवी व्यक्ति लोक-कल्याण के कमों को न छोड़े। गीता के अनुसार मात्मानुभव और लोक-कल्याण एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं । सच तो यह है कि पूर्णता प्राप्त करने के पश्चात् किए गए कर्म ही व्यक्ति व समाज को सही दिशा प्रदान कर सकते हैं । गीता ने ऐसे व्यक्ति को कर्मयोगी कहा है। कर्मयोगी द्वारा किए गए (लोक-कल्याण के) कर्म उसको बन्धन में नहीं डालते हैं(51)। उसमें प्रशान्ति पैदा नहीं करते हैं और वह कर्मों को करने में मानसिक तनाव से मुक्त रहता है। गीता की निगाह में एक ऐसा योगी भी है जो प्रात्मानुभव की ऊँचाइयों पर तो पहुँच जाता है, किन्तु कर्म को त्याग देता है। गीता ने इसी को ज्ञानयोगी या कर्मसंन्यासी कहा है। कर्मयोगी और ज्ञानयोगी या कर्मसंन्यासी-दोनों ही प्रात्मानुभव की दृष्टि से पूर्ण समान हैं । वे अन्तरंगरूप से एक ही हैं (53)। जो उच्चतम अवस्था ज्ञानयोगी प्राप्त करता है, वही उच्चतम अवस्था कर्मयोगी द्वारा प्राप्त की जाती है (52, 54)। अन्तर केवल यह है कि कर्मयोगी लोककल्याण के कर्मों में संलग्न रहता है, किन्तु ज्ञानयोगी ऐसे कर्मों को भी छोड़ देता है और कर्मसंन्यासी बन जाता है । इस तरह से बाह्य अवस्था में अन्तर पैदा होता है, अन्तरंग अवस्था में दोनों में कोई भेद नहीं है (53)। ___ . यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि गीता ने उच्चतम अवस्था को ही प्रात्मानुभव की अवस्था, ब्रह्मानुभव की अवस्था, त्रिगुणा
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तीत अवस्था, परमात्मा की प्राप्ति की अवस्था तथा परम शान्ति की अवस्था कहा है। लोक-कल्याण को ध्यान में रखकर ही गीता ने कहा है कि कर्मसंन्यास से कर्मयोग प्रधिकं अच्छा है (26, 52)। लोकापेक्षा ज्ञानयोगी से कर्मयोगी श्रेष्ठ है । गीता ने कर्मयोगी को त्रिगुणातीत भी कहा है तथा परमात्मा की भक्ति में लीन भी कहा है। एक अर्थ में कर्मयोगी त्रिगुणातीत भी है तथा भक्तयोगी भी है। तीनों ही उच्चतम अवस्था को प्राप्त करने के पश्चात् लोककल्याण में संलग्न रहते हैं । इस तरह से गीता का कर्मयोगी, त्रिगुणातीत और भक्तयोगी एक वर्ग के हैं और ज्ञानयोगी और कर्मसंन्यासी दूसरे वर्ग के । प्रथम वर्ग के योगी लोक-कल्याण के कर्मों में संलग्न रहते हैं और समाज को दिशा-निर्देश देते हैं, किन्तु दूसरे वर्ग के योगी समाज के लिए किसी प्रकार का कोई कर्म नहीं करते है और इस तरह सभी प्रकार के कर्मों को त्याग देते हैं । मानयोगी बह्यापेक्षा कर्मसंन्यासी होता है और कर्मसंन्यासी अन्तरंगापेक्षा ज्ञानयोगी है। मामयोगी = (कर्मयोगी-कर्म), कर्मयोगी = (ज्ञानयोगी + कर्म) तथा कर्मसंन्यासी = . (कर्मयोगी-कर्म) कहे जा सकते हैं। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि (प्रात्मानुभव प्रादि की) उच्चतम अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् कर्मयोगी, त्रिगुणातीत, भक्तयोगी, ज्ञानयोगी तथा कर्मसंन्यासी की बुद्धि स्थिर हो जाती है । अतः इनको सामानरूप से स्थितना भी कहा जा सकता है । लोक-कल्याण के कर्मों को करता हुआ स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी कहलाता है और उन कर्मों से जो विमुख रहता है वह स्थितप्रज्ञ ज्ञानयोगी कहा जा सकता है। जैसे कर्मयोगी, त्रिगुणातीत तथा भक्तयोगी गीता के आदर्श महायोगी है, उसी प्रकार स्थितप्रज्ञ की अवस्था भी प्रादर्श के रूप में vi ] :
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मानी जा सकती है, क्योंकि लोक-कल्याण के लिए कर्म स्थितप्रज्ञ अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् ही सफलता पूर्वक किए जा सकते हैं।
यहाँ प्रश्न यह है : कर्मयोगी के कर्म करने की शैली क्या है? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि कर्मयोगी अनासक्त भाव से कर्म करता है, इसलिए प्रासक्ति से उत्पन्न होने वाले दोष से वह मलिन नहीं किया जाता हैं,जैसे कमल का पत्ता जल के द्वारा मलिन नहीं किया जाता है (इ)। सामान्य मनुष्य की आसक्ति स्वार्थपूर्ण कर्म-फल के प्रति होती है। उस फल से प्रेरित होकर वह कर्म करता है। किन्तु कर्मयोगी का (जो आत्मा में ही तृप्त है और आत्मा में ही संतुष्ट है) किसी भी प्राणी से कोई स्वार्थपूर्ण प्रयोजन नहीं होता है (27, 28) । वह कर्मों के स्वार्थपूर्ण फल द्वारा प्रेरित नहीं होता है (१) । अतः उसके सारे कर्म परार्थ के लिए ही होते हैं। वह परार्थ के लिए किए गए कर्मों के फलों को सोचता-विचारता अवश्य है, पर मासक्ति और स्वार्थ को सामने रखकर नहीं। प्रकृति की विराटता को देखकर वह उन कर्मों के फलों में आसक्ति नहीं करता है (9) । उसका मानना है कि कर्म में ही उसका अधिकार है कर्मों के फलों में नहीं (9) । अतः फलों में मासक्ति व्यर्थ है । वह तो अनासक्त होकर लोक-कल्याण के लिए ही कर्म करता है। इस तरह से उसके सारे कर्म मनासक्त भाव से किए गए होने के कारण 'प्रकर्म' ही हैं। इस कारण से वह बंधन में नहीं फंसता है । इस प्रकार वह 'कर्म' में 'मकर्म' को देखता है (42) । उसके लिए तो 'प्रकर्म' ही वास्तविक 'कर्म' है। मतः वह 'मकर्म' में भी 'कर्म' को देखता है (42) । गीता का
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कहना ह कि कर्म-फल में प्रासक्ति को छोड़कर जो सदैव आत्मा में तृप्त है और जो तृप्ति के लिए किसी पर निर्भर नहीं है, वह कर्म में लगा हुआ भी कुछ नहीं करता है (44)। जिसके सभी कर्म आसक्ति से उत्पन्न फल की आशा से रहित हैं, जिसने कर्मों की मासक्ति को ज्ञानरूपी अग्नि जलाद्वारा दिया है, उसको विद्वान (कर्म) योगी कहते हैं (43)। जैसे प्रज्वलित अग्नि लकड़ियों को राखरूप कर देती है वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि कर्मासक्तियों को नष्ट कर देती है (47) । साधारण जन अपनी कामनामों में लिप्त रहने के कारण कर्म-फल में आसक्त होता है । अतः वह मानसिक तनाव से ग्रस्त रहता है, किन्तु कर्मयोगी कर्मफलासक्ति को छोड़ने के कारण पूर्ण शान्ति प्राप्त करता है और प्रसन्नतापूर्वक रहता है (57, 58) । यहाँ यह समझना चाहिए कि जिसके द्वारा कर्म-फल की आशा नहीं त्यागी गई है वह कर्मयोगी नहीं हो सकता है, कर्म-फल की प्राशा का त्याग करने वाला व्यक्ति ही योगारुढ (कर्मयोगी) कहा जाता है (65, 66) ।
- यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि समता की भूमिका में ही अनासक्तता पनपती है । जिसका मन समता में स्थिर है, उसके द्वारा ही आसक्ति पर विजय प्राप्त की जा सकती है (60) । समतापूर्वक कर्मों को करना ही कमों को करने में कुशलता कही गई है (10, 11) । समता प्राप्त होने पर ही मानसिक तनावमुक्तता उत्पन्न होती है । कर्मयोगी समतावान होता है, इसलिए अनासक्तिपूर्वक कर्म करता है । कर्मयोगी फलासक्ति को छोड़कर सफलता और असफलता में तटस्थ होकर तथा समता में विद्यमान रहकर कर्म करता है (10) । वह तनाव उत्पन्न करनेवाले सुकर्म
1. विस्तार के लिए देखें 'अष्टपाड-चयनिका' की प्रस्तावना । viii ]
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और दुष्कर्म दोनों को ही त्याग देता है और समतापूर्वक कर्म करता है (11) ।
जिस प्रकार समता की भूमिका में अनासक्तता पनपती है, उसी प्रकार गुणातीत होने पर भी अनासक्तता उत्पन्न होती है । कर्मयोगी गुणातीत होता है, इसलिए अनासक्तिपूर्वक कर्म करता है । वह प्रकृति के गुणों (सत्त्व, रज और तम ) भोर उनसे उत्पन्न कर्मों में आसक्त नहीं होता है ( 37 ) । प्रकृति के गुणों से मोहित सामान्य व्यक्ति गुणों और कर्मों में आसक्त होते हैं (38, 93 ) । यहाँ यह समझना चाहिए कि गुण-सत्त्व, रज और तम प्रकृति से उत्पन्न होते हैं । वे अविनाशी आत्मा को शरीर में बाँधते है (150) 1 सत्त्व के बढ़ने पर प्रकाश और प्राध्यात्मिक ज्ञान उत्पन्न होते हैं ( 15 ) । रजोगुण के बढ़े हुए होने पर लोभ, घोर सांसारिक जीवन, कर्मों के लिए हिंसा, मानसिक अशान्ति तथा विषयों में लालसा - ये उत्पन्न होते है (152 ) । तमोगुण के बढ़े हुए होने पर आध्यात्मिक अन्धकार, भालस्य-युक्त प्राचरण, महत्वपूर्ण कार्यों की अवहेलना तथा आसक्ति-ये पैदा होते हैं (153) । जब योगी गुणों से भिन्न आत्मा का अनुभव कर लेता है, तो वह गुणातीत होकर अमरता को प्राप्त कर लेता है और अनासक्ति का जीवन जीता है (154, 155) ।
जिस प्रकार समता की भूमिका में अनासक्ति पनपनी है और जिस प्रकार गुणातीत को भूमिका में भी अनासक्तता उत्पन्न होती है, उसी प्रकार भक्ति की भूमिका में भी अनासक्तता का उदय होता है । गोता के अनुसार सगुण भक्त (व्यक्त की उपासना करने
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वाला और निर्गुण भक्त (अव्यक्त की उपासना करनेवाला)-दोनों ही सब प्राणियों के कल्याण में संलग्न रहते हैं (129)। भक्त सभी कर्म परमात्मा को अर्पण करके करता है, इसलिए वह फलों में आसक्ति से रहित होता है (114, 115, 126, 134, 135)। चाहे भक्त अव्यक्त की उपासना करनेवाला हो, चाहे वह व्यक्त की उपासना करनेवाला हो-दोनों अवस्थाओं में उसके कर्म अनासक्ति पूर्वक होते हैं (130, 135) । गोता ने चार प्रकार के भक्त कहे हैं : दुःखी, ज्ञान का इच्छुक, धन का इच्छुक और ज्ञानी (96) । इनमें से ज्ञानी की भक्ति ही अद्वितीय होती है (97) । वह ही अनासक्तिपूर्वक कर्म करने के योग्य होता है। यहाँ यह ध्यान देना प्रासंगिक है कि गीता के अनुसार अव्यक्त परमात्मा की उपासना करनेवालों की अपेक्षा व्यक्त परमात्माकी उपासना करनेवाले श्रेष्ठ हैं, क्योंकि मनुष्यों द्वारा अव्यक्त-उपासना का पथ कठिनाई से पकड़ा जाता है (127, 128, 131) । अतः गीता का शिक्षण है कि भक्ति का अभ्यास करते हुए सब कर्मों के फल में आसक्ति का त्याग करना चाहिए (135) । यहाँ यह समझना चाहिए कि भक्ति के दृढ़ होने से कर्मों के फल में आसक्ति का त्याग होता है और कर्मों के फल में आसक्ति का त्याग करने से भक्ति रढ़ होती है । चाहे व्यक्त परमात्मा की उपासना की जाए, चाहे अव्यक्त की उपासना की जाए-दोनों में पूर्णता प्राप्त कर लेने पर लोक-कल्याण के लिए कर्म किए जाते है और कर्मों के फलों में कोई प्रासक्ति नहीं रहती है । भक्ति का माहात्म्य समझाने के लिए गीता कहती है कि जो भक्ति-विधि से व्यक्त की उपासना करते हैं, वे गुणातीत होकर ब्रह्ममय हो जाते हैं (158) । यदि दुर्जन व्यक्ति भी भक्ति में लग जाता है, तो वह शीघ्र ही सद्गुणी बन
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जाता है ( 117, 118) । मृत्यु के समय में परमात्मा का स्मरण करता हुआ जो जीव शरीर को छोड़कर बिदा होता है वह उच्चतम दिव्य परमात्मा को प्राप्त करने के योग्य बन जाता है ( 101, 104, 105, 106) । भक्ति की पूर्णता होने पर अनासक्त कर्म स्वाभाविक हो जाता है । इस तरह से भक्तयोगी भी कर्मयोगी की कोटि में आ जाता है ।
1
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भक्तयोगी, गुणातीत व कर्मयोगी श्रात्मानुभव की उच्चतम अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् लोक-कल्याण के लिए अनासक्तिपूर्वक कर्म करते हैं । किन्तु ज्ञानयोगी या कर्मसंन्यासी उस अवस्था पर पहुँचने पर कर्मों को त्याग देता है । यद्यपि दोनों प्रकार के योगियों की अन्तरंग अवस्था एक सी है, फिर भी एक अनासक्तिपूर्वक कर्म करता है और दूसरा कर्मों से विमुख हो जाता है। इसका कारण योगियों की प्रकृति ही प्रतीत होता है । किन्तु गीता तो कर्मयोगी को ही ज्ञानयोगी ( कर्मसंन्यासी) से श्रेष्ठ मानती है । इसके निम्नलिखित कारण गीता में उल्लिखित हैं :
1) इस जगत में जनकादि महायोगी हुए हैं। आत्मानुभव की उच्चतम अवस्था प्राप्त कर लेने के पश्चात् जैसा उन्होंने किया है, वैसा ही अन्य योगियों को भी करना चाहिए । गीता का कहना है कि जनकादि ने कर्म के द्वारा जगत का कल्याण किया है । इसलिए प्रत्येक योगी को चाहिए कि लोक-कल्याण को महत्वपूर्ण मानता हुआ कर्म में संलग्न रहे ( 30 ) । ठीक ही है कर्म से विमुख होने पर लोक को नैतिक-प्राध्यात्मिक मूल्यों की भोर कौन प्राकषित करेगा ? यहाँ यह समझना चाहिए कि वैज्ञानिक जो बात
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हमें बताता है उससे भिन्न प्रकार की बात योगो हमें बताता है । वैज्ञानिक हमारे लिए कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, किन्तु मूल्यात्मक दिशा तो महायोगियों से ही हमें प्राप्त हो सकती है। के यदि निष्क्रिय हो जाएं, तो व्यक्ति और समाज दिशा-विहीन हो जायेंगे । विज्ञान हमें प्रचुर सुविधा दे सकता है, किन्तु परम शान्ति नहीं । परम शान्ति तो जीवन के मूल्यात्मक विकास से ही संभव होती है। इस मूल्यात्मक विकास का मार्ग महायोगी (कर्मयोगी) ही हमें बता सकते हैं। सच तो यह है कि महायोगी जो प्राचरण करता है सामान्य व्यक्ति भी उसका ही अनुसरण करते हैं । वह आचरण के जिस आदर्श को प्रस्तुत करता है, लोग उसका ही अनुकरण करते हैं (31) । अतः योगी समाज की विभिन्न परिस्थितियों में कर्मों के ऐसे आदर्श प्रस्तुत करे कि लोग उन विभिन्न परिस्थितियों में कर्मों के आदर्श के अनुरूप दृढ़तापूर्वक कर्म करते रहें । कर्मयोगी प्रकाश-स्तम्भ होते हैं और वे ही यदि कर्म-विमुख हो जाएँ तो समाज में अन्धकार व्याप्त हो जायेगा। अतः कर्मयोग, ज्ञानयोग (कर्मसंन्यास) से श्रेष्ठ है (26, 52)।. ... 2) मनोविज्ञान हमें बताता है कि मानव के व्यक्तित्व में ज्ञानात्मक, संवेगात्मक और क्रियात्मक (कर्मात्मक)-ये तीनों पक्ष वर्तमान होते हैं । कर्म, ज्ञान और संवेग पर आश्रित होते है। संवेग सदैव तृप्त होना चाहते हैं जिसके परिणामस्वरूप इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं । इच्छाओं की उत्पत्ति और उनकी तृप्ति की आकांक्षा सदैव साथ-साथ होती है। तृप्ति की यह माकांक्षा उद्देश्यात्मक क्रियाओं में अभिव्यक्त होती है। जैसे किसी के प्रति प्रेम का संवेग है तो वह संवेग संबंधित व्यक्ति को लाभ पहुंचाने
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की इच्छा में परिणत होकर अपनी तृप्ति की दिशा में सक्रिय हो. जाता है । इस तरह से इस जगत में व्यक्ति रागात्मक कर्म और द्वेषात्मक कर्म करने में लगा रहता है। प्राणियों के साथ-साथ व्यक्ति वस्तुओं से भी राग-द्वेषात्मक संबंध जोड़ लेता है । यही आसक्ति है। संसारी प्राणी कर्मों में प्रासक्त होकर कर्म करते हैं (34) । यहाँ गीता का कहना है कि अनासक्त ज्ञानी (कर्मयोगी) लोक-कल्याण को करने के लिए कर्म करे (34)। इससे प्रासक्त व्यक्तियों की मति में कर्मों के प्रति अरुचि पैदा नहीं होगी। उनको समझाया जा सकेगा कि वे आसक्ति को त्यागकर कल्याणकारी कर्म करें (35)। इससे समाज में आसक्ति से उत्पन्न होनेवाली बुराइयाँ समाप्त हो सकेंगी और समाज में विकास की गति तीव्र होगी । इसलिए गीता का शिक्षण है कि कर्मयोगी (अनासक्त व्यक्ति) सब कल्याणकारी कर्मों का भली-भाँति माचरण करता हुमा दूसरों को भी उनका प्रम्यास करावे (35) । गीता के शिक्षण से यह फलित होता है कि ज्ञानयोगी संसारी. प्राणियों में कर्मों के प्रति अरुचि उत्पन्न करनेवाला होगा और यह बात लोक के लिए हानिकारक सिद्ध होगो । अतः कर्मयोग, ज्ञानयोग (कर्मसंन्यास) से श्रेष्ठ है
.. 3) यह सच है कि जो व्यक्ति आत्मा में ही तृप्त है, जिसकी प्रात्मा में ही प्रीति है तथा जो मात्मा में ही संतुष्ट है, उसके लिए इस लोक में कोई कर्तव्य वर्तमान नहीं है (27)। उसे अपने लिए सब कुछ प्राप्त नहीं करना है। उसमें अब कोई स्वार्थपूर्ण प्रयोजन नहीं बचा है (28)। फिर भो गीता का शिक्षण है कि ऐसा व्यक्ति परार्थ के लिए ही कर्म करे (29)। इससे संसार
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में परार्थ के लिए कर्म करने की प्रतिष्ठा बढ़ेगी और व्यक्ति की स्वार्थपूर्ण वृत्तियों पर अंकुश लग सकेगा। इस कारण से भी कर्मयोग, ज्ञानयोग (कर्मसंन्यास) से श्रेष्ठ है।
. 4) मनुष्य में त्रिगुणात्मक प्रकृति विद्यमान है । अतः वह सत्त्व, रज और तम के वशीभूत होकर कर्म करता ही है । वह कर्म करने में पराश्रित है, त्रिगुणात्मक प्रकृति पर माश्रित है (25) । जब सर्वत्र प्रकृति के गुणों द्वारा कर्म कराये जाते हैं, तो यह मान लेना कि व्यक्ति उनका कर्ता है अनुचित है। कर्तृत्व भाव के समाप्त होने से अहंकार समाप्त होता है और व्यक्ति अनासक्त हो जाता है (37) । केवल प्रकृति के गुणों से मोहित व्यक्ति ही गुरण और कर्मों में प्रासक्त होते हैं (38)। यहाँ गीता का शिक्षण है कि अनासक्त व्यक्ति कर्म न करके मोहित व्यक्तियों को न भेटकाए (38)। आवश्यकता यह है कि व्यक्ति के मोह को तोड़ा जाए, किन्तु उसे कर्मों से विमुख न किया जाए । कर्तृत्व भाव को समाप्त किया जाए, कर्मों को नहीं। कर्मों को लोक-कल्याणकारी दिशा दे दी जावे । कर्मयोगी ऐसी दिशा में ही कर्म करता है। .अतः कर्मयोग, ज्ञानयोग (कर्मसंन्यास) से श्रेष्ठ है।
___5) कर्मयोग की पुष्टि में गीता का कहना है कि परमात्मा स्वयं कर्म में लगा हुमा है । यद्यपि परमात्मा के लिए तीनों लोकों में कुछ भी कर्तव्य नहीं है तथा जो वस्तु प्राप्त की जानी चाहिए. वह भी अप्राप्त नहीं है, तथापि वह कर्म में ही डटा रहता है (32) । ऐसा नहीं करने पर जगत में अव्यवस्था व्याप्त हो जायेगी
और मनुष्य भी कर्म न करने का अनुसरण करेंगे (33) । प्रतः कर्मयगी (परमात्मा की तरह) अनासक्त होकर लोक-कल्याण के
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लिए कर्म में डटा रहता है । इसलिए कर्मयोग ज्ञानयोग (कर्मसंन्यास) से श्रेष्ठ है। - उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि गीता के अनुसार कर्मयोगी लोक के लिए बहुत ही महत्त्व का है। इसी कोटि में भक्तयोगी व गुणातीत भी सम्मिलित हैं। यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि मनासक्तता कर्मयोग का प्राण है, किन्तु पूर्ण अनासक्तता प्रात्मानुभव के पश्चात् ही घटित होती है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि सामान्य व्यक्ति ऐसी स्थिति में कैसे चले ? इसके उत्तर में गीता का कहना है कि सामान्य व्यति यदि अनासक्त वृत्ति का बहुत थोड़ा सा अभ्यास भी करता है तो वह अत्यधिक मानसिक संकट से अपने माप को बचा सकता है (6) । यहाँ यह समझना चाहिए कि जितने अंश में अनासक्तता पाली जाती है, उतने ही अंश में व्यक्ति नैतिक-पाध्यात्मिक रष्टिकोण से आगे बढ़ता है । यद्यपि पूर्णता की प्राप्ति प्रादशं है तथापि उस पोर यथाशक्ति किया गया प्रयास भी हमें विकासोन्मुख बनाता है। इसका अभिप्राय यह है कि व्यक्ति किसी भी न्यायोचित सामाजिक भूमिका में रहते हुए परार्थ के लिए कदम उठा सकता है । स्वार्थपूर्ण मानसिक स्थिति का थोड़ा सा भी त्याग तथा लोक-कल्यात्मक दृष्टि का आचरण व्यक्ति व समाज दोनों के लिए हितकारी होते हैं । यदि मनुष्य समाज में रहते हुए दैवी संपदा से प्रेरित होकर किसी भी न्यायोचित सामाजिक भूमिका का निर्वाह करता है, तो अनासक्ति की अोर कदम बढ़ाना सरल हो जाता है । उस भूमिका मे लोक-कल्याण का अभ्यास, अनासक्ति का अभ्यास ही है, कर्मफलासक्ति का त्याग, समता की ओर अग्रसर होना ही है तथा
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परार्थ के प्रति जागृति, मनासक्ति के प्रति जागरूकता ही है । यह जागरूकता ही हमें कर्मयोगी बनने के लिए प्रेरित करती रहेगी। अतः अनासक्ति का अभ्यास व्यक्ति को मानसिक तनाव से थोड़ाबहुत तो मुक्त करता ही है । आसक्ति मानसिक तनाव की जनक है (56) । इससे व्यक्ति की बुद्धि में अस्थिरता पैदा होती है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति अनासक्ति की साधना करने में असमर्थ रहता है (8)। साधना का मार्ग :
अनासक्ति की प्राप्ति जीवन का आदर्श है। कर्म-फल में आसक्ति अज्ञान है । कर्म-फल में आसक्ति दुःख का कारण है। कर्मयोगी, भक्तयोगी तथा गुणातीत अनासक्ति का जीवन जीते हैं और लोक-कल्याण के लिए कर्म करते हैं। यह कहा गया है कि असंयमी व्यक्ति के द्वारा योग प्राप्त नहीं किया जा सकता है (91) । दुराचारी, दानवी भाव का अनुसरण करनेवाले, अज्ञानी व बुरे मनुष्य परमात्मा (अनासक्ति) का अनुभव नहीं कर सकते हैं (95) । बहुत खाने वाले व्यक्ति, बिल्कुल न खानेवाले व्यक्ति, बहुत निद्रालु व्यक्ति, और बहुत जागनेवाले व्यक्ति योग के लिए अयोग्य माने गये हैं (75.) । प्रयत्न करते हुए संयमी व्यक्ति के द्वारा ही योग प्राप्त किया जा सकता है (91)।
साधना के लिए सबसे पहली आवश्यकता है शाश्वत में श्रद्धा अनश्वर आत्मा में श्रद्धा । अश्रद्धालु तथा संशय करने वाला व्यक्ति नष्ट हो जाता है (50) । प्रश्रद्धा करता हमा व्यक्ति जन्ममरण की परम्परा में फंसा रहता है (109)। सच यह है कि xvi ] .
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मात्मा मनादि, मनश्वर और चिरस्थायी है (2)। शरीर के नाश होने पर यह नष्ट नहीं होता है (2) । जैसे जीव के वर्तमान शरीर में बचपन, जवानी और बुढ़ापा देखा जाता है, वैसे ही मृत्यु के पश्चात् इस जीव के लिए दूसरे शरीर का मिलना (1)। जैसे कोई मनुष्य फटे-पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़ों को धारण करता है, वैसे ही जीव जर्जर शरीर को छोड़कर दूसरे नये शरीरों में प्रवेश करता है (3)। प्रात्मा की अनश्वरता में श्रद्धा होने पर. शरीर परिवर्तन की स्थिति में व्याकुलता नहीं होती है (1)। ____शाश्वत मात्मा में श्रद्धा के साथ-साथ मनुष्य में यह ज्ञान उत्पन्न होना चाहिए कि वह स्वयं ही स्वयं का बन्धु है और वह स्वयं ही स्वयं का शत्रु है । प्रतः स्वयं के द्वारा ही स्वयं का उद्धार संभव है (67) । स्वयं की दृढ़ता के बिना योग-साधना असंभव ही रहती है । साधक को यह समझना चाहिए कि विषयों का चिन्तन मन में उनके प्रति प्रासक्ति पैदा कर देता है। प्रासक्ति से विषयों की कामना पैदा होती है। विषयों की कामना-पूर्ति में अड़चन पैदा होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से व्याकुलता पैदा होती है । व्याकुलता से हेय-उपादेय के चिन्तन में अव्यवस्था होती है। चिन्तन के क्षीण होने से नैतिक-प्राध्यात्मिक मूल्यों की समझ का नाश हो जाता है और इस समझ के समाप्त होने पर जीवन का सार ही समाप्त हो जाता है (20, 21) । साधक को यह ज्ञान भी होना चाहिए कि इन्द्रिया शरीर से उच्चतर हैं; मन इन्द्रियों से उच्चतर है; बुद्धि मन से उच्चतर है और बुद्धि से परे प्रात्मा स्थित है (39) । चयनिका ]
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योग-साधना में सक्रिय होने के लिए इन्द्रिय-विषयों में श्रासक्ति पर और मन पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है । मन के जीत लेने पर इन्द्रिय-विषयों में प्रासक्ति भी जीत ली जाती है । निश्चय ही यह मन चंचल है तथा कठिनाई से संयमित किया जानेवाला है । किन्तु इसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है (90) । वैराग्य के लिए जन्म-मरण - बुढ़ापा - रोग से उत्पन्न दुःखों को देखना- समझना उपयोगी होता है (144) । सच है कि संयमित मन ही हमारा बंधु है (परमात्मानुभव के लिए सहायक है) और असंयमित मन ही हमारा शत्रु है ( श्रात्म - विकास को रोकनेवाला है) (68) । मन को नियन्त्रित करने के लिए उपयुक्त आहार-विहार तथा उपयुक्त निद्रा-जागरण मावश्यक है ( 76 ) | ब्रह्मचर्य का पालन तथा अपरिग्रह का जीवन दोनों ही साधना के लिए जरूरी हैं (72, 73, 74 ) । गीता का शिक्षण है कि जब मन बाहर विषयों की ओर दौड़े, तो उसे वहाँ से हटाकर साधक उसे आत्मा में लगाए (85)।
साधना की सफलता के लिए जीवन में सद्गुणों का विकास किया जाना चाहिए । धैर्य, ईर्ष्या से मुक्ति, एकान्तवास, गृह श्रादि में संबंध का प्रभाव, विनम्रता, निष्कपटता, श्रहिंसा, सरलता, श्राध्यात्मिक गुरू की सेवा, आध्यात्मिक ज्ञान की निरन्तरता, एकाग्रता, निष्पक्षता करुरणा, क्षमा, निर्भयता श्रादि गुण विकसित किए जाने चाहिए (46, 136, 139, 143, से 147 ) साधक को चाहिए कि वह अपनी श्रात्मा के सादृश्य से सब प्राणियों में समानता देखे और उनके सुख-दुःख को भी अपनी प्रात्मा के सादृश्य
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से देखे (89)। साधक को देवी संपदा से युक्त होना चाहिए (160-162)। ____ ध्यान और भक्ति से ही साधना मागे बढ़ती है और पूर्णता तक पहुंच जाती है । जैसे वायु से सुरक्षित स्थान में विद्यमान दीपक हिलता-डुलता नहीं है, उसी प्रकार भात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी का चित्त स्थिर हो जाता है (78)। साधक, शरीर, सिर मौर गर्दन को एक साथ व्यवस्थितरूप से रखता हुमा रढ़ रहे और इधर-उधर न देखता हुमा अपनी नाक के अग्रभाग को देखकर परमात्मा में लीन होवे (73, 74) । गीता का कहना है कि ध्यान के अभ्याससहित चित्त के द्वारा तथा एकाग्रचित्त से ध्यान करता हुमा साधक उच्चतम दिव्य प्रारमा को प्राप्त कर लेता है (103) । ध्यान की साधना के साथ भक्ति भी महत्वपूर्ण है। पर मात्मा का दिव्य स्वरूप भक्ति से अनुभव किया जा सकता है (125) । जो प्राधिक श्रद्धा से युक्त होकर सगुण (व्यक्त) की उपासना करते हैं, वे सर्वोत्तम कहे गये हैं (128)। निर्गुण(प्रव्यक्त) की उपासना करनेवाले भी परमात्मा को पहुंचते हैं, किन्तु यह पथ कठिन है (129, 130, 131) । जो एकनिष्ठ भक्ति-विषि से परमात्मा की उपासना करता है, वह त्रिगुणों के पूर्णतः परे जाकर ब्रह्म हो जाता है (158)। जिनकी परमात्मा में ही बुद्धि है, जिनका उसमें ही मन है, जिनकी उसमें ही श्रया है, जो उसमें ही लीन है, वे पूर्णता को प्राप्त कर लेते हैं (59)।
1. इसका विवेचन पृष्ठ सं. iii और iv पर देखें।
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साधना को पूर्णता : ___साधना की पूर्णता होने पर हमें ऐसे महायोगो के दर्शन होते हैं जो पात्मानुभव को सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् लोक-कल्याणकारी कर्मों में संलग्न रहता है तथा व्यक्ति और समाज के नैतिक-माध्यात्मिक विकास के लिए प्रेरणा-स्तम्भ होता है। गीता में ऐसे महायोगी की विशेषतामों को बड़ी सूक्ष्मता से दर्शाया गया है। उसे कर्मयोगो, भक्तयोगी, गुणातीत, योगारूढ़, बह्मयोगी, ब्रह्मज्ञानी आदि शब्दों से इंगित किया गया है। यहाँ यह समझना चाहिए कि इन सभी योगियों की बुद्धि स्थिर हो जाती है, इसलिए ये सभी स्थितप्रज्ञ भी कहे जा सकते हैं। स्थितप्रज्ञ अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् ही लोक-कल्याण के लिए सफलतापूर्वक कर्म किए जा सकते हैं । अतः महायोगी स्थितप्रज्ञ होता है । उसकी निम्नलिखित विशेषताएं हैं :
(i) जब व्यक्ति समस्त इच्छात्रों को त्याग देता है तथा आत्मा से ही प्रात्मा में तृप्त होता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है (14) । (ii) जिसका मन दुःखों में शोकरहित बना रहता है, जिसकी सुखों में लालसा नष्ट हो गई है, जिसका राग, भय और क्रोध विदा हो गया है, वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है (15)। (ii) जब व्यक्ति इन्द्रियों को इन्द्रिय-विषयों में प्रवृत्त होने से पूरी तरह से रोक लेता है, जैसे कछुवा सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है (17)। सामान्यतया सब मनुष्यों के जीवन में जो रात्रि (विस्मृत आध्यात्मिक स्थिति) है, उस प्राध्यात्मिक स्थिति के प्रति संयमी सदैव जागता (सक्रिय) रहता है । जिस इन्द्रिय-सुख में मनुष्य जागते (सक्रिय)
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रहते हैं, प्रात्मा का अनुभव करते हुए ज्ञानी के जीवन में वह रात्रि (इन्द्रिय-सुख) निरर्थक होती/होता है (22)। जिसकी इन्द्रियाँ नियन्त्रण में होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है (19) । (iv) जो व्यक्ति मासक्तिरहित होता है तथा भिन्न-भिन्न इष्ट-अनिष्ट वस्तुओं को प्राप्त करके न उनको चाहता है और न ही उनसे घृणा करता है, वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है (16)। (v) विषयोंरूपी पाहार का त्याग करनेवाले सामान्य मनुष्य के केवल इन्द्रियविषय ही दूर होते हैं, किन्तु उनमें स्वाद-रस समाप्त नहीं होता है। परमात्मा का अनुभव करने के पश्चात् स्थितप्रज्ञ का इन्द्रिय-विषयों के दूर होने के साथ-साथ उनमें स्वाद-रस भी समाप्त हो जाता है (18)। (vi) जो निरासक्त और स्थिर बुद्धिवाला है, वह ब्रह्मज्ञानी ब्रह्म में स्थिर रहता है । वह प्रिय वस्तु को प्राप्त करके हर्षित नहीं होता है और अप्रिय वस्तु को प्राप्त करके दुःखी नहीं होता है (61) । (vii) जिस अवस्था को प्राप्त करके जब व्यक्ति दूसरे किसी भी लाभ को उस अवस्था से अधिक ग्रहणीय नहीं मानता है और जिस अवस्था में स्थित व्यक्ति अत्यधिक दुःख के द्वारा भी जब विचलित नहीं किया जाता है, तो व्यक्ति की वह अवस्था योग की अवस्था (स्थितप्रज्ञ-अवस्था) कही जाती है (81)। (viii). जो व्यक्ति माध्यात्मिक अनुभव और लौकिक ज्ञान से तृप्त है, जो सर्वोच्च अनुभव पर स्थित है, जो जितेन्द्रिय है और जिसके लिए ढेला, कीमती पत्थर मौर सोने से बनी हुई वस्तु समान है, वह योगी (स्थितप्रज्ञ) परमात्मा में लीन कहा जाता है (70) । (ix) जो व्यक्ति प्रान्तरिकरूप से शान्त है, जिसमें प्रान्तरिक रूप से प्रसन्नता है और जो आन्तरिक रूप से प्रकाश ही है, वह योगी (स्थितप्रज्ञ) है और वह परमात्मा में लीन अवस्था प्राप्त करता है चयनिका
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(63) । (x) जो प्रात्मा को सब प्राणियों में स्थित देखता है तथा सब प्राणियों को प्रात्मा में स्थित देखता है वह प्रात्मानुभव से युक्त व्यक्ति (स्थितप्रश) हर समय इसी प्रकार समानरूप से देखनेवाला होता है (87) । (xi) पवित्र योगी निरन्तर प्रात्मों को परमात्मा में लगाता हुमा परमात्मा के प्रत्यक्ष ज्ञान को प्राप्त करता है और उसके फलस्वरूप वह अनन्तसुख का अनुभव करता है (86)।
जो स्थितप्रज्ञ हो जाता है, जो योगी हो जाता है, वह ही कर्मयोगी, भक्तयोगी भोर गुणातीत होता है । उनकी निम्नलिखित विशेषताएं हैं - कर्मयोगी:
(i) प्रासक्तिपूर्वक कर्म करनेवाले की बुद्धि अस्थिर होती है, किन्तु अनासक्तिपूर्वक कर्म करने वाले (कर्मयोगी) की बुद्धि स्थिर और ऊर्जावान होती है (7, 8) । (ii) प्रज्ञावान मनुष्य कर्मों से उत्पन्न फल में प्रासक्ति को छोड़कर स्वस्थ (समतामयी) स्थिति को प्राप्त करते है (12) । (iii) जो पुरुष समस्त कामनामों को छोड़कर मासक्तिरहित, अहंकाररहित तथा सन्तुष्ट होकर व्यवहार करता है, वह शान्ति प्राप्त करता है (23) । (iv) जो मनुष्य पात्मा में ही तृप्त है तथा प्रात्मा में ही सन्तुष्ट है, उसका लोक में कोई कर्तव्य विद्यमान नहीं है । उसका किसी भी प्राणी से कोई स्वार्थपूर्ण प्रयोजन नहीं है । किन्तु गीता का शिक्षण है कि ऐसा व्यक्ति (कर्मयोगी) करने योग्य कर्म करता रहे, क्योंकि कर्म को करता हुमा अनासक्त मनुष्य परमात्मा को
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[ गीता
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प्राप्त कर लेता है (27, 28, 29)। (v) अनासक्त मनुष्य (कर्मयोगी) लोक-कल्याण के लिए कर्म करता है (34)। (vi) जो संयोगवश लाभ से सन्तुष्ट है, जो दो विरोधी (हर्ष-शोक मादि) प्रवस्थानों से परे (द्वन्द्वातीत) है, जो ईर्ष्या से मुक्त है, जो सफलता और असफलता में समान है, जिसने समस्त संशय को ज्ञान द्वारा छिन्न-भिन्न कर दिया है, जिसने समस्त कर्मफलासक्ति को त्याग दिया है, वह व्यक्ति (कर्मयोगी) लोक-कल्याण के लिए कर्मों को करके भी नहीं बांधा जाता है (46, 51)। (vii) साधारण जन अपनी कामनामों में लिप्त रहने के कारण कर्म-फल में आसक्त रहते हैं, इसलिए मानसिक तनाव से दुःखी होते हैं । किन्तु कर्मयोगी कर्मफलासक्ति को छोड़कर कर्म करते हुए भी शान्ति प्राप्त करता है (56) । (viii) जिनके द्वारा सब दोष नष्ट कर दिए गए हैं, जिनके द्वारा सब सन्देह समाप्त कर दिए गए हैं जिनके द्वारा मन वश में कर लिया गया है, जो सब प्राणियों के कल्याण में संलग्न रहते हैं, वे ऋषि (कर्मयोगी) परमात्मा में लीन अवस्था को प्राप्त करते है (64) । (ix) जब कोई न तो इन्द्रियों के विषय में और न ही कों में पासक्त होता है, तो सब 'कर्मफल की प्राशा का त्याग करनेवाला वह व्यक्ति योगारूढ (कर्मयोगी) कहा जाता है (66)। भक्तयोगी :
(i) कर्मों को परमात्मा में समर्पित करके और उनमें मासक्ति को छोड़कर जो व्यक्ति (भक्तयोगी) कर्मों को करता है, वह मासक्ति से उत्पन्न होने वाले दोषों से मलिन नहीं किया जाता है (55)। (ii) परमात्मा में विश्वास करनेवाला जो व्यक्ति सब प्राणियों में स्थित परमात्मा को भजता है, वह भक्तयोगी चयनिका
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सब तरह से कर्तव्य निभाते हुए भी परमात्मा में टिका रहता है (88) । (iii) परमात्मा में केन्द्रित मन और बुद्धिवाला भक्त जो सब प्राणियों के लिए सौहार्दपूर्ण औौर करुरणायुक्त है, जो ममतारहित, अहंकाररहित क्षमावान और सुख-दुःख में समतायुक्त है, जो सदाभक्ति करनेवाला है, स्वसंयत और दृढ़ संकल्पवाला है, वह भक्त परमात्मा को प्रिय होता है (136, 137 ) | (iv) जिससे कोई भी प्राणी भयभीत नहीं होता है, और जो किसी भी प्राणी से भयभीत नहीं होता है, जो कामना, ईर्ष्यायुक्त क्रोध, भय और चित्त की स्थिरता से रहित है, वह भक्त परमात्मा के लिए प्रिय होता है (139) । (v) जो इच्छारहित है, निष्पक्ष है, सद्गुणी और कुशल है, दुःख से मुक्त है और जो समस्त हिंसा का त्यागी है, वह आराधक परमात्मा को प्रिय होता है (139) 1 (vi) जो हर्षोन्मत्त नहीं होता है, जो घृणा नहीं करता है, जो शोक नहीं करता है, जो चाहना नहीं करता है, और जो शुभ-अशुभ फल की श्रासक्ति का त्यागी है, वह आराधक परमात्मा को प्रिय होता है (140) । (vii) जो शीत भौर उष्ण स्पर्शो में तथा सुख और दुःख में समतायुक्त है, जो प्रासक्तिरहित है, जिसके लिए निन्दा भौर प्रशंसा समान हैं, जो घर-रहित और स्थिर बुद्धिवाला है, वह प्राराधक परमात्मा को प्रिय होता है (141, 142 ) ।
गुणातीत :
जो आत्मा में स्थित है, जिसके लिए सुख-दुःख समान हैं, जो अपनी निन्दा - प्रशंसा में समतायुक्त है, जिसके लिए इष्ट-अनिष्ट वस्तुएं समान श्रेणी की होती हैं, जो प्रशान्त है, जिसके लिए मिट्टी का ढेला, कीमती पत्थर मौर सोना समरूप हैं, जो मान-अपमान
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गीतां
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में संतुलित है, जो शत्रु और मित्र के विषय में एक सा रहता है तथा जो सब प्रकार की हिंसा का त्यागी होता है, वह त्रिगुणों (सत्त्व, रज और तम) से परे (त्रिगुणातीत) कहा जाता है (156, 156)। - गीता-चयनिका के उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि गीता में जीवन के मूल्यात्मक पक्ष की सूक्ष्म अभिव्यक्ति हुई है। इसी विशेषता से प्रभावित होकर यह चयन पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है । श्लोकों का हिन्दी अनुवाद मूलानुगामी रहे, ऐसा प्रयास किया गया है । यह दृष्टि रही है कि अनुवाद पढ़ने से ही शब्दों की विभक्तियाँ एवं उनके अर्थ समझ में प्राजाएँ। अनुवाद को प्रवाहमय बनाने की भी इच्छा रही है। कहाँ तक सफलता मिली है, इसको तो पाठक ही बता सकेंगे। अनुवाद के अतिरिक्त श्लोकों का व्याकरणिक विश्लेषण भी प्रस्तुत किया गया है। इस विश्लेषण में जिन संकेतों का प्रयोग किया गया है, उनको संकेत सूची में देखकर समझा जा सकता है। यह भाशा की जाती है कि संस्कृत को व्यवस्थित रूप में सीखने में सहायता मिलेगी तथा व्याकरण के विभिन्न नियम सहज में ही सीखे जा सकेंगे। यह सर्व विदित है कि किसी भी भाषा को सीखने के लिए व्याकरण का ज्ञान अत्यावश्यक है। प्रस्तुत श्लोकों एवं उनके व्याकरणिक विश्लेषण से व्याकरण के साथ साथ शब्दों के प्रयोग भी सीखने में मदद मिलेगी। शब्दों की व्याकरण और उनका अर्थपूर्ण प्रयोग दोनों ही भाषा सीखने के माधार होते हैं। मनुवाद एवं व्याकरणिक विश्लेषण जैसा भी बन पाया है पाठकों के समक्ष है। पाठकों के सुझाव मेरे लिए बहुत ही काम के होंगे। चयनिका
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प्राभार:
गीता-चयनिका के लिए एस. के. बेलवलकर द्वारा संपादित भगवद्गीता [भीष्मपर्व के अन्तर्गत, महाभारत का छटा खण्ड] का उपयोग किया गया है। इसके लिए श्री बेलवलकर के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। भीष्मपर्व का यह संस्करण भण्डारकर प्राच्य शोध संस्थान, पूना से सन् 1947 में प्रकाशित हुआ है।
डॉ. मूलचन्द्र पाठक, प्रोफेसर, संस्कृत-विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर ने गीता-चयनिका का प्राक्कथन लिखने को स्वीकृति प्रदान को, इसके लिए मैं उनका हृदय से कृतज्ञ हूँ। उन्होंने इसके हिन्दी अनुवाद और व्याकरणिक विश्लेषण को देखकर महत्वपूर्ण सुधार सुझाए तथा इसको प्रस्तावना को पढ़ने व सुनने का समय दिया । अतः मैं उनका प्राभारी हूँ। ___डॉ. रामचन्द्र द्विवेदो, प्रोफेसर, संस्कृत-विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर तथा डॉ. दयानन्द भार्गव, प्रोफेसर संस्कृतविभाग, जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर ने गोता-चयनिका पर जो सम्मति लिखी है, उसके लिए मैं उनका कृतज्ञ हूँ। . . . डॉ. पी. के. माथुर, सह-प्रोफैसर, दर्शन विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर डॉ. श्यामराव व्यास, सहायक प्रोफेसर, दर्शन-विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर, श्री एस. एन. जोशी, सह-प्रोफेसर, अंग्रेजी-विभाग, सु. वि. उदयपुर, डॉ. सी. वी. भट्ट, सह-प्रोफेसर रसायन-शास्त्र, विभाग, सु. वि. उदयपुर,
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गीता
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डॉ. बी. एल. बसेर, सह-प्रोफेसर मृदाविज्ञान एवं कृषि-रसायनविभाग, श्री कर्णनरेन्द्र कृषि महाविद्यालय, जोबनेर [राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर] तथा श्री मोतीलालजी शर्मा, अधीक्षक, शारीरिक शिक्षा-विभाग, राजस्थान कृषि महाविद्यालय उदयपुर [राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर]- इन सभी ने गीता-चयनिका की प्रस्तावना को सुनने के लिए समय दिया । अतः मैं आभारी हूँ। . मेरी धर्म-पत्नी श्रीमती कमला देवी सोगाणी ने इस पुस्तक के श्लोकों का मूल ग्रन्थ से सहर्ष मिलान किया तथा प्रूफ-संसोधन में सहयोग दिया। इसके लिए प्राभार प्रकट करता हूँ। . इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए प्राकृत-भारती
अकादमी, जयपुर के सचिव श्री देवेन्द्रराज मेहता तथा संयुक्त सचिव एवं. निदेशक महोपाध्याय श्री विनयसागरजी ने जो व्यवस्था की है, उसके लिए उनका हृदय से आभार प्रकट करता हूँ।
अग्रवाल प्रिन्टर्स, उदयपुर को सुन्दर छपाई के लिए धन्यवाद देता हूँ।
कमलचन्द सोगारणी
प्रोफेसर, दर्शन-शास्त्र
दर्शन-विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय
उदयपुर [राज.]
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गीता-चयनिका
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गीता-चयनिका
1. देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्ति धीरस्तत्र न मुह्यति॥
2. न जायते म्रियते वा कदाचित
___ नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। __ अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
3. वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृहाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
4. नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:॥
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गीता
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1.
2.
3.
गीता -- चयनिका
जैसे जीव के वर्तमान शरीर में बचपन, जवानी और बुढ़ापा (देखा जाता है), वैसे ही (मृत्यु के पश्चात् इस जीव के लिए) दूसरे शरीर का मिलना (समझा जाना चाहिए ) । ज्ञानी (व्यक्ति) उसमें व्याकुल नहीं होता है ।
यह ( आत्मा ) कभी उत्पन्न नहीं होता है और ( कभी ) नष्ट नहीं होता है । तथा ( यह आत्मा ) ( शून्य से ) उत्पन्न होकर नये रूप से होने वाला नहीं है । ( वस्तुतः ) यह ( श्रात्मा ) अनादि ( है ), अनश्वर ( है ), (और) चिरस्थायी (है) । ( इसकी बात ) ( प्रत्यन्त) पुरानी ( है ) । नाश किए जाते हुए शरीर के होने पर ( भी ) (यह ) नष्ट नहीं किया जाता है।
जैसे (कोई ) मनुष्य फटे-पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये ( कपड़ों) को धारण करता है, वैसे ही जीव जर्जर 'शरीरों को छोड़कर दूसरे नये (शरीरों) में प्रवेश करता है ।
इस (आत्मा) को शस्त्र नहीं काटते हैं; इसको प्राग नहीं जलाती है; इसको जल- बूदें गीला नहीं करती हैं; तथा इसको हवा नहीं सुखाती है ।
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5 एषा तेऽभिहिता सांल्ये निर्योगे विमांशनु। .
बुद्धचा युक्तो यया पार्थ कर्मबन्ध प्रहास्यसि ॥....
6 नेहाभिकमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। ___ स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥
7 व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन । ' बहुशाखा हनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥
8 भोगेश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधीन विधीयते ॥
9 कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्वकर्मणि ॥
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गीता
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5. हे अर्जुन ! यह विवेचना तेरे लिए सांख्य (शुद्ध-ज्ञान द्वारा
आत्मतत्त्व-विवेक जागृत करने) के संबंध में की गई (है); अब इस (विवेचना) को (तू) योग (अनासक्तिपूर्वक कर्म करने) के विषय में सुन, जिस समझ से भरा हुआ (तू) कर्म-बन्धन को भली प्रकार से नष्ट कर देगा।
यहाँ (अनासक्तिपूर्वक कर्म करने के लिए) (किया गया) प्रयत्न व्यर्थ नहीं होता है (तथा) (इससे) कोई दोष (भी) उत्पन्न नहीं होता है। इस धर्म (अनासक्त वत्ति) का बहत थोड़ा सा (अभ्यास) भी अत्यधिक (मानसिक) संकट से
(हमको) बचा देता है। 7. हे अर्जुन ! इस दशा में (अनासक्तिपूर्वक कर्म करने में)
प्रज्ञा (बुद्धि) स्थिर (और) ऊर्जावान् (होती है) । तथा निस्सन्देह प्रमादी गामक्तिपूर्वक कर्म करने वाले) (व्यक्तियों) की बुद्धिया अन्तरहित बहुत भेदवाली
(होती हैं)। 8. विषयों तथा वैभव में आसक्त और उस आसक्ति के कारण
वशीभूत व्यक्तियों की बुद्धि (अस्थिर होती है)। (इसलिए) (उनके द्वारा) साधना-मार्ग में स्थिरतामयी (बुद्धि) धारण नहीं की जाती हैं।
9. तेरा कर्म में ही अधिकार (है); (कर्मों के) फलों में (तेरा
अधिकार) कभी नहीं है; (इसलिए) (तू) कर्मों के (स्वार्थपूर्ण) . फल द्वारा प्रेरित होने वाला मत (हो); तेरा कर्म न करने ____में (भी) अनुराग न होवे ।
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10. योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्ग त्यक्त्वा धनंजयः ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
11 बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥
12 कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥
13 स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥
14 प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
प्रात्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
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10. हे अर्जुन ! आसक्ति को छोड़कर (तथा) सफलता और
असफलता में तटस्थ (समान) होकर (और) (इस तरह से) योग (समता) में विद्यमान (रहकर) कर्मों को कर । (सचमुच) समता (तनाव-मुक्तता) (ही) योग कहा जाता है ।
11.
(तनाव-मुक्त) बुद्धिसहित (व्यक्ति) (तनाव उत्पन्न करने वाले) दोनों सुकर्म और दुष्कर्म को इस लोक में (ही) छोड़ देता है । इसलिए (तू) योग (समता/तनाव-मुक्तता) के लिए (अपने को) तैयार कर । (समझ) कर्मों को करने में कुशलता ही योग (समतापूर्वक कर्मों को करना) (है)।
12. हा
निश्चय ही (तनाव-मुक्त) बुद्धिसहित प्रज्ञावान् मनुष्य (जो) जन्म-(मरण) के बन्धन से मुक्त (है) कर्मों से उत्पन्न फल . (फल में आसक्ति) को छोड़कर स्वस्थ (समतामयी) स्थिति को प्राप्त करते हैं।
13.
हे कृष्ण ! समाधि (समतामयी अवस्था) में ठहरनेवाले तथा तनाव-मुक्त समतामय/स्थिर बुद्धिवाले मनुष्य (स्थितप्रज्ञ) की क्या परिभाषा है ? (जिसकी) बुद्धि स्थिर (हो जायेगी) (वह) कैसे बोलेगा ? कैसे बैठेगा ? (तथा) कैसे चलेगा?
14. हे अर्जुन! जब (व्यक्ति) मन में स्थित समस्त इच्छामों को
त्याग देता है (तथा) आत्मा से ही आत्मा में तृप्त होता है, - तब (वह) तनाव-मुक्त | स्थिर | समतामयी । बुद्धिवाला
(स्थितप्रज्ञ) कहा जाता है। चयनिका
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15 दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः
वीतरागभयकोषः
सुखेषु विगतस्पृहः । स्थितषीर्मुनिरुच्यते ॥
16 यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
17 यवा संहरते चायं कर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियारणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य, प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
18 विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवजं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
19 तानि सर्वाणि संयम्य युक्त पासीत मत्परः । . वशे हि यस्येन्द्रियारिण तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
20 ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गास्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संबायते कामः कामातकोषोऽभिजायते ॥ .
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15. (जिसका) मन दुःखों में शोकरहित (है), (तथा) (जिसकी)
सुखों में लालसा नष्ट हो गई (है), (जिसका) राग, भय और क्रोध बिदा हो गया (है), (वह) मुनि स्थिर'समतामयी।
तनाव-मुक्त बुद्धिवाला कहा जाता है। 16. जो (व्यक्ति) सदैव आसक्तिरहित (होता है) (तथा) भिन्न
भिन्न इष्ट-अनिष्ट-(वस्तु)-समूह को पा करके न (उसको) चाहता है और न (उससे) घृणा करता है, उसकी बुद्धि स्थिर/
समतामयी/तनाव-मुक्त (होती है)। 17. (और) यह (व्यक्ति) जब इन्द्रियों को पूरी तरह से इन्द्रियों
के विषयों से (रोकता है), जैसे कछुवा (सब ओर से):(अपने) अंगों को पीछे खींच लेता है, (तब) उसकी बुद्धि स्थिर।
समतामयी।तनाव-मुक्त (होती है)। . 18. (ऐसा होता है) कि विषयोंरूपी पाहार का त्याग करने वाले
मनुष्य के (केवल) इन्द्रिय-विषय रुक जाते हैं, (किन्तु) स्वाद/रस नहीं; (परन्तु) परमात्मा का अनुभव करके इस
समतामय (व्यक्ति) का स्वाद/रस भी समाप्त हो जाता है । 19. उन सभी (इद्रिन्यों) को रोक करके कुशल (व्यक्ति) मेरे
(परमात्मा) में लीन होवे; क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ नियन्त्रण में (होती हैं), उसकी बुद्धि स्थिर/समतामयी/तनाव-मुक्त
(होती है)। 20. विषयों का चिन्तन करते हुए पुरुष के (मन में) उन (विषयों)
के प्रति आसक्ति पैदा हो जाती है; आसक्ति से (विषयों की) कामना पैदा होती है; (विषयों की) कामना से क्रोध पैदा
होता है। . . चयनिका
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* 21 क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशावुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
22 या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ .
23 विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
24 लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन सांल्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
25 म हि कश्चिमणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजर्गुणः ॥
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21. क्रोध से व्याकुलता उत्पन्न होती है; व्याकुलता से (हेय
उपादेय के) चिन्तन में अव्यवस्था (होती है); चिन्तन के क्षीण होने से (नैतिक-पाध्यात्मिक मूल्यों की) समझ का नाश (होता है) तथा समझ के नाश होने से (जीवन का सार ही) नष्ट हो जाता है।
(सामान्यतया) सब मनुष्यों के (जीवन में) जो रात्रि (विस्मृत आध्यात्मिक स्थिति)(है), उस (आध्यात्मिक स्थिति) के प्रति संयमी (व्यक्ति) (सदैव) जागता (सक्रिय) रहता है। जिस (इन्द्रिय-सुख) में मनुष्य जागते (सक्रिय) रहते हैं, (परमात्मा को) देखते हुए ज्ञानी के (जीवन में) वह (इन्द्रिय-सुख) रात्रि (निरर्थक) होता होती है ।
33. जो पुरुष समस्त कामनाओं को छोड़कर आसक्तिरहित,
अहंकाररहित तथा सन्तुष्ट (होकर) व्यवहार करता है, वह शान्ति को प्राप्त करता है।
हे निष्कलंक (अर्जुन) ! इस लोक में दो प्रकार की (उच्चतम) अवस्था मेरे द्वारा पहले कही गई है; (दिव्य) ज्ञानियों की (उच्चतम अवस्था) ज्ञानयोग से (कही गई है) और (अनासक्त) योगियों की (उच्चतम अवस्था) कर्मयोग से (कही गई है)।
25. निस्सन्देह कोई (भी) व्यक्ति एक क्षण के लिए भी किसी
समय कर्म को न करनेवाला नहीं रहता है, क्योंकि प्रकृति · से उत्पन्न गुणों (सत्व, रज और तम) के द्वारा कर्म कराये जाते हैं । (इसलिए) सभी (व्यक्ति) पराश्रित हैं।
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26 यस्त्विन्द्रियाणि कर्मेन्द्रियैः
27 यस्त्वात्मरतिरेव
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मानवः
स्यादात्मतृप्तश्च श्रात्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥
मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।।
28 नव तस्य कृतेनार्थी नाकृतेनेह कश्चन 1 सर्वभूतेषु सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥
चास्य
तस्मादसक्तः
सततं कार्य कर्म समाचर 1 प्रसक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥
31 यद्यदाचरति
30 कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः लोकसंग्रह मेवापि
संपश्यन्कर्तुमर्हसि
स
12 ]
A
यत्प्रमारणं
श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः I लोकस्तदनुवर्तते ॥
कुरुते
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गीता
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26. और हे अर्जुन ! जो (व्यक्ति) मन से इन्द्रियों को रोक करके
अनासक्त (रहते हुए) कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म-मार्ग में प्रवृत्ति करता है, वह (कर्मेन्द्रियों को रोकने वाले की अपेक्षा) ऊँचे
दर्जे का होता है है। 27. परन्तु जो मनुष्य आत्मा में (ही) तृप्त हो तथा (जिसकी) . आत्मा में ही प्रीति हो और जो आत्मा में हो संतुष्ट (हो)
(इस लोक में) उसका (कोई) कर्तव्य विद्यमान नहीं
(होता है)। 28 उस (आत्मा में सन्तुष्ट व्यक्ति) का इस लोक में (उसके द्वारा)
(कार्य) किए जाने से (तथा) (कार्य) न किए जाने से भी कोई प्रयोजन नहीं है । निस्सन्देह इसका किसी भी प्राणी . में कोई स्वार्थपूर्ण प्रयोजन नहीं (है)।
29. इसलिए (तू) अनासक्त (होकर) करने योग्य कार्य को
लगातार पूरी तरह से कर, क्योंकि कर्म को करता हुआ . अनासक्त मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर लेता है । _30. जनकादि ने (प्रासक्तिरहित) कर्म के द्वारा ही (जगत् का)
खूब कल्याण किया। इसलिए केवल लोक-कल्याण को
देखता हुआ भी, (यदि) (तू) कर्म करने के लिए प्रसन्न होता ___ है, (तो) (श्रेष्ठ) (है)। 31. श्रेष्ठ (व्यक्ति) जो जो आचरण करता है, सामान्य
व्यक्ति भी उस-उसका ही (आचरण करता है)। वह (श्रेष्ठ) (व्यक्ति) (आचरण के) जिस आदर्श को प्रस्तुत करता है, लोग उसका ही अनुसरण करते हैं ।
चयनिका
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32 न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥
33 यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । ___मम वानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।
34 • सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्
35 न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् । ___ जोषयेत्सर्वकर्मारिण विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥
36 प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
37 तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । __गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥
38 प्रकृतेर्गुणसंमूढाः. सज्जन्ते गुणकर्मसु । - तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ।
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... गीता
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34.
32. हे अर्जुन ! यद्यपि मेरे (परमात्मानुभवो के लिए तीनों
लोकों में कुछ भी कर्तव्य नहीं है (तथा) (जो) (वस्तु) प्राप्त की जानी चाहिए (वह) अप्राप्त नहीं (है), (तथापि) (मैं)
कर्म में ही डटा रहता हूँ। 33. यदि मैं जागरूक (होकर) किसी (भी) समय कर्म . में ही न
डटा रहूँ,(तो) हे अर्जुन ! सर्वत्र मनुष्य मेरे (ही) आचरणक्रम का अनुसरण करेंगे। हे अर्जुन ! जैसे कर्म में आसक्त अज्ञानी (व्यक्ति) (कर्म) करते हैं, वैसे ही अनासक्त ज्ञानी लोक-कल्याण को करने की
इच्छावाला (होकर) (कर्म) करे। 35. ज्ञानी (व्यक्ति) कर्मों में आसक्त अज्ञानियों की बुद्धि में
विकार उत्पन्न न करे । परमात्मा में लीन योगी (अनासक्त) (व्यक्ति) सब कर्मों का (स्वयं) भली-भांति आचरण करता
हुआ (दूसरों को भी) (उनका) अभ्यास करावे । 36. (सच तो यह है कि) सर्वत्र प्रकृति के गुणों द्वारा कर्म किए
जाते हुए (होते हैं) । (तो भी) अहंकार से मोहित व्यक्ति इस
प्रकार मान लेता है (कि) मैं (ही) (उनका) करनेवाला हूँ। 37. किन्तु हे अर्जुन ! गुण और कर्म के (प्रात्मा से) भेद को
यथार्थ से जाननेवाला इस प्रकार मानकर कि गुण गुणों में
ही घटित होते रहते हैं, उनमें आसक्त नहीं होता है। 38. प्रकृति के गुणों से मोहित (व्यक्ति) गुण और कर्मों में आसक्त '. होते हैं। उन अपूर्ण जानकार मूखों को पूर्ण जानकार
(व्यक्ति) (कर्म न करके) न भटकाए । चयनिका
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39 इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । .
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धः परतस्तु सः ॥.
40 किं कर्म किमकर्मेति. कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।
41 कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥
42 कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥
43 यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवजिताः ।
झानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥
44 त्यक्त्वा कर्मफलासङ्ग नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नव किंचित्करोति सः ॥
45 निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥
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गीता.
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39. (ज्ञानी) कहते हैं कि इन्द्रियाँ (शरीर से) उच्चतर (हैं); मन
इन्द्रियों से उच्चतर (है); और (वे कहते हैं कि) बुद्धि मन
से उच्चतर (है); तथा बुद्धि से परे वह (आत्मा) (है)। 40. कर्म क्या है ? (और) अकर्म क्या है ? बुद्धिमान् व्यक्ति भी
इस संबंध में चकराया हुआ (रहता है)। (मैं) तेरे लिए उस
कर्म को कहूँगा जिसको जानकर (तू) अशुभ से छूट जायेगा। 41. कर्म का (लक्षण) समझा जाना चाहिए और विकर्म का
(लक्षण) भी समझा जाना चाहिए तथा अकर्म का (लक्षण) (भी) समझा जाना चाहिए क्योंकि कर्म का मार्ग रहस्यपूर्ण
(है)। 42. जो कर्म में अकर्म को देखे और जो अकर्म में कर्म को (देखे),
वह मनुष्यों में बुद्धिमान् (है), योगी (है) (तथा) वह ही सम्पूर्ण कर्मों का कर्ता (है)।
___43. जिसके सभी कर्म प्रासक्ति से (उत्पन्न) फल की प्राशा से
रहित हैं, (जिसने) कर्मों (की. आसक्ति) को ज्ञानरूपी अग्नि
द्वारा जला दिया है, उसको विद्वान् योगी कहते हैं। . ___44. कर्म-फल में आसक्ति को छोड़कर (जो) सदैव (आत्मा में)
तृप्त है और (तृप्ति के लिए) किसी पर निर्भर नहीं (है),
वह कर्म में लगा हुआ भी कुछ भी नहीं करता है। . .. 45. (फल की) कामनारहित पुरुष (जिसके द्वारा) मन और शरीर
वश में किए गए (हैं), (तथा) (जिसके द्वारा) सब वस्तुएँ ‘छोड़ दी गई (हैं) केवल दैहिक कर्म को करता हुआ (भी)
पाप को प्राप्त नहीं करता है। चयनिका
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46 यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥
47 यथैषां
समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥
48
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
49 श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥
50 प्रज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा
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46. (जो) संयोगवश लाभ से संतुष्ट (है) (जो) दो विरोधी (हर्ष
शोक आदि) अवस्थाओं से परे जानेवाला (है), (जो) ईर्ष्या से मुक्त (है), तथा (जो) सफलता और असफलता में तटस्थ (समान) (है), (वह) (व्यक्ति) (कर्मों को) करके भी नहीं बाँधा जाता है।
47. हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि लकड़ियों को राखरूप कर
देती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सब कर्मों (आसक्तियों) को नष्ट कर देती है।
48. निस्सन्देह इस लोक में (दिव्य) ज्ञान के समान (कुछ भी)
पवित्र नहीं है; (जिसके द्वारा) योग-साधना पूर्णतः ग्रहण की गई (है), (वह) (व्यक्ति) अात्मा में उस (ज्ञान) को अपने आप समय पर अनुभव कर लेता है ।
49. श्रद्धालु, उसमें (परमात्मा में) संलग्न (तथा) इन्द्रिय-निग्रही
(व्यक्ति) ही (दिव्य) ज्ञान को प्राप्त करता है । (दिव्य) ज्ञान को प्राप्त करके (वह) अनुपम शान्ति को तुरन्त ही अनुभव कर लेता है।
50. अज्ञानी और अश्रद्धालु तथा संशय करनेवाला (व्यक्ति)
नष्ट हो जाता है। (उनमें से) संशय करनेवाले (व्यक्ति) के (जीवन में) सुख नहीं (रहता है), न यह लोक (उपयोगी) रहता है (और) न (ही) पर (लोक) (फलदायक) (होता है)।
चयनिका
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51 योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनन्जय ॥
52 संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ । .
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥
53 सांख्ययोगी पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोविन्दते फलम् ॥
54 यत्सांख्यः प्राप्यते स्थानं तद्योगरपि गम्यते ।
एकं सांल्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥
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51. हे अर्जुन ! उस आत्मानुभवी व्यक्ति को (जिसने) योग
साधन से (समस्त) कर्मासक्ति को त्याग दिया है तथा (जिसने) समस्त संशय को ज्ञान द्वारा छिन्न-भिन्न कर दिया (है), (उसको) (लोक-कल्याण के लिए किए गए) कर्म नहीं बाँधते हैं।
52. (आत्मानुभव के पश्चात्) कर्मों का त्याग और अनासक्ति
पूर्वक कर्म-करना, दोनों (ही) मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं, तो भी उनमें कर्मों के त्याग से अनासक्तिपूर्वक कर्म-करना अच्छा समझा जाता है।
53. अज्ञानी (व्यक्ति) सांख्य (दिव्यज्ञान/कर्मों का त्याग) और
योग(अनासक्तिपूर्वक कर्म-करने) को भिन्न कहते हैं, (किन्तु) बुद्धिमान (व्यक्ति) (उनको) (अन्तरंगरूप से) (भिन्न) नहीं (कहते हैं)। (वास्तव में) एक को भी पूर्णतः धारण किया हुआ (मनुष्य) दोनों के (दिव्य) प्रयोजन को प्राप्त कर लेता है।
54. जो (उच्चतम) अवस्था सांख्य (दिव्य ज्ञान कर्मों के त्याग) के
द्वारा प्राप्त की जाती है, वह (ही) योग (अनासक्तिपूर्वक कर्म-करने) के द्वारा भी पहुँची जाती है। (अतः) जो (व्यक्ति) सांख्य (दिव्यज्ञान/कर्मों के त्याग) और योग . (अनासक्तिपूर्वक कर्म-करने) को एक देखता है, वह (दिव्य दृष्टि से) देखता है।
चयनिका
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55 ब्रह्मण्याषाय कर्माणि सङ्ग त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पनपत्रमिवाम्भसा ॥
56 युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥
57 सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी । । । ___ नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥
58 ज्ञानेन तु तवज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशया। तत्परम् ॥
59 तबुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः
गच्छन्त्यपुनरावृत्ति ज्ञाननिषूतकल्मषाः
॥
22 ] .
गीता
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55. कर्मों को परमात्मा में समर्पित करके और (उनमें) आसक्ति
को छोड़कर जो (व्यक्ति) (कर्मों को) करता है, वह (प्रासक्ति से उत्पन्न होने वाले) दोष से मलिन नहीं किया जाता है, जैसे कमल का पत्ता जल के द्वारा (मलिन नहीं किया जाता है)।
योगी (प्रात्मानुभवी) कर्म-फलासक्ति को छोड़कर पूर्ण शांति को प्राप्त करता है, किन्तु साधारण जन (आसक्तिपूर्वक कर्म करने वाला) अपनी कामनाओं में लिप्त रहने के कारण फल में आसक्त (होता है)। (इसके फलस्वरूप) (वह)
(मानसिक तनावों से) दुःखी किया जाता है। 57. जितेन्द्रिय (व्यक्ति) सब कर्मों (कर्मों में फलासक्ति) को
मन से छोड़कर प्रसन्नतापूर्वक रहता है। (और) (इस तरह से) (वह) व्यक्ति नौ द्वार वाले शरीर में (आसक्तिपूर्वक) न ही (कुछ) करता हुआ और न (ही) (कुछ) करवाता हुआ (रहता है)।
58. आत्मा के ज्ञान से जिनका वह अज्ञान नष्ट कर दिया गया
(है), तो सूर्य के समान उनका ज्ञान उस उच्चतम (सत्ता) . को प्रकाशित कर देता है।
59. (जिनकी) उस (परमात्मा) में (ही) बुद्धि (है), (जिनका)
उसमें ही मन (है), (जिनकी) उसमें (ही) श्रद्धा (है) (तथा) (जो) उसमें (ही) पूर्णतया लीन (हैं) (और) (जिनके) दोष ज्ञान द्वारा नष्ट कर दिए गए (हैं), (वे) फिर से संसार में न आने वाली अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं।
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60 इहैव तैजितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्मादब्रह्मरिण ते स्थिताः ॥
61 न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविब्रह्मरिण स्थितः ॥
62 बाह्यस्पर्शष्वसत्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥
63 योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥
64 लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमषयः क्षीरणकल्मषाः ।
छिन्नद्वधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥
[
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60. जिनका मन समता में स्थिर (है), उनके द्वारा इस लोक में
ही आसक्ति जीत ली गई (है) । (और) ब्रह्म (भी) शुद्ध और समतावाला (है), इसलिए वे ब्रह्म में (ही) स्थिर (हैं)।
61. (जो) निरासक्त और तनावमुक्त बुद्धिवाला (है), (वह)
ब्रह्मज्ञानी ब्रह्म में स्थिर (रहेगा)। (अतः) (वह) प्रिय (वस्तु) को प्राप्त करके हर्षित नहीं होगा (और) अप्रिय (वस्तु) को प्राप्त करके दुःखी नहीं (होगा)।
62. बाह्य विषयों में जो अनासक्त (है), वह व्यक्ति जिस सुख __ को आत्मा में प्राप्त करता है, (उस) विनाशरहित सुख को ब्रह्मयोग से युक्त व्यक्ति (भी) प्राप्त करता है।
63. जो (व्यक्ति) आन्तरिक रूप से शान्त (है), (जिसमें)
आन्तरिक रूप से प्रसन्नता (है) (ौर) जो आन्तरिक रूप से प्रकाश ही (है), वह योगी (है) (जो) परमात्मा में ठहरा हुआ परमात्मा में लीन अवस्था को प्राप्त करता है।
64. (जिनके द्वारा) (सब) दोष नष्ट कर दिए गए (हैं),
(जिनके द्वारा) (सब) संदेह समाप्त कर दिए गए (हैं), (जिनके द्वारा) मन वश में कर लिया गया (है) तथा (जो) सब प्राणियों के कल्याण में संलग्न (रहते हैं), (वे) ऋषि परमात्मा में लीन अवस्था को प्राप्त करते हैं।
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65 यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ॥
66 यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥
67 उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
प्रात्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
68 बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥
69 जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः । - शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानावमानयोः ॥
70 ज्ञानविज्ञानतृप्तामा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥
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65. हे अर्जुन ! जिसको (लोग) संन्यास (कर्मों से रहित आत्मा
नुभव की अवस्था) कहते हैं, उसको (ही) (तू) योग (कर्मफलासक्ति से रहित आत्मानुभव की अवस्था) जान, क्योंकि (जिसके द्वारा) कर्मफल की आशा नहीं त्यागी गई (है),
(ऐसा) कोई भी (व्यक्ति) योगी नहीं होता है। 66. जब भी (कोई) न (तो) इन्द्रियों के विषयों में और न (ही)
कर्मों में आसक्त होता है, तब सब (कर्म) फल की आशा का
त्याग करनेवाला (वह) (व्यक्ति) योगारूढ़ कहा जाता है। 67. स्वयं के द्वारा स्वयं का उद्धार करना चाहिए । (स्वयं के
द्वारा) स्वयं को बर्बाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि स्वयं ही
स्वयं का बन्धु (है) (और) स्वयं ही स्वयं का दुश्मन (है)। 68. जिस व्यक्ति के द्वारा मन ही जीत लिया गया (है), उस
व्यक्ति का मन ही (उसका) बन्धु (होगा), किन्तु (असंयमित) मन ही शत्रु के समान असंयमित व्यक्ति की शत्रुता में चलेगा। (चू कि) जितेन्द्रिय और शांत (व्यक्ति) के (अनुभव में) परमात्मा स्थापित (होता है), (इसलिए) (वह) शीत-उष्ण (तथा) सुख-दुःख में एवं मान (और) अपमान में
(समतायुक्त होता है)। 70. (जो) व्यक्ति आध्यात्मिक अनुभव और लौकिक ज्ञान से
तृप्त (है), (जो) सर्वोच्च अनुभव पर स्थित (है) (जो) जितेन्द्रिय (है) (और) (जिसके लिए) ढेला, (कीमती) पत्थर
और सोने से बनी हुई वस्तु समान (है), (वह) योगी (परमात्मा में) लीन कहा जाता है।
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71 सुहृन्मित्रायुदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिविशिष्यते ॥
72 योगी युजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । .
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥
73 समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥ 74 प्रशान्तात्मा विगतभोर्ब्रह्मचारिखते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त प्रासीत मत्परः ॥
75 नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चातिस्वप्नशोलस्य जाग्रतो नेव चार्जुन ॥
76 युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोषस्य योगो भवति दुःखहा ॥
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71. (जिस व्यक्ति के मन में) स्नेही, मित्र तथा दुश्मन में, निष्क्रिय
तथा सक्रिय में, घृणित तथा संबंधी में, सज्जन तथा दुष्ट में
भी समतायुक्त भाव (है), (वह) श्रेष्ठ होता है। 72. (जो) योगी अकेला (स्वतन्त्र) (है), जो चाह और परिग्रह से
रहित (है), (जिसके द्वारा) मन और शरीर जीत लिए गए (हैं), (वह) एकान्तवास में स्थित (होकर) निरन्तर
प्रात्मा को (परमात्मा में) लगाए। 73. (जो) व्यक्ति योगी (होना चाहता है) (वह) निर्भय ब्रह्म
चारी की जीवन-चर्या में स्थित (रहे), तथा स्वस्थचित्त 74. (रहे), (वह) मन को नियन्त्रित करके शरीर, सिर और
गर्दन को एक ही साथ व्यवस्थित रूप से रखता हुअा दृढ़ (रहे) ओर दिशाओं (इधर-उधर) को न देखता हुआ अपनी नाक के अग्रभाग को देखकर मेरे में लीन तथा मेरे में मन
लगाया हुमा रहे। 75. हे अर्जुन ! योग (साधना) न तो बहुत खानेवाले (व्यक्ति)
के घटित होता/होती है और न ही बिल्कुल न खानेवाले (व्यक्ति) के (घटित होता/होती है), न ही बहुत निद्रालु (व्यक्ति) के तथा न ही (बहुत)जागनेवाले (व्यक्ति) के
(घटित होता/होती है)। ___76. (जिसका) आहार और विहार (भ्रमण) उपयुक्त (है),
(जिसका) (सद्कार्यों में) प्रयत्न उपयुक्त (है), (जिसकी) निद्रा और (जिसका) जागरण उपयुक्त है, (उस) (व्यक्ति के) (जीवन में) (योग घटित होता है), (जो) दुःखों का नाशक (होता है)।
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77 यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेम्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥..
78 यथा दीपो निवातस्यो नेङ्गते सोपमा स्मृता । - योगिनो यतचित्तस्य युजतो योगमात्मनः ॥
79 यत्रोपरमते चित्तं निरुद्ध योगसेवया । ____ यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥
80 सुखमात्यन्तिकं यत्तबुद्धिग्राहमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितरचलति तत्त्वतः ॥
81 यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाषिकं ततः ।
यस्मिस्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
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77. जब नियन्त्रित चित्त आत्मा में ही टिकता है (तथा) ___ (व्यक्ति) सभी इच्छाओं से रहित (होता है), तब परमात्मा
में लीन कहा जाता है।
78. जैसे वायु से सुरक्षित स्थान में विद्यमान दीपक हिलता
डुलता नहीं है, वही समानता आत्मा के ध्यान को लगाते हुए योगी के नियन्त्रित चित्त की कही गई है।
79. जहाँ (आत्मा के ध्यान में) योग के अभ्यास से नियन्त्रित
चित्त शान्त हो जाता है और जहाँ व्यक्ति आत्मा के द्वारा
आत्मा को देखता हुआ आत्मा में ही तृप्त हो जाता है, (उस) (योग नाम वाली अवस्था को जानना चाहिए)।
80. जो सुख अतीन्द्रिय (होता है), वह स्थायी (होता है) और
प्रज्ञा द्वारा समझने योग्य (होता है), (ध्यान में) स्थित यह (योगी) (जब अतीन्द्रिय सुख को) अनुभव कर लेता है, (तो) (वह) वास्तविकता (सत्य) से बिल्कुल ही विचलित नहीं होता है।
81. जिस (अवस्था) को प्राप्त करके (जब) (व्यक्ति) दूसरे . (किसी भी) लाभ को उस (अवस्था)से अधिक (ग्रहणीय)
नहीं मानता है और जिस (अवस्था) में स्थित व्यक्ति अत्य-. धिक दुःख के द्वारा भी (जब) विचलित नहीं किया जाता है, (तो) (व्यक्ति की वह अवस्था योग (प्रात्मानुभव) की अवस्था कही जाती है)।
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82 तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिविण्णचेतसा ॥
83 संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्राम विनियम्य समन्ततः ॥ 84 शनैः शनैरुपरमेबुद्धचा धृतिगृहीतया ।
प्रात्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥
85 यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥
86 युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ॥
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥
87 सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईमते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥
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गीता
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82. उस दुःख-संयोग के प्रभाव को (तथा) (उस) योग नामवाली
(अवस्था) को जानना चाहिए। वह योग खिन्नतारहित मन से निश्चितरूप से किया जाना चाहिए ।
83. कर्म-फल की आशा से उत्पन्न होने वाली सभी इच्छाओं 84. को पूर्णतया त्यागकर (तथा) मन के द्वारा ही इन्द्रिय-समूह
को पूर्णतया नियन्त्रित करके, धैर्य को प्राप्त बुद्धि के द्वारा आत्मा में मन को स्थिर करके (व्यक्ति) धीरे-धीरे शान्त हो जाए (और) कुछ भी न विचारे ।
85. जिस-जिस कारण से अस्थिर और चंचल मन बाहर की ओर
जाता है, उस-उस जगह से (मन को) नियन्त्रित करके इस आत्मा में ही (उसे लगावे) (और) (उसे) जीत ले ।
86. इस प्रकार पवित्र योगी निरन्तर आत्मा को (परमात्मा में)
लगाता हुआ सरलतापूर्वक परमात्मा के प्रत्यक्ष ज्ञान को प्राप्त करता है (और) (उसके) (फलस्वरूप) अनन्त सुख का (अनुभव करता है)।
87 (जो) प्रात्मा को सब प्राणियों में स्थित देखता है तथा सब
प्राणियों को प्रात्मा में (स्थित) (देखता है) (वह) प्रात्मानुभव से युक्त (व्यक्ति) हर समय (इसी प्रकार) समान रूप से देखने वाला (होता है)।
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88 सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी . .मयि वर्तते ॥
89 प्रात्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । __ सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
90 असंशयं महाबाहो मनो दुनिग्रहं चलम् । __ अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
91 • असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥
92 मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥
93 त्रिभिर्गुणमयविरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥
34. ]
गीता
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88. जो (परमात्मा में) विश्वास करनेवाला (व्यक्ति) सब
प्राणियों में स्थित मुझ एक (परमात्मा) को भजता है, वह योगी सब तरह से कर्तव्य निभाते हुए भी मेरे (परमात्मा)
में टिका रहता है । 89. हे अर्जुन ! जो स्व (अपनी आत्मा) के सादृश्य से प्रत्येक
स्थान पर (सब प्राणियों में) समानता को देखता है और (उनके) सुख को या दुःख को (भी) (अपनी आत्मा के
सादृश्य से) (देखता है), वह योगी श्रेष्ठ माना गया (है) । 90. हे महाबाहु ! निश्चय ही (यह) मन चंचल (है) (तथा)
कठिनाई से संयमित किया जानेवाला (है), किन्तु हे कौन्तेय ! अभ्यास और वैराग्य से (इसे) नियन्त्रित किया
जाता है। 91. असंयमी व्यक्ति के द्वारा योग अप्राप्य (होता है)। इस
प्रकार मेरा विश्वास है। किन्तु प्रयत्न करते हुए संयमी व्यक्ति के द्वारा ही (योग प्राप्य है), चूंकि (उचित)
प्रयत्न से ही (उसको) प्राप्त करना संभव (होता है)। 92. मनुष्यों की बहुत बड़ी संख्या में से कुछ (मनुष्य) (ही)
शुद्धता के लिए प्रयत्न करते हैं; (शुद्धता के लिए) प्रयत्न करते हुए सफल (व्यक्तियों) में कुछ (मनुष्य) (ही) मुझ
(परमात्मा) को वस्तुतः जानते हैं । 93. इन तीन गुणों (सत्त्व, रज और तम) से युक्त भावों के
द्वारा (ही) यह सम्पूर्ण जगत् मोहित (है)। इन (गुणों) से परे मुझ शाश्वत (त्रिगुणातीत) को. (यह जगत्) नहीं जानता है।
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94 देवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ! मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
95 न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः । माययापहृतज्ञाना प्रासुरं भावमाश्रिताः ॥
96 चतुविधा भजन्ते मा जनाः सुकृतिनोऽर्जुन । श्रार्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥
97 तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिविशिष्यते । प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥
98 बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ||
99 येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ॥ ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥
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गोता
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94. निश्चय ही त्रिगुणयुक्त यह शक्ति कठिनाई से जीती जाने
वाली मेरी माया (है)। जो व्यक्ति मुझ को ही पहुंचते हैं, वे इस माया को जीत लेते हैं ।
95. दुराचारी, अज्ञानी, बहुत बुरे मनुष्य, दानवी भाव को
अनुसरण किए हुए (व्यक्ति तथा (वे व्यक्ति) (जिनकी)समझ माया द्वारा हर ली गई है, ( मुभको नहीं पहुंचते हैं।
96. हे भरत-क्षेत्र में श्रेष्ठ, हे अर्जुन ! सद्कर्म करनेवाले
दुःखी, ज्ञान का इच्छुक, धन का इच्छुक और (आत्म) ज्ञानी-ये चार प्रकार के मनुष्य मेरी अराधना करते हैं।
97. उनमें (प्रात्म)-ज्ञानी (जो) (मेरे में) सदा लीन (होता है)
(तथा) (मेरे में) (जिसकी) भक्ति अद्वितीय (है), (वह) दूसरों से ऊँचे दर्जे का होता है। निश्चय ही मैं (परमात्मा) आत्मज्ञानी का अत्यन्त प्रिय (रहता हूँ) और वह
(आत्मज्ञानी) (भी) मेरा (परमात्मा का) प्रिय (होता है)। 98. बहुत जन्मों की समाप्ति पर ज्ञानी मुझको पहुँचते हैं।
समस्त (जगत्) कृष्णरूप (परमात्म-स्वरूप) है । इस प्रकार (अनुभव करनेवाला) वह श्रेष्ठ (व्यक्ति) अत्यन्त विरल (होता है)। परन्तु जिन शुभ कर्मों को करनेवाले मनुष्यों के दोष नाश को प्राप्त हुए.(हैं) (तथा) (जिनके) शुभ-संकल्प दृढ़ (हैं), वे (सुख-दुःखादि की) विरोधी अवस्थाओं से (उत्पन्न) व्याकुलता से रहित (व्यक्ति) मेरी आराधना करते हैं।
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100 जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य । यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्म कर्म चाखिलम् ॥
101 अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥
102 यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥
103 अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥
104 प्रयारणकाले मनसाचलेन
भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव । भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥
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00. बुढ़ापे और मृत्यु से छुटकारे के लिए जो मेरा अनुगमन
करके प्रयत्न करते हैं, वे उस परमात्मा को, आत्मा से संबंध रखनेवाली समस्त (बातों) को तथा सभी (करने योग्य) कर्म को जान लेते हैं ।
01. और मृत्यु के समय में मेरे (परमात्मा) को ही स्मरण करता
हुआ जो (जीव) शरीर को छोड़कर (संसार) से विदा होता है, वह मेरी (परमात्मा की) अवस्था को प्राप्त कर लेता है। इसमें (कोई) संदेह नहीं है ।
102 हे कौन्तेय ! और जिस-जिस झुकाव को मन में रखता हुआ
(कोई भी व्यक्ति) (जीवन के) अन्त में शरीर को छोड़ता है, उस झुकाव के अनुरूप परिवर्तित हुमा (वह) उस-उस अवस्था) को सदैव प्राप्त करता है। ..
103. हे अर्जुन ! (परमात्मा पर निरन्तर) ध्यान के अभ्यास
सहित (तथा) एकाग्र चित्त के द्वारा ध्यान करता हुआ (व्यक्ति) उच्चतम दिव्य मात्मा को प्राप्त करता है.। . .
104. (जो) भक्ति से युक्त (व्यक्ति) संसार से विदा होने के समय
स्थिर मन से तथा भक्ति-शक्ति से प्राण को दोनों भौहों के मध्य में ही पूरी तरह से नियन्त्रित करके (रहता है), वह उस उच्चतम दिव्य परमात्मा को ही पहुंचता है।
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105 सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूाधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ।। 106 प्रोमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥3॥
107 मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धि परमां गताः ॥
108 पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥
109 प्रश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवमनि ॥
110 सततं कोर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढवताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ।।
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105. ( मरण - काल के निकट आने पर ) ध्यान में डढ़ता को लिये 106. हुए (जो व्यक्ति) शरीर के सब द्वारों का नियन्त्रण करके मौर
मन को श्रात्मा में रोककर ललाट पर प्राण को स्थिर करके (रहता है) (तथा) जो शरीर को छोड़ते हुए ब्रह्मरूपी एकाक्षरीय प्रोम् शब्द का उच्चारण करते हुए (तथा) मुझको (परमात्मा को स्मरण करते हुए संसार से विश होता है, वह सर्वोच्च प्रवस्था को प्राप्त कर लेता है ।
107. सर्वोत्तम सिद्धि को प्राप्त हुए महात्मा मुझ को प्राप्त करके अनित्य तथा दुःख के स्थान पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं करते हैं ।
108. हे अर्जुन ! जिसके अन्दर (सब) प्राणी स्थित ( हैं ) जिसके द्वारा यह सब (जगत्) पैदा किया गया है, वह उच्चतम आत्मा है और ( वह) एकाग्र भक्ति से प्राप्त होने योग्य (होता है) ।.
109. हे शूरवीर ! इस धर्म में अश्रद्धा करते हुए व्यक्ति मुझको प्राप्त न करके मरण और जन्म-परम्परा के पथ पर लौटते हैं ।
110. दृढ़ संकल्पवाले (तथा) निरन्तर दत्तचित्त (व्यक्ति) सदा मेरी स्तुति करते हुए और (मेरे लिए) उत्कंठित होते हुए और (मुझे) भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हुए मेरी उपासना करते हैं ।
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111
ज्ञानयज्ञ ेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते । एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥
112 अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥
113 पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । भक्त्युपहृतमश्नामि
तदहं
प्रयतात्मनः
114 यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
115 शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः 1 संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥
116 समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः । ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥
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111. ज्ञानरूपी यज्ञ के द्वारा पूजा करते हुए (कुछ लोग) अद्व तता
से चारों ओर मुख (किए हुए) मुझको उपासते हैं, दूसरे भेदता से और (कई) बहुत प्रकार से भी (उपासते हैं)।
112. जो मनुष्य (मेरा) ध्यान करते हुए (मेरे में) एकाग्र (है),
(वे) मेरी उपासना करते हैं। उन (मेरे में) निरन्तर दत्तचित्तों के कल्याण की मैं देखभाल करता हूँ।
113. जो (व्यक्ति) मेरे लिए फूल की पत्ती, फूल, फल (एवं) जल
को भक्तिपूर्वक अर्पण करता है, (तो) (उस) संयमी व्यक्ति की भक्ति से अर्पित उस (वस्तु) का मैं उपभोग करता हूँ।
114. हे अर्जुन ! (तू) जो करता है, जो खाता है, हवन करता
है, जो दान करता है (और) जो तपस्या करता है, (तू) उसको मेरे अर्पण कर ।
115. इस प्रकार (तू) शुभ-अशुभ फल से (तथा) कर्म-बन्धन
से छूट जायेगा । (और), (बन्धन से) मुक्त व्यक्ति जो अर्पण-साधना से युक्त (है), मुझे प्राप्त कर लेगा।
116. मैं सब प्राणियों में समता-युक्त (हूँ); मेरे लिए न (कोई)
घृणित है (और) न (कोई) प्रिय । परन्तु जो मेरी भक्तिपूर्वक उपासना करते हैं, वे मेरे में (रहते हैं) और मैं भी उनमें (रहता हूँ)
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117 अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
118 क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति । कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्ररणश्यति ॥
119 मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि युक्त्वंवमात्मानं
मत्परायणः ॥
120 श्रहमात्मा गुडाकेश
121 मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो । योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥
122
सर्वभूताशयस्थितः ।
श्रहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥
[44
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा । दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥
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117. (मेरे में ) एकमात्र (अविभक्त) भक्तिवाला (कोई ) अत्यधिक दुष्ट (व्यक्ति) भी यदि मेरी उपासना करता है, (तो) वह भद्र पुरुष ही समझा जाना चाहिए, क्योंकि वह उचित रूप से निर्णय किया हुआ ( है ) ।
118. ह कौन्तेय ! ( वह) शीघ्र ( ही ) सद्गुणी हो जाता है और नित्य शान्ति को प्राप्त करता है । (तुम) ( इस बात को ) समभो (क) मेरा भक्त बर्बाद नहीं होता है ।
119. (तू) मेरे में रुचिवाला हा, (तू) मेरा आराधक (हो), (तू मेरी पूजा करनेवाला (हो), (तू) मुझे प्रणाम कर । इस प्रकार (तू) मेरी भक्तिवाला ( होकर) आत्मा को (मेरे में ) लगाकर मुझे (ही) प्राप्त कर लेगा ।
120. हे अर्जुन ! मैं सब प्राणियों के हृदय में स्थित श्रात्मा (हूँ) | मैं संसार का आदि, मध्य और अन्त हूँ ।
121. हे प्रभु ! यदि आप इस प्रकार मानते हैं (कि) मेरे द्वारा वह (आत्म-स्वरूप) देखा जाना संभव ( है ), (तो) हे योगेश्वर ! आप मेरे लिए (उस) अविनाशी आत्मा को दिखलाइये ।
122. परन्तु (तू) मुझे अपनी वर्तमान आँख से देखने को समर्थ ही नहीं है, (इसलिए) (मैं) तेरे लिए दिव्य नेत्र प्रदान करता हूँ । (उससे) (तू) मेरी दिव्य सम्पत्ति को देख ।
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सूर्यसहस्रस्य
भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥
123 दिवि
124 त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । त्वमव्ययः शाश्वतधर्म गोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे
125 भक्त्या त्वनन्यया शक्य ग्रहमेवंविधोऽर्जुन । ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ॥
1
126 मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवजितः निर्वरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव "I
127 एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते । ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥
128 मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते । श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥
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123. (परमात्मा के दिव्य स्वरूप को देखकर अर्जुन ने कहा ) यदि आकाश में सूर्यों की बहुत बड़ी संख्या के द्वारा एक ही समय में उत्पन्न हुई आभा होवे, तो भी वह (आभा) उस परमात्मा की आभा के समान शायद (ही) (हो) ।
124. आप परम आत्मा माने जाने योग्य ( हैं ), आप इस विश्व के सर्वोत्तम आधार (हैं), आप शाश्वत मूल्यों के रक्षक ( हैं ), आप अविनाशी ( हैं ) तथा आप शाश्वत परमात्मा ( हैं ) । मेरे द्वारा (आप) इस प्रकार समझे गए ( हैं ) ।
125. परन्तु हे शूरवीर अर्जुन ! (मेरा) ऐसा (रूप) एकाग्र भक्ति से अनुभव किया और देखा जा सकता है तथा मैं वास्तव में पहुँचा जा ( सकता हूँ ) ।
126. हे अर्जुन ! (जो) मेरे में निष्ठावान् (है) जो मेरे लिए ( ही ) कर्मों का करनेवाला (है), जो मेरा आराधक ( है ), ( जो ) ( फल में ) प्रासक्ति से रहित (है) और (जो) सब प्राणियों में स्नेह-युक्त है, वह मुझ को प्राप्त करता है ।
127. इस प्रकार जो आराधक निरन्तर अपना ध्यान केन्द्रित किए हुए आपकी उपासना करते हैं और जो (आराधक) केवल शाश्वत (और) अव्यक्त की (उपासना करते हैं), उनमें से योग के उत्तम जानकार कौन हैं ?
128. जो (प्राराधक) मेरे में मन को नियन्त्रित करके श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त (होकर) निरन्तर अपना ध्यान केन्द्रित किए हुए मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे द्वारा सर्वोत्तम योगी कहे गए हैं ।
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129 ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्त पर्युपासते. । सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं
ध्रुवम्
130 संनियम्येन्द्रियग्रामं
सर्वत्र समबुद्धयः । ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥
131 क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् श्रव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्धिरवाप्यते ॥
132 मय्येव मन श्राधत्स्व मयि बुद्धि निवेशय । निवसिष्यसि मय्येव श्रत ऊर्ध्वं न संशयः ॥
133 प्रथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् । अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय ॥
134 श्रभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि
मत्कर्मपरमो भव
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥
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129. और जो इन्द्रिय-समूह को भली प्रकार से नियन्त्रित करके 330. (उस) अविनाशी, अवर्णनीय, अदृश्यमान, सर्वव्यापक,
कल्पनातीत, अपरिवर्तनीय, गतिहीन और शाश्वत (परमात्मा) की उपासना करते हैं, (तथा) जो हर समय समतायुक्त बुद्धिवाले (होते हैं) (और) सब प्राणियों के कल्याणं में संलग्न (रहते हैं), वे (भी) मुझको ही प्राप्त करते हैं।
131. अदृश्यमान (की साधना) में लगे हुए उन चिन्तनशील
उपासकों के (मन में) दूसरे (दृश्य की उपासना करने वालों) की अपेक्षा बहुत कष्ट (होता है), क्योंकि मनुष्यों द्वारा अव्यक्त (उपासना का) पथ कठिनाई से पकड़ा जाता है।
132. (तू) मेरे में ही मन को जमा, (मेरे में) (ही) बुद्धि को
लगा, इसके पश्चात् (तू) मेरे में ही निवास करेगा। (इसमें) (कोई) संशय नहीं है ।
133. हे अर्जुन ! यदि (तू) श्रद्धालु चित्त को मेरे में एकाग्र नहीं
कर सकता है, तो अभ्यास विधि से मुझे प्राप्त करने की इच्छा कर।
134. (यदि) (तू) अभ्यास (करने) में भी सक्षम नहीं है, (तो) मेरे
लिए कर्म करने में श्रेष्ठ हो, क्योंकि मेरे लिए कर्मों को करता हुआ भी (तू) पूर्णता को प्राप्त कर लेगा।
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135 प्रयतदप्यशक्तोऽसि कर्तु मद्योगमाश्रितः ।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ।
136 अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी ॥ 137 संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।
___ मर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥
138 यस्मानोद्विजते लोको लोकानोद्विजते च यः । .
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥
139 अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः । ___ सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥
140 यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥
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135. यदि इसको भी करने के लिए (तू) सक्षम नहीं है, तो मेरी
भक्ति का अभ्यास करते हुए संयत और शान्त (होकर) सब कर्मों के फल में (आसक्ति का) त्याग कर ।
136. मेरे में केन्द्रित मन और बुद्धिवाला मेरा भक्त (जो) सब 137. प्राणियों के लिए ही सौहार्दपूर्ण (है), करुणायुक्त (है) और
(उनमें) घृणा करनेवाला नहीं (है); जो ममतारहित, अहंकाररहित, क्षमावान्, (और) सुख-दुःख में समता-युक्त (है) (तथा) (जो) प्रसन्न (है), सदा भक्ति करनेवाला (है), स्वसंयत (है) (और) दृढ़ संकल्पवाला (है), वह (भक्त) मेरे लिए प्रिय (है)।
138. जिससे (कोई भी) प्राणी भयभीत नहीं होता है, जो कामना,
ईर्ष्यायुक्त क्रोध, भय और चित्त की अस्थिरता से रहित है, वह मेरे लिए प्रिय है।
139. जो इच्छारहित (है), निष्पक्ष (है), सद्गुणी और कुशल (है),
दुःख से मुक्त (है) (और) (जो) समस्त हिंसा का त्यागी (है), वह मेरा आराधक मेरे लिए प्रिय (है)।
140. जो हर्षोन्मत्त नहीं होता है, (जो) घृणा नहीं करता है, . (जो) शोक नहीं करता है, (जो) चाहना नहीं करता है,
(और) (जो) शुभ-अशुभ (फल की आसक्ति) का त्यागी है, वह पाराधक मेरे लिए प्रिय (है)।
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समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानावमानयोः शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवजितः ॥ 142 तुल्यनिन्दास्तुतिर्मोनी संतुष्टो येन केनचित् । अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥
141
143 प्रमानित्वमदम्भित्वमहिंसा
क्षान्तिरार्जवम् ।
प्राचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥
144 इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्
145 प्रसक्तिरनभिष्वङ्गः
पुत्रदारगृहादिषु नित्यं च समचितत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥ 146 मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी । विविक्तिदेशसेवित्वमर तिर्जनसंसदि
147 अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ।।
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गोता
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141. (जो) शत्रु और मित्र में तथा मान और अपमान में 142. समतायुक्त (है), (जो) शीत और उष्ण (स्पर्शों) में (तथा)
सुख और दुःख में समतायुक्त (है), (जो) आसक्ति-रहित (है), (जिसके लिए) निन्दा और प्रशंसा समान (है) (और) (उनमें) (जो) मौन रखनेवाला (है), (जो) जिस किसी (भी वस्तु की प्राप्ति) से संतुष्ट (है), (जो) घर-रहित (है) और स्थिर बुद्धिवाला (है), (वह) (मेरी) आराधना करनेवाला मनुष्य मेरे लिए (प्रिय) है।
143. (जहाँ) विनम्रता, निष्कपटता, अहिंसा, धर्म, सरलता 144. (और) आध्यात्मिक गुरु की सेवा (है); (जहाँ) निर्मलता, मन 145. को दृढता, और स्वसंयम है,(जहाँ)इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य 146. (है), (जहाँ) अहंकार का प्रभाव (है), तथा (जहाँ) जन्म47. मरण-बुढापा-रोग (से उत्पन्न) दुःखों की बुराई को देखना
भी (है), (जहाँ) अनासक्ति, पुत्र-पत्नी-गृह आदि में सम्बन्ध का अभाव (है), और (जहाँ) इष्ट-अंनिष्ट प्राप्तियों में सदैव समतायुक्त चित्तता (है), (जहाँ) मेरे में एकाग्र विधि से एकनिष्ठ भक्ति (है), (जहाँ) एकाकी स्थान में रहना (है) (और) (जहाँ) मनुष्यों की भीड़ में (रहते हुए) बैचैनी (है), (जहाँ) आध्यात्मिक ज्ञान की निरन्तरता (है) (तथा)(जहाँ) तत्त्वज्ञान के प्रयोजन की समझ (है),(वहाँ) यह(सब)ज्ञान ही कहा गया (है) (और) इसलिए जो इसके विपरीत (है); वह अज्ञान (कहा गया) है।
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148 ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ।
149 अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्यु श्रुतिपरायणाः ॥
150 सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः ।
__ निबध्नन्ति महाबाहो - देहे देहिनमव्ययम् ॥
151 सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्वं सत्त्वमित्युत ॥
152 लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ।
153 अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च । __ तमस्येतानि जायन्ते विवृद्ध कुरुनन्दन ॥
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गीता
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148. कुछ लोग परमात्मा को आत्मा के द्वारा ध्यान के साधन से
आत्मा में अनुभव करते हैं; दूसरे (कुछ लोग) दिव्यज्ञान रूपी विधि से और दूसरे (कुछ लोग) (अनासक्तिपूर्वक) कर्म करने की विधि से (परमात्मा का अनुभव करते हैं)।
149. किन्तु दूसरे (कुछ लोग) जो इस प्रकार न समझते हुए
(रहते हैं), (वे) दूसरे (अनुयायियों) से (परमात्मा के विषय में) सुनकर उपासना करते हैं; और निस्सन्देह वे सुनने पर आश्रित (होकर) भी मृत्यु को जीत लेते हैं।
150. हे महाबाहु ! गुण-सत्त्व, रज और तम-(ये सब) प्रकृति से
उत्पन्न (होते हैं)। (वे) अविनाशी आत्मा को शरीर में बाँधते हैं।
151. जब कभी इस देह में (और) (इसके) सब द्वारों में प्रकाश
और आध्यात्मिक ज्ञान उत्पन्न होता है, (तो) (समझो कि) सत्त्व बढ़ा हुआ (है)। (इसे) इस तरह (ही) पहचानना चाहिए।
152. हे भरत क्षेत्र में श्रेष्ठ ! रजोगुण के बढ़े हुए होने पर लोभ,
(घोर) सांसारिक जीवन, कर्मों के (लिए) हिंसा, मानसिक अशान्ति, (विषयों में) लालसा - (ये) उत्पन्न होते हैं।
153. हे अर्जुन ! तमोगुण के बढ़े हुए होने पर आध्यात्मिक
अन्धकार, और आलस्ययुक्त आचरण, (महत्वपूर्ण कार्यों की) अवहेलना तथा आसक्ति-(ये) उत्पन्न होते हैं।
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ternational
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154 नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्धावं सोऽधिगच्छति ॥
155 गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादुःखैविमुक्तोऽमृतमश्नुते .. ॥
156 समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ 157 मानावमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥
158 मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । ____स गुणान्समतीत्यतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
159 यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । ___ यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥
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गीता
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154. जब द्रष्टा गुणों से अन्य (किसी) को कर्ता नहीं
देखता है और गुणों से भिन्न (आत्मा) को अनुभव कर लेता है, तो वह मेरे स्वभाव (परमात्मा) को प्राप्त कर लेता है।
155. देह के साथ जन्म लेता हुअा आत्मा इन तीनों गुणों के परे
जाकर जन्म, मरण और बुढ़ापे के दुःखों से रहित (हो जाता है) (तथा) अमरता (परमात्मा) को प्राप्त कर लेता है। .
156. (जो) आत्मा में स्थित (है), (जिसके लिए) सुख-दुःख समान 157. (हैं), (जो) अपनी निन्दा-प्रशंसा में समतायुक्त (है), (जिसके
लिए) इष्ट-अनिष्ट (वस्तुएँ) समान श्रेणी की (होती हैं), (जो) प्रशान्त (है), (जिसके लिए) मिट्टी का ढेला, (कीमती) पत्थर और सोना समरूप (हैं), (जो) मान-अपमान में संतुलित (होता है), (जो) शत्रु और मित्र के विषय में एक सा (रहता है) तथा (जो) सब प्रकार की हिंसा का त्यागी (होता है), वह (इन) तीन गुणों (सत्त्व, रज और तम) से परे कहा जाता है।
158. और (जो) एकनिष्ठ भक्ति-विधि से मुझको उपासता है
(वह) इन गुणों के पूर्णतः परे जाकर ब्रह्म हो जाने के लिए योग्य होता है।
159. प्रयत्न करते हुए साधक ही आत्मा में विद्यमान इस
(परमात्मा) को अनुभव करते हैं; (किन्तु) असंयमी (और) अज्ञानी (व्यक्ति) प्रयत्न करते हुए भी इसको अनुभव नहीं कर पाते हैं।
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160 अभयं
सत्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यव स्थितिः I
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप श्रार्जवम् ॥ 161 अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम् । दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम् ॥ 162 तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता । भवन्ति संपदं देवीमभिजातस्य भारत 11
163 दम्भो दर्पोऽतिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च प्रज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरोम् ॥
164 देवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता 1 मा शुचः संपदं देवोमभिजातोऽसि पाण्डव 11
165 प्रवृत्ति च निवृत्ति च जना न विदुरासुराः । न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥
166 काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः मोहाद्गृहीत्वा सद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिवताः
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"
गीता
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161.
160. हे अर्जुन ! भय का अभाव, स्वभाव की पवित्रता, अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति में दृढता, दानशीलता, आत्म-संयम, पूजा162. भक्ति, स्वाध्याय, तपस्या, सरलता, अहिंसा, सत्य, क्रोध का प्रभाव, त्यागशीलता, शान्ति, चुगली का प्रभाव, प्राणीमात्र के प्रति दया, लालसा का प्रभाव, उदारता, विनय, चंचलता का अभाव, आत्मबल, क्षमा, धैर्य, ईमानदारी, द्वेषरहितता, अति अहंकारिता का न होना- (ये) (गुण) देवी संपदा को प्राप्त किए हुए (व्यक्ति) के होते है ।
1
163 हे अर्जुन ! जालसाजी, उदण्डता और अहंकार, क्रोध और निर्दयता तथा आध्यात्मिक ना समझी - (ये) (सब) आसुरी संपदा को प्राप्त किए हुए (व्यक्ति) के (दोष) (हैं) ।
164. हे अर्जुन ! देवी संपदा मोक्ष (शान्ति) के लिए (तथा) आसुरी (संपदा) बन्धन (शान्ति) के लिए मानी गई ( है ), (चूँकि ) (तू) दैवी संपदा को प्राप्त किया हुआ ( है ) ( इसलिए) शोक मत (कर) ।
165. आसुरी (संपदावाले) लोगों ने (आध्यात्मिक मूल्यों में) प्रवृत्ति को तथा ( प्रासक्ति से) निवृत्ति को कभी नहीं जाना । उनमें न शुद्धि ( होती है), न ही आचरण और न ही सत्य । 166. (जिनके) संकल्प अपवित्र ( हैं ), (वे) कठिनाई से पूरी की जानेवाली इच्छात्रों का अनुगमन करके जालसाजी, घमण्ड (तथा) कामुकता से युक्त (हो जाते हैं) । (और) (इस तरह) (उनको ) अज्ञान से ग्रहण करके मिथ्यात्व का स्वीकरण करते हैं ।
चयनिका
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167 चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः ।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥
168 प्राशापाशशतंबंद्धाः कामक्रोधपरायणाः ।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंचयान् ॥
169 इदमद्य मया लब्धमिदं प्राप्स्ये मनोरथम् ।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥
170 अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः ।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥
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चयनिका
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167. (ऐसे व्यक्ति) मृत्यु तक असंख्य चिन्ताओं को पालते हुए
(जीते है) तथा विषय-भोगों में पूर्णतः संलग्न (रहते हैं)। इस तरह (वे) (दुष्ट-संकल्पों में) इतने दृढ़ (होते हैं) (कि) (वे) (मृत्य तक) (इसी प्रकार जोते हैं) ।
168. (ऐसे व्यक्ति) सैकड़ों आशारूपी बेड़ियों से बंधे हुए (रहते
हैं), (वे) काम-क्रोध के वशीभूत होते हैं, काम-भोग के लिए अन्याय से (विभिन्न प्रकार के) धन-संग्रह को चाहते हैं ।
169. आज मेरे द्वारा यह (इच्छित वस्तु) प्राप्त की गई (है),
(भविष्य में भी) (मैं) इच्छित वस्तु को प्राप्त करूंगा; यह धन मेरे लिए है। इसी प्रकार दुबारा भी (मेरे लिए) धन होगा।
170. (जो) अनेक इच्छात्रों से व्याकुल (हैं), मूर्छारूपी जाल
से ढके हुए (हैं) (तथा) काम-भोगों में अनुरक्त (हैं), (वे) अपवित्र नरक में गिरते हैं।
[
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________________
संकेत-सूची
.
वि
(म) = अध्यय (इसका अर्थ
= लगाकर लिखा गया है)
अकर्मक क्रिया माझा = प्राज्ञा कर्म
कर्मवाच्य (क्रिवित्र) =
क्रिया विशेषण अव्यय (इसका अर्थ
लगाकर लिखा गया है)
॥ ॥ ॥ ॥ || ||
,
मूक . = भूतकालिक कृदन्त व = वर्तमानकाल व = वर्तमानकालिक कृदन
विशेषण विधि -
विधि . विषिक . = विधि कृदन्त स
सर्वनाम सकर्मक क्रिया
सर्वनाम विशेषण स्त्री = स्त्रीलिंग
हेत्वर्थ कृदन्त ( ) = इस प्रकार के
कोष्ठक में मूल - शब्द रक्खा गया
॥ ॥ ॥ ॥ ॥
तुलनात्मक विशेषण = पुल्लिग
पूर्वकालिक कृदन्त = प्रेरणार्थक क्रिया
भविष्यत्कालिक
कृदन्त
भविष्यत्काल भाववाच्य भूतकाल
[( +( )+( )......] इस प्रकार के कोष्ठक के पन्दर + चिह्न किन्हीं शब्दों में सन्धि का द्योतक है । यहाँ अन्दर के कोष्ठकों में श्लोक के शब्द ही रख दिये गये हैं।
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[ गीता
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[( )-( )- )......) इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर '' चिह्न समास का द्योतक है। [[( )-( )-( )......]वि]
जहाँ समस्त पद विशेषण का कार्य करता है, वहां इस प्रकार के कोष्ठक का प्रयोग किया गया है।
जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल संख्या (जैसे 1/1, 1/2, 1/3...... आदि) ही लिखी है, वहां कोष्ठक के अन्दर का शब्द 'संज्ञा है।
एकवचन द्विवचन बहुवचन प्रथमा 1/ 11/
21/3 द्वितीया 2/
12/2 2/3 तृतीया 31 चतुर्थी 4/1 पंचमी 5/ 15/
2513 पठी 6/
16/26/3 सप्तमी 71 7/
27/3 संबोधन 81 8/
2 8/3 :
एकवचन
बहुवचन उत्तमपुरुष 1/1 अक या सक 1/2 अक या सक 1/3 अक या सक मध्यमपुरुष 2/1 अक या सक. 2/2 अक या सक, 2/3 अक या सक न्यपुरुष : 3/1 अक या सक, 3/2 प्रक या सक 3/3 पक या सक
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[
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व्याकरणिक विश्लेषण
=
1. देहिनोऽस्मिन्यथा [ ( देहिनः ) + (अस्मिन्) + (यथा ) ] देहिनः ( देहिन् ) 6 / 1. प्रस्मिन् (इदम्) 7/1 सवि यथा (प्र) – जैसे. देहे (देह) 7/1 कौमारं यौवनं जरा [ ( कौमारम्) + ( यौवनम् ) + (जरा)] कौमारम् ( कौमार ) 1 / 1. यौवनम् ( यौवन) 1 / 1. जरा (जरा) 1 / 1. तथा (प्र) = वैसे ही बेहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र [ (देह) + (अन्तर ) + (प्राप्तिः) + (धीर: ) + (तत्र ) ] [ (देह) - ( अन्तर ) 2 - ( प्राप्ति ) 1/1] धीरः (धीर) 1 / 1 वि. तत्र ( अ ) = उसमें न ( प्र ) = नहीं मुह्यति (मुह ) व 3 / 1 अक. 2 न ( अ ) = नहीं जायते (जन्) व 3 / 1 ( प्र ) - प्रौर कदाचिन्नायं भूत्वा [ ( कदाचित्) + (न) + (प्रयम्) + (भूत्वा ) ] कदाचित् (प्र) = कभी न (प्र): = नहीं प्रयम् (इदम्) 1/1 (भू) पूकृ. भविता (भवितृ ) 1/1 वि. वा (प्र) = तथा न भूय: ( अ ) = नये रूप से अजो नित्यः [ ( श्रजः ) + ( नित्यः ) ] 1 / 1 वि. नित्यः (नित्य) 1 / 1 वि. शाश्वतोऽयं पुराणो न (अयम्) + ( पुराण:) + (न)] शाश्वतः ( शाश्वत ) 1 / 1 वि. प्रयम् (इदम्) 1 / 1 वि. न ( अ ) - नहीं हन्यते ( हन्) वकर्म 3/1 सक हन्यमाने ( हन् + हन्यहन्यमान) वकृ कर्म 7 / 1 शरीरे (शरीर) 7/1
ग्रक म्रियते (मृ) व 3 / 1 प्रक वा
-
सवि.
भूत्वा
(
अ ) = नहीं अज: ( अ ज )
[ ( शाश्वत ) +
3. वासांसि ( वासस् ) 2 / 3 जीर्णानि ( जीर्ण ) 2/3 वि. यथा ( अ ) = जैसे विहाय (वि-हा) पूकृ नवानि ( नव) 2/3 वि. गृह्णाति (ग्रह) व 3 / 1 सक नरोऽपराणि [ ( नर:) + (अपराणि) ] नरः (नर) 1 / 1. अपराणि ( अपर) 2 / 3 वि. तथा ( प्र ) = वैसे ही शरीराणि (शरीर ) 2/3
1. 'दूसरा ' अर्थ में 'धन्तर' सदैव समस्तपद का उत्तर पद रहता है ।
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[ गीता
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विहाय (वि-हा) पू जीर्णान्यन्यानि [(जीर्णानि) + (अन्यानि)] जीर्णानि . (जीर्ण) 2/3 वि. अन्यानि (अन्य) 2/3 वि. संयाति
(सं-या) व 3/1 सक नवानि (नव) 2/3 वि. देही (देहिन्) 1/1. 4. नैनं छिन्दन्ति [ (न) + (एनम्) + (छिन्दन्ति)] न (प्र)=नहीं. एनम्
(एन) 2/1 सवि. छिन्दन्ति (सिद्) व 3/3 सक शस्त्राणि (शस्त्र) 1/3 दहति (दह) व 3/1 सक पावकः (पावक) 1/1 न (अ)=नहीं चैनं क्लेदयन्त्यापो न [(च) + (एनम्) + (क्लेदयन्ति) + (मापः)+ (न)] च (म)=तथा. एनम् (एन)2/1 सवि. क्लेदयन्ति (क्लिद्-क्लेदय) व प्रे. 3/3 सक. प्रापः (अप्) 1/3. न (अ)= नहीं
शोषयति (शुष्-शोषय) व प्रे. 3/1 सक मारुतः (मारुत) 1/1 5. एषा (एतत्) 1/। सवि तेऽभिहिता . ] (ते) + (अभिहिता)] ते
(युष्मद्) 4/1 स. अभिहिता (अभि-धा-अभिहित-अभिहिता) भूक 1/1. साल्ये (सांख्य) 7/1 बुनिर्योगे [(बुद्धिः) + (योगे)] बुद्धिः (बुद्धि) 1/1. योगे (योग) 7/1 विमा शरण. [(तु) + (इमाम्) + (शणु)] तु (अ) =प्रब. इमाम् (इदम्)2/1 सवि गुण. (घ) प्राज्ञा . 2/1 सक बुखया (बुद्धि) 311 युक्तो यया [(युक्तः) + (यया)] युक्तः। (युज् - युक्त) भूक 1/1 यया (यत्) 3/1 स पार्थ (पार्थ)811 कर्मबन्धं प्रहास्यसि [(कर्मबन्धम्) + (प्रहास्यसि)]. कर्मबन्धम्
[(कर्म)-(बन्ध) 2/1] प्रहास्यसि (प्र-हा) भवि 2/1 सक. 6. नेहाभिकमनाशोऽस्ति [(न) + (इह) + (मभिक्रम) + (नाशः)+
(अस्ति)] न (म)= नहीं. इह (म)= यहां. [(अभिक्रम)-(नाश) 1/1] अस्ति (मस्) व 3/1 अक प्रत्यवायो न [(प्रत्यवायः) + (न)] 1. समास में या करण के साथ अर्थ होता है : सहित, भरा हुमा प्रादि ।
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प्रत्यवाय: ( प्रत्यवाय) 1 / 1. न ( अ ) = नहीं विद्यते (विद्) व 3 / 1 श्रक स्वल्पमप्यस्य[ (स्वल्पम्) + (अपि) + (अस्य) ] स्वल्पम् (स्वल्प) 1 / 1 वि. अपि (प्र) = भी. प्रस्य (इदम्) 6 / 1 स धर्मस्य (धर्म) 6/1 त्रायते ( ) व 3 / 1 सक महतो भयात् [ ( महतः ) + ( भयात् ) ] महतः (महत्) 5 / 1 वि. भयात् (भय) 5 / 1.
7. व्यवसायात्मिका [ (व्यवसाय) + ( प्रात्मिका) ] [ (व्यवसाय) - ( प्रात्मक
स्त्री
+ प्रात्मिका 1 ) 1 / 1 वि] बुद्धिरेकेह [ ( बुद्धि:) + (एका) + (इह) ] स्त्री बुद्धि: (बुद्धि) 1 / 1 . एका ( एक + एका ) 1 / 1 वि. इह ( अ ) = इस दशा में कुरुनन्दन ( कुरुनन्दन) 8 / 1 बहुशाखा ह्यनन्ताश्च [ ( बहुशाखा:) + (हि) + (अनन्ताः) + (च)] बहुशाखा: ( बहुशाखा ) 1/3 वि. हि स्त्री
➡
= तथा
( अ ) = निस्संदेह . अनन्ताः (अनन्त प्रनन्ता) 1 / 3 वि. च (प्र) बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् [ ( बुद्धयः) + (अव्यवसायिनाम् ) ] बुद्धयः (बुद्धि) 1 / 3. अव्यवसायिनाम् ( अ - व्यवसायिन् ) 6 / 3 वि.
[ ( भोग) - ( ऐश्वर्य) -
8. भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् [ ( भोग) + ( ऐश्वर्य) + (प्रसक्तानाम्) + (तया) + ( अपहृत ) + ( चेतसाम् ) ] प्रसञ्ज्→प्र-सक्त) भूकृ 6 / 3] तया भूकृ - (चेतस् ) 6/3] व्यवसायात्मिका [ (व्यवसाय) - ( प्रात्मिका ) 1 / 1 वि] (समाधि) 7 / 1 न ( अ ) = नहीं विधीयते (वि- धा) व कर्म 3 / 1 सक.
(तत्) 3 / 1 स [ ( अपहृत ) [ (व्यवसाय) + ( प्रात्मिका ) ] बुद्धिः (बुद्धि) 1 / 1 समाधौ
1.
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स्त्री
'प्रात्मक मात्मिका' समास के अन्त में लगता है ।
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[ गीता
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9. कर्मण्येवाधिकारस्ते [(कर्मणि) + (एव) + (अधिकारः) + (ते)]
कर्मणि (कर्मन्) 7/1. एव (प्र)=ही. अधिकारः (अधिकार) 1/1. ते (युष्मद) 6/1 स. मा (प्र)= नहीं फलेषु (फल) 7/3 कदाचन (म)= कभी मा (प्र)= मत कर्मफलहेतुर्भूर्मा [(कर्मफल)+ (हेतुः) + (भूः) +मा)] [(कर्मफल)-(हेतु)1 1/1] (अ) भूः (भू) भू 2/1 अक मा (अ)=न ते (युष्मद्) 6/1 स सङ्गोऽस्त्वकर्मणि [(सङ्गः) + (प्रस्तु) + (अकर्मणि)] सङ्गः (सङ्ग)1/1. अस्तु (मस्)
माज्ञा 3/1 अकं. अकर्मणि (प्र-कर्मन्) 7/1. 10. योगस्थः [(योग)-(स्थ) 1/1 वि] कुर (कृ) प्राज्ञा 2/1 सक
कर्माणि (कर्मन्) 2/3 सङ्ग त्यक्त्वा [ (सङ्गम्) + (त्यक्त्वा)]सङ्गम् (स) 2/1 त्यक्त्वा (त्या) पूकृ धनंजय (धनंजय) 8/1 सिरायसिखयोः [(सिद्धि) + (प्रसिद्धयोः)] [(सिद्धि)-(प्रसिद्धि) 7/2] समो भूत्वा [(समः) + (भूत्वा)] समः (सम) 1/1 वि भूत्वा (भू) पूछ समत्वं योग उच्यते [(समत्वम्) + (योगः) + (उच्यते)] समत्वम् (समत्व) 1/1. मोगः (योग) 1/1. उच्यते (बू)
व कर्म 3/1 सक. 11. बुद्धियुक्तो जहातीह [(बुद्धियुक्तः) + (जहाति) + (इह)] बुखियुक्तः - (बुद्धि)-(युज्+युक्त) भूक 1/1]जहाति (हा)व 3/1सक. इह (अ)=
1. 'कर्मफलहेतु'-Impelled by (the expectation of ) the ___ . consequences of any act (Monier Williams, Sans
Eng. Dictionary P. 1303 col III) 2. 'मा' के योग में सामान्यभूत का 'म' लुप्त हो जाता है । मोर माशा मर्थ में
प्रयुक्त होता है। 3. समास के अन्त में प्रयुक्त । 4. समास में या करण के साथ पर्थ होता है : सहित, भरा हुमा मादि ।
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इस लोक में उसे (उभ ) 2 / 2 वि सुकृतदुष्कृते [ ( सुकृत) - (दुष्कृत) 2/2] तस्माद्योगाय [ ( तस्मात्) + (योगाय ) ] तस्मात् ( प्र ) = इसलिए. योगाय (योग) 4 / 1 युज्यस्व (युज् ) प्राज्ञा 2 / 1 सक योगः (योग) 1 / 1 कर्म सु ( कर्मन्) 7/3 कौशलम् ( कौशल 1 / 1.
[
( बुद्धियुक्ताः) + (हि)] बुद्धि
12. कर्मजं ( कर्मज) 2 / 1 वि बुद्धियुक्ता हि युक्त) भूकृ
-
युक्ता: [ (बुद्धि) - (युज् फलं त्यक्त्वा [ ( फलम् ) + ( त्यक्त्वा ) ] ( त्यज्) पूकृ मनीषिणः ( मनीषिन् )
फलम् (फल) 2 / 1 1/3 जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः [ (जन्म) - (बन्ध ) - (वि- निर्मुच् विनिर्मुक्त) भूकृ 1 / 3] पदं - गच्छन्त्यनामयम् [(पदम्) + ( गच्छन्ति ) + ( श्रनामयम् ) ] पदम् (पद) 2 / 1. गच्छन्ति ( गम् ) व 3 / 3सक. अनामयम् (ग्रनामय ) 2 / 1. 13. स्थितप्रज्ञस्य [ ( स्थित ) भूकृ - (प्रज्ञ ) 6 / 1 वि] का ( किम् ) 1 / 1 सवि भाषा ( भाषा) 1 / 1 समाधिस्थस्य [ (समाधि) - ( स्थ) 6 / 1 वि] केशव (केशव) 8 / 1 स्थितधी: [[ ( स्थित ) भूकृ - (घी) 1 / 1 ) ]वि ] कि प्रभाषेत ' [ (किम्) + (प्रभाषेत ) ] किम् ( अ ) = कैसे. प्रभाषेत (प्र-भाष्) विधि 3 / 1 सक. किमासीत [ ( किम्) + (प्रासीत ) ] विधि 3 / 1 ग्रक व्रजेत' ( व्रज् )
=
किम् (प्र) – कैसे. प्रासीत' (श्रास्) विधि 3/1 सक. किम् (प्र) कैसे .
14. प्रजहाति (प्र-हा) व 3 / 1 सक यदा (प्र) = जब. कामान्सर्वान्पार्थ [ ( कामान्) + (सर्वान्) + (पार्थ) ] कामान् (काम) 2/3 सर्वान् (सर्व) 2/3 वि. पार्थ (पार्थ) 8 / 1 मनोगतान् ( मनोगत) 2 / 3 वि प्रात्मन्येवात्मना [(प्रात्मनि) + (एव) + (प्रात्मना ) ] श्रात्मनि (ग्रात्मन्) 7/1
1
/ 3] हि (श्र ) = निश्चय ही
त्यक्त्वा
1. भविष्यकाल की क्रिया की अभिव्यक्ति कभी-कभी विधिलिङ द्वारा भी होती है । ( प्राप्टे : संस्कृत निबन्ध-दर्शिका, पृष्ठ 165 )
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एव(प्र)=ही.अत्मना (मात्मन्)3/1तुष्टः(तुष्-+तुष्ट)भूकृ1/I स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते [ (स्थितप्रज्ञः) । (तदा) + (उच्यते)] स्थितप्रज्ञः [ (स्थित)
भूक-(प्रज्ञ)1/1 वि]तदा (अ)=तब. उच्यते (बू) व कर्म 3।। सक. 15. दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः [(दुःखेषु) + (अनुद्विग्नमनाः)]दुःखेषु (दुःख)7/3.
अनुद्विग्नमनाः[[(अनुद्विग्न) भूकृ-(मनस्) 1/1] वि]सुखेषु (सुख)7/3 विगतस्पृहः [[(विगत) भूक-(स्पृह) 1/1] वि] वीतरागभयकोषः [[(वीत) भूकृ-(राग)-(भय)-(क्रोध)1/1] वि] स्थितधीर्मुनिरुच्यते [(स्थितधीः) + (मुनिः) + (उच्यते)] स्थितधीः (स्थितधी)1/1 वि.
मुनिः (मुनि) 1/1. उच्यते (बू) व कर्म 3 || सक. 16. यः (यत्) 1/1 सवि सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य [(सर्वत्र) + (अनभि
स्नेहः) + (तत्) + (तत्) + (प्राप्य)] सर्वत्र (अ)=सदैव. अनभिस्नेहः (अनभिस्नेह)1/1 वि. तत्। (तत्)2/1 सवि. तत्। (तत्)2/1 सवि. प्राप्य (प्र-प्राप्) पूक शुभाशुभम् [(शुभ) + (अशुभम्)] [(शुभ)वि-(अशुभ)2/1 विनाभिनन्दति [(न) + (अभिनन्दति)] न (अ)= नहीं. अभिनन्दति (अभि-नन्द) व 3/1 सक न (अ)= नहीं द्वेष्टि (द्विष्) व 3/1 सक तस्य (तत्) 6/1 स प्रज्ञा (प्रज्ञा) 1/1
- भूकृ स्त्री प्रतिष्ठिता (प्रति-स्था-प्रतिष्ठित-प्रतिष्ठिता) भूकृ 1/1. 17. यदा (प्र) =जब संहरते (सम्-ह) व 3/1 सक चायं कूर्मोऽङ्गानीव
[(च) + (प्रयम्) + (कूर्मः) + (अङ्गानि) + (इव)]च (अ)=और. प्रयम् (इदम्) 1/1 सवि. कूर्मः (कूर्म)1/1. अङ्गानि (अङ्ग) 2/3, इव (म)=जैसे सर्वश: (अ)=पूरी तरह से इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य [(इन्द्रियाणि) + (इन्द्रियार्थेभ्यः) + (तस्य)] इन्द्रियाणि (इन्द्रिय)
1. पब 'तत्' की पावृत्ति की जाए तो इसका अर्थ होता है भिन्न-भिन्न' ।
यनिका
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2/3. इन्द्रियार्थेभ्यः [(इन्द्रिय) + (अर्थेभ्यः)] [(इन्द्रिय)-(अर्थ) 5/3] तस्य (तत्) 6/1 स प्रज्ञा (प्रज्ञा) 1/1 प्रतिष्ठिता (प्रति
भूकृ स्त्री
स्था--प्रतिष्ठित-प्रतिष्ठिता) भूक 1/1... 18. विषया विनिवर्तन्ते [(विषयाः) - (विनिवर्तन्ते)] विषयाः (विषय)
1/3. विनिवर्तन्ते (विनि-वृत) व 3/3 अक निराहारस्य (निराहार) 6/1 वि देहिनः (देहिन्) 6/1 रसवज रसोऽप्यस्य [(रसवर्जम्) - (रसः) + (अपि) । (अस्य)] रसवर्जम् (प्र)=स्वाद / रस नहीं. रसः 1/1. अपि (अ)=भी. अस्य (इदम्)6/1 स परं दृष्ट्वा [(परम्) + दृष्ट्वा )] [(परम्) + (दृष्ट्वा )] परम् (पर)2/1 वि. दृष्ट्वा (श्)
पूक निवर्तते (नि-वृत) व 3/1 अक. 19. तानि (तत्) 2/3 सवि सर्वाणि (सर्व) 2/3 वि संयम्य (सम्-यम्)
पूकृ युक्त प्रासीत [(युक्तः) + (प्रासीत)] युक्तः (युज्+युक्त) भूक 1/1. आसीत (प्रास्) विधि 3/1 अक मत्परः। (मत्पर)।/1 वि वशे (वश) 7/1 हि (अ)=क्योंकि यस्येन्द्रियारिण. [(यस्य) + (इन्द्रियाणि)] यस्य (यत्). 6/1 स. इन्द्रियाणि (इन्द्रिय) 1/3 तस्य
(तत्) 6/1 स प्रज्ञा (प्रज्ञा) 1/1 प्रतिष्ठिता (प्रति-स्था
स्त्री प्रतिष्ठित-प्रतिष्ठिता) 1/1. 20. ध्यायतो विषयान्पुंसः [(ध्यायतः) + (विषयान्) + (पुंसः)] घ्यायतः
(ध्य-+ध्यायत्)वक 6/1. विषयान् (विषय)2/3. पुंसः (पुंस्) 6/1.
___ 1. मत्परः-devoted to me (Monier Williams, P. 777 CollII)
मद्-उत्तमपुरुष सर्वनाम के एकवचन का रूप जो प्रायः समस्त शब्दों के भारम्भ में प्रयुक्त होता है (माप्टे,संस्कृत-हिन्दी कोष).
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सङ्गस्तेषूपजायते [(सङ्गः) + (तेषु) + (उपजायते)] सङ्गः (सङ्ग) 1/1. तेषु(तत्)7/2. उपजायते (उप-जन्)व3/1 अक सगात्संजायते [(सङ्गात्) + (संजायते)] सङ्गात् (सङ्ग)5/1. संजायते (सम्-जन्) व 3/1 अक कामः (काम) 1/1 कामाकोषोऽभिजायते [(कामात्) + (क्रोधः) + (अभिजायते)] कामात् (काम) 5/1. क्रोषः (क्रोष)
1/1. अभिजायते (अभि-जन्) व 3/1 अक. . . . 21. क्रोधाद्भवति [(क्रोधात) + (भवति)] क्रोधात् (क्रोध) 5/1. भवति
(भू) व 3/1 अक संमोहः (संमोह) 1/1 संमोहात्स्मृतिदि : [(संमोहात्) + (स्मृतिविभ्रमः)]संमोहात् (संमोह)5/1. स्मृतिविभ्रमः [(स्मृति)-(विभ्रम)1/1] स्मृतिम्रशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशाप्रणश्यति [(स्मृतिभ्रंशात्) + (बुद्धिनाशः) + (बुद्धिनाशात्) + (प्रणश्यति)] स्मृतिभ्रंशात् [(स्मृति)-(भ्रश) 5/1] बुद्धिनाशः [(बुद्धि)-(नाश) 1/1] बुद्धिनाशात् [(बुद्धि)-(नाश) 5/1] प्रणश्यति (प्र-नश्) व
3/1 अक. 22. या (यत्) 1/1 सवि निशा (निशा) 1/1 सर्वभूतानां तस्यां जागति
[(सर्वभूतानाम्) + (तस्याम्) + (जागति)] सर्वभूतानाम् [(सर्व) वि-(भूत) 6/3] तस्याम् (तत्) -7/1 स. जागति (जागृ) व 3/1 अक. संयमी (संयमिन्) 1/1 वि यस्यां जाग्रति [(यस्याम्) + (जाग्रति)] यस्याम् (यत्) 7/1 स. जाग्रति (जागृ) व 3/3 प्रक भूतानि (भूत) 1/3 सा (तत्) 1/1 सवि निशा (निशा) 1/1 पश्यतो मुनेः [(पश्यतः)+ (मुने)]पश्यतः (डर-पश्यत्) वक 6/1
मुनेः (मुनि) 61. 23. विहाय (वि-हा) पूर्व कामान्यः [(कामान्) + (यः)] कामान् (काम)
2/3. यः (यत्)1/1 सवि. सर्वान्पुमांश्चरति [(सर्वान्) + (पुमान्) + (चरति)] सर्वान् (सर्व)2/३ वि. पुमान् (पुंस्) 1/1. चरति (चर्)
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व 3 / 1 क निस्पृहः (निःस्पृह) 1 / 1 वि निर्ममो निरहंकार : स शान्तिमधिगच्छति [ ( निर्मम:) + ( निरहंकार:) + ( प ) + (शान्तिम्) + (प्रधिगच्छति ) ] निर्मम: ( निर्मम ) 1 / 1 वि. निरहंकार: ( निरहंकार ) 1 / 1 वि. सः (तत्) 1 / 1 सवि. शान्तिम् (शान्ति) 2 / 1. अधिगच्छति (अधि - गम्) व 3 / 1 सक
24. लोकेऽस्मिन्द्विविधा [ ( लोके) + (ग्रस्मिन्) + (द्विविधा ) ] लोके (लोक) 7 / 1. अस्मिन् (इदम्) 7 / 1 सवि द्विविधा ( द्विविधा ) 1 / 1 वि: निष्ठा (निष्ठा) 1 / 1 पुरा (प्र) = पहले प्रोक्ता ( प्रवच् + उक्त स्त्री
प्रोक्त + प्रोक्ता ) भूकृ 1 / 1 मयानघ [ ( मया) + ( पनघ) ] मया (अस्मद् ) 3 / 1 स. अनघ ( प्रनध) 8 / 1 वि. ज्ञानयोगेन ( ज्ञानयोग ) 3/1 सांख्यानां कर्मयोगेन [ ( सांख्यानाम्) + ( कर्मयोगेन )] सांख्यांनाम् (सांख्य) 6 / 3. कर्मयोगेन (कर्मयोग) 3 / 1. योगिनाम् ( योगिन् ) 6/3 25. न ( अ ) = नहीं हि ( प्र ) = निस्संदेह कश्चित्क्षणमपि [ ( कश्चित्)
[ ( क + (चित् ) ]
+ ( क्षरणम्) + ( श्रपि ) ] कः (किम्) + (चित् 2 ) लिए. अपि (प्र) = भी.
कश्चित् । 1 / 1 स. क्षरणम्
( अ ) - एक क्षरण के जातु ( प्र ) = किसी समय तिष्ठत्यकर्मकृत्
[ ( तिष्ठति ) + (कर्मकृत् ) ] तिष्ठति (स्था) व 3 / 1 प्रक. श्रकर्मकृत्
प्रे कर्म
2
[ (कर्म) - (कृत् ) ± 1 / 1 वि]. कार्यते ( कृ कारयू
कर्म व 3 / 1 सक ह्यवश: [ (हि) + ( प्रवशः )
1. किम् भौर किम् से उत्पन्न अन्य शब्दों के साथ जुड़ने वाला ग्रव्यय, जिससे अर्थ में प्रनिश्चयात्मकता भाती है ।
कार्यते) प्रे.
] हि (प्र) = क्योंकि.
2. कृत् (वि) : प्राय: समास के अन्त में प्रयुक्त ।
3. प्रेरणार्थक का कर्मवाच्य बनाते समय प्रय् का लोप हो जाता है ।
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अवशः (अवश) 1/1 वि. कर्म (कर्मन्) 1/1 सर्वः (सर्व) 1/1 वि प्रकृतिजैर्गुणैः [(प्रकृतिजैः) + (गुणैः)] प्रकृतिजै: [(प्रकृति)-(ज)।
3/3 वि] गुणः (गुण) 3/3. 26. यस्त्विन्द्रियाणि [(यः) + (तु) + (इन्द्रियाणि)] यः (यत्) ) |1
सवि. तु (अ)=और इन्द्रियाणि (इन्द्रिय) 2/3. मनसा (मनस्) 3/1 नियम्यारभतेऽर्जुन [(नियम्य) + (प्रारभते) + (अर्जुन)] नियम्य (नि-यम्) पूकृ. प्रारभते (प्रा-रम्) व 3/1 सक. अर्जुन (अर्जुन) 8/1 कर्मेन्द्रियः (कर्मेन्द्रिय) 3/3 कर्मयोगमसक्तः [(कर्मयोगम्) । (प्रसक्तः)] कर्मयोगम् (कर्मयोग) 2/1. असक्तः (असक्त) 1/1 वि. स विशिष्यते [ (सः)+ (विशिष्यते)] सः (तत्) 1/। सवि.
विशिष्यते (वि-शिष्) व कर्म 3/1 अक... 27. यस्त्वात्मरतिरेव [ (यः) + (तु) + (प्रात्मरतिः) + (एव)]यः (यत्)
1/1 सवि. तु (अ)=परन्तु. आत्मरतिः [(प्रात्म)-(रति) 1/1]. एव (प्र) =ही. स्यादात्मतृप्तश्च [(स्यात) + (प्रात्म) + (तृप्तः) + (च)] स्यात् (अस्) विधि 3/1 अक. [प्रात्म)-(तृप्-तृप्त) भूक 1/1] च (अ)= तथा मानवः (मानव) 1/1 प्रात्मन्येव [ (आत्मनि) I. (एव)] आत्मनि (प्रात्मन्)7/1. एव (अ)=ही. च (अ)=ौर संतुष्टस्तस्य [संतुष्ट:) + (तस्य)] संतुष्टः (सम्-तुष्-+संतुष्ट) भूक 1/1. तस्य (तत्) 6/1 स. कार्य न [(कार्यम्) + (न)] कार्यम्
(कार्य) 1/1. न (अ)= नहीं. विद्यते (विद्) व 3/1 अक 28. नैव [(न) + (एव)] न (अ)= नहीं. एव (अ)=भी. तस्य (तत)
6/1 स. कृतेनाओं नाकृतेनेह [(कृतेन) + (यर्थः) + (न) - (अकृ
-
4. ब (वि) : समास के अन्त में प्रयुक्त ।
चयनिका
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कृतेन
( कृकृत ) भूकृ 3/1.
तेन ) - ( इह ) ] 1 / 1. न ( प्र ) = नहीं. प्रकृतेन ( प्र - कृ प्रकृत) भूकृ 3 / 1. इह ( अ ) = इस लोक में कश्चन (क: +. चन 1 ) कः ( किम् + चन) 1/1 सविन ( प्र ) = नहीं चास्य [ (च) + ( ग्रस्य ) ] 'चं ( प्र ) = निस्सन्देहअस्य (इदम्) 6 / 1 स. सर्वभूतेषु [ ( सर्व ) - (भूत) 7/3] कश्चिदर्थव्यपाश्रयः [ ( कश्चित् ) + (अर्थ) + (व्यपाश्रयः ) ] कश्चित् ( कः + चित् ' ) कः ( किम् + चित्) सवि [(अर्थ) - (व्यपाश्रय) 1/1 वि]
1 / 1
-
29 तस्मादसक्तः [ ( तस्मात्) + (प्रसक्त: ) ] तस्मात् ( अ ) = इसलिए. असक्त: ( असक्त ) 1/1 वि. सततं कार्यं कर्म [ ( सततम्) + ( कार्यम् + कर्म) ] सततम् (अ) | === लगातार कार्यम् (कृ + कार्य) विधि कृ 2/1. कर्म (कर्मन्) 2/1. समाचर ( सम्-प्रा- चर् ) प्राज्ञा 2/1 सक असतो ह्याचरन्कर्म [ (असक्तः) + (हि) + (प्रचारन्) + (कर्म)] प्रसक्तः (प्रसक्त) 1 / 1 वि. हि (प्र) = क्योंकि. प्राचरन् (ग्रा-चर् → प्राचरत् ) वकृ 1/1. कर्म (कर्मन् ) 2 / 1. परमाप्नोति [ ( परम्) + ( प्राप्नोति ) ] परम् (पर) 2 / 1. प्राप्नोति ( प्राप्) व 3 / 1 सक. पुरुष: ( पुरुष ) 1/1 30. कर्मणैव [ ( कर्मणा ) + (एव)] कर्मणा ( कर्मन् ) 3 / 1 एव ( अ ) = ही . हि ( अ ) = इसलिए संसिद्धिमास्थिता जनकादय: [ ( संसिद्धिम्) + (प्रस्थिताः) + ( जनकादयः) ] संसिद्धिम् (संसिद्धि) 2 / 1 ग्रास्थिताः 1 ( श्रा-स्था प्रास्थित ) भूकृ 1 / 3. जनकादय: ( जनकादि ) 1 / 3. लोकसंग्रहमेवापि [ ( लोकसंग्रहम्) + (एव) + (अपि)] लोकसंग्रहम्
1. प्राय: 'अनिश्चय' अर्थ प्रकट करने के लिए 'किम्' के साथ 'चन' या चित् जोड़ दिया जाता है । ( प्राप्टे-संस्कृत हिन्दी कोष ) .
1. यह कर्तुं वाच्य में भी प्रयुक्त होता है ।
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ग्रर्थः (अर्थ)
:
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.
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(लोकसंग्रह)2/1. एव (अ)=केवल. अपि (अ)= भी. संपश्यन्कर्तुमर्हसि [(संपश्यन्) + (कर्तुम्) + (अर्हसि)] संपश्यन् (सम्-दृश्-+संपश्यत्) वकृ 1/1. कर्तुम् (कृ--कर्तुम्) हेकृ. अर्हसि (अर्ह,) व 2/1 अक.
31. यद्यदाचरति [(यत्) + (यत्) + (प्राचरति)] यत् (यत्) 2/1 सवि.
प्राचरति (मा-चर्) व 3/1 सक. श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः [(श्रेष्ठः) + (तत्) + (तत्) + (एव) + (इतरः)+ (जनः)] श्रेष्ठः (श्रेष्ठ) 1/1 वि. तत् (तत्) 2/1 सवि. एव (अ)=ही. इतरः (इतर) 1/1 वि. जनः (जन)1/1. स यत्प्रमाणं कुरुते [(सः) + (यत्)+ (प्रमाणम्) + (कुरुते)] सः (तत्) 1/1 सवि. यत् (यत्) 2/1 सवि. प्रमाणम् (प्रमाण)2/1. कुरुते (कृ) व 3/1 सक. लोकस्तवनुवर्तते [(लोकः)+ (तत्) + (अनुवर्तते)] लोकः (लोक) 1/1. तत् (तत्) 2/1 सवि. अनुवर्तते (अनु-वृत्) व 3/1 सक.
32. न (अ)=नहीं मे (अस्मद्) 4/1 स पार्थास्ति [(पार्थ) + (अस्ति)]
पार्थ (पार्थ)8/1. अस्ति (अस्) व 3/1 प्रक. कर्तव्यं त्रिषु [(कर्तव्यम्) + (त्रिषु)] कर्तव्यम् (कर्तव्य) 1/1. त्रिषु (त्रि) 7/3. लोकेषु (लोक) 7/3 किंचन (किम् + चन) 1/1 सवि नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव [(न) + (अनवाप्तम्) + (अवाप्तव्यम्) + (वर्त) + (एव)] न (प्र)=नहीं. अनवाप्तम् (मन्-प्रव-प्राप्-+अन्-प्रव-प्राप्त अनवाप्त) भूक 1/1. अवाप्तव्यम् (भव-प्राप्-+प्रव-प्राप्तव्यअवाप्तव्य) विधि कृ 1/1. वर्ते (वृत) व 1/1 अक. एव (म)=ही च (अ)=यद्यपि कर्मरिण (कर्मन्) 7/1
1. सर्वनाम 'किम्' के साथ प्रयुक्त होकर मनिश्चयात्मक अर्थ को व्यक्त करता है।
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33. यदि (अ)= यदि एहं न [(हि) ! (अहम्) + (न)] हि (अ)= ही
अहम् (अस्मद) 1/1 स. न (अ)= नहीं. वर्तेयं जातु [(वर्तेयम्) + (जातु)] वर्तेयम् (वृत्) विधि 1/1 अक. जातु (अ)=किसी समय. कर्मण्यतन्द्रितः [(कर्मणि) + (अतन्द्रितः)] कर्मणि (कमन्) 7/1. अतन्द्रितः (अतन्द्रित) 1/1 वि. मम (अस्मद्) 6/1 स. वानुवर्तन्ते [(वर्म)+(अनुवर्तन्ते)] वर्त्म (वर्मन्) 2/1. अनुवर्तन्ते (अनु-वृत्) व 3/3 सक. मनुष्याः (मनुष्य) 1/3. पार्थ (पार्थ) 8/1 सर्वशः
(अ)= सर्वत्र. 34. सक्ताः (सञ्-सक्त) भूक 1/3 कर्मण्यविद्वांसो यथा [(कर्मणि) +
(अविद्वांमः)+(यथा)] कर्मणि (कर्मन्) 7/1. अविद्वांसः (अ-विद्वस्) 113 वि. यथा (अ)=जैसे. कुर्वन्ति (कृ) व 3/3 सक भारत (भारत) 8/1. कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुलौकसंग्रहम् [(कुर्यात्) + (विद्वान्)
+ (तथा) + (असक्तः). (चिकीर्षुः) + (लोकसंग्रहम्)] कुर्यात् (क) विधि 3/1 सक. विद्वान् (विद्वस्) 1/1 वि. तथा (अ)=वैसे ही. असक्तः (म-सञ्ज--प्रसक्त) भूकृ 1/1. चिकीर्षुः (चिकीर्षु) 1/1 वि.
लोकसंग्रहम् (लोकसंग्रह) 2/1. 35. न (अ)=नहीं बुद्धिमेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् [(बुद्धिभेदम्) +
(जनयेत्) + (प्रज्ञानाम्) + (कर्मसङ्गिनाम्)] बुद्धिभेदम् [(बुद्धि)
(भेद) 2/1]. जनयेत् (जन्:-+जनय) प्रे विधि 3/1 सक. अज्ञानाम्
1. वर्तमानकाल का प्रयोग भविष्यत् अर्थ में । 2. 'चिकीषु' का प्रयोग द्वितीया के साथ होता है। (Monier-Williams,
Sans-Eng Dictionary, P 394, col. III) 3. अन् मादि कुछ धातुमों के उपान्त्य स्वर के 'म' को 'मा' नहीं होता है।
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गोता
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( अज्ञ ) 6/3 वि. कर्मसङ्गिनाम् [ ( कर्म ) - ( सङ्गिन् ) 6/3 वि]. प्रे
जोषयेत्सर्वकर्माणि [ ( जोषयेत्) + (सर्वकर्माणि ) ] जोषयेत् ( जुष → जोषय्) प्रे. विधि 3 / 1 सक. सर्वकर्मारिण [ (सर्व) - (कर्मन् ) 2/3]. विद्वान्युक्तः [ (विद्वान्) + (थुक्त:)] विद्वान् (विद्वस् ) 1 / 1 वि युक्त: ( युक्त) 1/1 समाचरन् ( सम्-आचर्+सम्-प्र-चरत्) वकृ 1 / 1
कर्म
-
36. प्रकृतेः (प्रकृति) 6 / 1 क्रियमाणानि (कृ + क्रियक्रियमाण) वकृ कर्म 1 / 3. गुणैः (गुण) 3/3 कर्माणि (कर्मन् ) 1 / 3 सर्वशः ( प्र ) = सर्वत्र अहंकारविमूढात्मा [ ( अहंकार ) + ( विमूढ ) + (श्रात्मा)] [(अहंकार)( विमूढ) भूकृ - ( प्रात्मन्) 1 / 1 कर्ताहमिति [ (कर्ता) + ( अहम् ) + (इति) ] कर्ता (कृर्तृ) 1 / 1 वि. अहंम् (अस्मद् ) 1 / 1 स. इति (अ) - इस प्रकार मन्यते (मन्) व 3 / 1 सक
-
)
37. तत्त्ववित्तु [ ( तत्त्वविद्) + (तु)] तत्त्वविद् (तत्वविद् ) 1 / 1 वि. तु ( अ ) = किन्तु महाबाहो ( महाबाहु 8/1 गुरणकर्मविभागयोः [ ( गुरण) - (कर्म) - ( विभाग ) 6 / 2] गुरणा गुणेषु [ ( गुणाः) + (गुणेषु) ] गुणाः (गुण) 1 / 3. (गुरण) 7/3. वर्तन्त इति ( वर्तन्ते) + (इति) ] वर्तन्ते (वृत्) व 3 / 3 श्रक इति ( अ ) - इस प्रकार. मत्वा (मन्) पूकृ न (प्र) = नहीं सज्जते (सज्ज्) व 3 / 1 प्रक.
गुणेषु
=
38. प्रकृतेर्गुणसंमूढाः [ ( प्रकृते :) + ( गुणसं मूढा:)] प्रकृतेः (प्रकृति) 6 / 1. गुणसंमूढा: [ ( गुण) - (सम्-मुह, संमूढ) भूकृ 1 / 3]. सज्जन्ते ( सज्ज्) व 3 / 1 ग्रक गुणकर्मसु [ ( गुरण ) - (कर्म) 7/3] तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न [ (तान्) + (प्रकृत्स्नविदः) + ( मन्दान्) + ( कृत्स्नविद् ) + (न)] तान् (तत्) 2 / 3 स प्रकृत्स्नविद [ ( प्रकृत्स्न) वि- (विदर)
aapoor
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213 वि]. मन्दान् (मन्द) 2/3 वि. कृत्स्नविद् [(कृत्स्न) वि-(विद्!)
1/1 वि) न (अ)=न. विद्यालयेत् (वि-चल-वि-चालय) विधि
3/1 सक. 39. इन्द्रियाणि (इन्द्रिय) 1/3 पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः [(पराणि)+(माहुः)
+ (इन्द्रियेभ्यः)] पराणि (पर) 1/3 वि. ग्राहुः (बू) व 3/3 सक. इन्द्रियेभ्यः (इन्द्रिय) 5/3. परं मनः [(परम्) + (मनः)] परम् (पर) •1/1 वि. मनः (मनस्) 1/1. मनसस्तु [(मनसः)+(तु)] मनसः
स्त्री (मनस्)5/1. तु (अ)=ौर. परा (पर-+परा) 1/1 वि बुद्धिर्यो दुखः [(बुद्धिः) + (यः) + (बुद्धः)] बुद्धिः (बुदि) 1/1. यः (यत्) 1/1 सवि. बुद्धः (बुद्धि) 5/1. परतस्तु [(परतः) + (तु)] परत: (अ)=परे.
तु (प्र)=तथा सः (तत्) 1/1 सवि. 40. किं कर्म [(किम्) + (कर्म)] किम् (किम्) 1/1 सवि. कर्म (कर्मन्)
1/1. किमकर्मेति [(किम्) + (अकर्म) + (इति)] किम् (किम्)1/1 सवि. अकर्म (म-कर्मन्) 1/1. इति (अ)=शब्दस्वरूप द्योतक. कवयोऽप्यत्र [(कवयः) + (अपि) + (अत्र)] कवयः (कवि) 1/3. अपि (अ)=भी. अत्र (अ)= इस संबंध में मोहिताः (मुह -+मोहित) भूकृ 1/3 तत्ते [(तत्) + (त)] तत् (तत्) 2/1 सवि. ते (युष्मद्) 4/1 स कर्म (कर्मन्) 2/1 प्रवक्यामि (प्र-वच्) भवि 1/1 सक यज्ञात्वा [(यत्) + (ज्ञात्वा)] यत् (यत्) 2/1 सवि. ज्ञात्वा (ज्ञा) पूकृ. मोक्यसेऽशुभात् [(मोक्ष्यसे) + (अशुभात्)] मोक्ष्यसे (मुच्) भवि 2/1 सक. प्रशुभात (अशुभ) 5/1.
1. विद् (वि) : समास के अन्त में प्रयुक्त होता है ।
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गीता
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41. कर्मणो ह्यपि [ ( कर्मणः) + (हि) + (अपि)] ( कर्मणः कर्मन् ) 6/1.
हि ( अ ) = क्योंकि . अपि (अ) – भी. बोद्धव्यं बोद्धव्यं च [(बोद्धव्यम्) + (बोद्धव्यम्) + (च)] बोद्धव्यम् (बुध् + बोद्धव्य) विधि कृ 1 / 1. बोद्धव्यम् (बुध+बोद्धव्य ) विधि कृ 1 / 1. च ( प्र ) - और विकर्मरणः ( विकर्मन् ) 6/1 अकर्मणश्च [ ( अकर्मणः) + (च)] अकर्मण: (प्रकर्मन् ) 6/1. च (अ) = और. बोद्धव्यं गहना [ ( बोद्धव्यम्) + (गहना) ] स्त्री
बोद्धव्यम् (बुध→ बोद्धव्य ) विधि कृ 1 / 1. गहना ( गहन + गहना ) 1 / 1 वि. कर्मणो गतिः [ ( कर्मणः ) + (गतिः) ] कर्मण: (कर्मन् ) 6 / 1. गतिः (गति) 1 / 1.
42. कर्मण्यकर्म [ ( कर्मणि) + (अकर्म ) ] कर्मरिण (कर्मन् ) 7/1. अकर्म ( अकर्मन् ) 2 / 1 य: (यत्) 1 / 1 सवि. पश्येदकर्मरिण [ ( पश्येत्) + (करण ) ] पश्येत् (श्) विधि 3 / 1 सक. अकर्मरिण (प्रकर्मन् ) 7/1. च ( अ ) = श्रौर कर्म (कर्मन् ) 2 / 1 य: (यत्) 1/1 सवि स बुद्धिमान्मनुष्येषु [ (सः) + (बुद्धिमान्) + (मनुष्येषु ) ] सः (तत्) 1 / 1 सवि. बुद्धिमान् (बुद्धिमत् ) 1 / 1 वि. मनुष्येषु (मनुष्य) 7/3. स युक्तः [ (सः) + ( युक्तः ) ] सः (तत्) 1 / 1 सवि. युक्त: (युक्त) 1/1. कृत्स्नकर्मकृत् [(कृत्स्न) वि - (कर्मन् कर्म ) - (कृत् 2 ) 1 / 1 वि]
43. यस्य (यत्) 6 / 1 सर्वे (सर्व) 1 / 3 वि समारम्भाः ( समारम्भ) 1/3 कामसंकल्पवजिताः [[ (काम) – (संकल्प) – (वृज् + वर्जित) भूकृ
1 / 3] वि] ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधा [ (ज्ञान) + (अग्नि) + (दरघ) + (कर्मारणम्) + (तम्) + (प्राहु:) + (पण्डितम् )
1.
कृत् (वि) : समास के अन्त में प्रयुक्त होता है ।
चयनिका
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+ (बुधाः)] [[(ज्ञान)-(अग्नि)- (दह, -+दग्ध) भूक-(कर्म) 2/1] वि] तम् (तत्) 2/1 सवि. पाहुः (ब्रू) 313 सक. पण्डितम्
(पण्डित) 2/1. बुधाः (बुध) 1/3 वि... 44. त्यक्त्वा (त्यज्) प्रकृ कर्मफलासङ्ग नित्यतृप्तो निराश्रयः [(कर्म) +
(फल) + (प्रासङ्गम्) + (नित्यतृप्तः) + (निराश्रयः)] [(कर्मन्कर्म)-(फल)-(प्रासङ्ग) 2/1]. नित्यतृप्तः [ (नित्य)-(तृप् -+ तृप्त) भूकृ 1/1]. निराश्रयः (निराश्रय) 1/। वि. कर्मयभिप्रवृत्तोऽपि [(कर्मणि) + (अभिप्रवृत्तः) + (अपि)] कर्मणि' (कर्मन्) 7/1. अभिप्रवृत्तः (अभि-प्र-वृत्-+अभि-प्र-वृत्त) भूकृ 1/1. अपि (प्र)= भी. नैव [(न) + (एव)] न .(अ)== नहीं. एव (प्र)= भी. किंचित्करोति [(किंचित्) + (करोति) ]किंचित् (किम् + चित्1)
2|| सवि. करोति (कृ) व 3/1 सक. सः (तत्) 1/1 सवि. 45. निराशीयतचित्तात्मा [(निराशीः) + (यतचित्तात्मा)] निराशीः
(निराशिष्) 1/1 वि यतचित्तात्मा [(यत) + (चित्त) + (प्रात्मा)] [(यम्-+यत) भूक-(चित्त)-(प्रात्मन्) 1/1] त्यक्तसर्वपरिग्रहः [(त्यज्-+त्यक्त) भूक-(सर्व) वि-(परिग्रह) 1/1] शारीरं केवलं कर्म [(शारीरम्) + (केवलम्) + (कर्म)] शारीरम् (शारीर) 2/1 वि. केवलम् (प्र)=केवल. कर्म (कर्मन्) 2/1. कुर्वन्नाप्नोति [कुर्वन्) + (न) + (प्राप्नोति)] कुर्वन् (कृ+कुर्वत) व 1/1. न (म)=नहीं. आप्नोति (प्राप्) व 3/1 सक. किल्बिषम् (किल्बिष) 2/1
1. किम् और किम् से व्युत्पन्न अन्य शब्दों के साथ जुड़ने वाला अव्यय, जिससे अर्थ
में मनिश्चयात्मकता माती है ।
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गीता
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46. महच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः [(यदृच्छालाभसन्तुष्ट) +
(द्वन्द्वातीतः) + (विमत्सर)] यदृच्छालाभसन्तुष्ट: [यहच्छा)- (लाभ) -(संतुष्--संतुष्ट) भूकृ 1/1]. द्वन्द्वातीतः [(द्वन्द्व) + (अतीतः)] [(द्वन्द्व)-(प्रतीत) 1/1 वि] विमत्सरः (विमत्सर) 1/1 वि. समः (सम) 1/1 वि सिद्धावसिद्धौ [ (सिदी) । (प्रसिदी)]सिद्धी (सिद्धि) 7/1. प्रसिद्धौ (प्रसिद्धि) 7/1. च (अ)=तथा कृत्वापि[ (कृत्वा) + (प्रपि)] कृत्वा (कृ) पूकृ. अपि (प्र)=भी. न (म)= नहीं. निबध्यते (नि-बन्ध्) व कर्म 3 || सक.
47. यथेषांसि [ (यथा) + (एधांसि)] यथा (अ)-- नसे. एधांसि (एधस्)
2/3. समिखोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन [(समिदि.) + (अग्निः) + (भस्मसात्) + (कुरुते) + (अर्जुन)] समिद (सम्-इन्ध-सम्इद) भूकृ 1/1. अग्निः (अग्नि) 1|| भस्मसात् (अ)= राखरूप. कुरुते (कृ) व 3/1 सक. अर्जुन (अर्जुन)8/1. ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि [(ज्ञानाग्निः) + (सर्वकर्माणि)] ज्ञानाग्निः [(ज्ञान) + (अग्निः)] [(ज्ञान)- (अग्नि) 1/1] सर्वकर्माणि [(सर्व)- (कर्मन्) 2/3] भस्मसात्कुरुते [(भस्मसात्) + (कुरुते)] भस्मसात् (प्र)=नष्ट. कुरुते (कृ) व 3/1 सक. तवा (म)=वैसे ही.
48. न (प्र)= नहीं हि (प्र) =निस्सदेह ज्ञानेन (ज्ञान) 3/1 सदृशं
पवित्रमिह [(सदशम्) + (पवित्रम्) + (इह)] सदृशम् (सहा) 1/1 वि. पवित्रम् (पवित्र) ।|| वि इह (प्र)=इस लोक में. विद्यते (विद्) व 3/1 प्रक. तत्स्वयं योगसंसिरः [(तत्) + (स्वयम्) +
1. समानार्थवाचक तुल्य, सहश मादि शब्दों के योग में तृतीया या षष्ठी होती है।
चय निका
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I
(योगसंसिद्धः)] तत् (तत्) 2/1 स. स्वयम् (म)= अपने प्राप. योगसंमितः[ (योग)-(सम्-सिष्+संसिढ) भूकृ 1/1]. कालेनारमनि [(कालेन) + (प्रात्मनि)]कालेन (प्र)=समय पर. अात्मनि (मात्मन्)
7/1. विन्दति (विद्) व 3/1 सक. 49. अशावाल्लभते [(श्रद्धावान्) + (लभते)] श्रद्धावान् (श्रद्धावत्) 1/1
वि. लभते (लम्)व 3/1 सक. जानं तत्परः [(ज्ञानम्) + (तत्परः)] ज्ञानम् (ज्ञान)2/1. तत्परः। (तत्पर)1/1 वि. संयतेन्द्रियः [ (संयत) + (इन्द्रियः)] [ (सम्-यम्+संयत) भूक-(इन्द्रिय) 1/1] ज्ञानं लब्ध्वा [ (ज्ञानम्) + (लब्ध्वा )] ज्ञानम् (ज्ञान)2/1. लब्ध्वा (लम्) प्रकृ. परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति [(पराम्) + (शान्तिम्) +
स्त्री . (अचिरेण) + (अधिगच्छति)] पराम् (पर-परा) 2/1 वि. शान्तिम् (शान्ति) 2/1. अचिरेण (अ)= तुरन्त. अधिगच्छति (अधिगम्) व
3/| सक. 50 अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च [(प्रज्ञः) - (च) + (प्रश्रद्दधानः) + (च)] अज्ञः
(अज्ञ) 1/1 वि. च (म)=ौर. प्रश्रद्दधानः (प्रश्रद्दधान) 1/1 वि. च (अ)=तथा. संशयात्मा (संशयात्मन्) 1/1 वि. विनश्यति (विनश्) व 3/1 अक. नायं लोकोऽस्ति [ (न) + (प्रयम्) + (लोकः) + (अस्ति) ] नहीं (अ)=न. अयम् (इदम्) 1/1 सवि. लोकः (लोक) 1/1. अस्ति (अस्) व 3/1 अक. न (अ)=नहीं. परो न [(परः) + (न)] पर (पर)1/1 वि. न (अ)=न. सुखं संशयात्मनः [(सुखम्) +(संशयात्मनः)] सुखम् (सुख) 1/1. संशयात्मनः (संशयात्मन्)] 6/1 वि.
!
1. तत्पर=उसमें संलग्न
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31. योगसंन्यस्तकर्माएं मानसंचिन्नसंशयम्[(योगसंन्यस्तकर्माणम्) + (ज्ञान
संछिन्नसंशयम्)] योगसंन्यस्तकर्माणम्[[(योग)-(संनि-अस्-+संन्यस्त) भूक-(कर्मन्) 2/1] वि]. मानसंछिन्नसंशयम् [[(ज्ञान)-(सम्-छिद्+ संछिन्न)भूक-(संशय)2/1]विमात्मवन्तं न[(मात्मवन्तम्) + (न)] मात्मवर - प्रात्मवत्) 2/1 वि. न (म)= नहीं कर्माणि (कर्मन्) 1/3 निबध्नन्ति (
निबन्ध) व 3/3 सक धनञ्जय (धनञ्जय) 8/1. 52. संन्यासः (संन्यास) 1/1 कर्मयोगश्च [(कर्मयोगः) + (च)] कर्मयोगः
(कर्मयोग) 1/1. च (म)=ोर. निःश्रेयसकरावुभौ [(निःश्रेयसकरी) + (उभौ)] निःश्रेयसकरी (निःश्रेयसकर') 1/2 वि उभौ (उभ) 1/2 सवि. तयोस्तु [(तयोः) + (तु)] तयोः (तत्) 7/2 स. तु (म)=तो भी. कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते [ (कर्मसंन्यासात्) + (कर्मयोगः) + (विशिष्यते)] कर्मसंन्यासात् [ (कर्मन्+कर्म)- (संन्यास) 5/1]. कर्मयोगः (कर्मयोग) 1/1. विशिष्यते (वि-शिष्) व कर्म 3/1 सक. 53. सांख्ययोगौ [(सांख्य)-(योग) 212] पृथग्बालाः [(पृथक्) +
(बालाः)] पृथक् (अ)=भिन्न. बालाः (बाल) 1/3 वि. प्रवदन्ति (प्र-वद्) व 3/3 सक न (अ)= नहीं पण्डिताः (पण्डित) 1/3 वि एकमप्यास्थितः [(एक म्) + (अपि) + (प्रास्थितः)] एकम् (एक)2/1 सवि. अपि (प्र)== भी. आस्थितः (मा-स्था-+पास्थित) भूक 1/1. सम्यगुभयोविन्दते [(सम्यक्) + (उभयोः) + (विन्दते)] सम्यक् (अ)= पूर्णतः . उभयोः (उभय) 6/2 सवि. विन्दते (विद्) व 3/1 सक. फलम् (फल.) 2/1..
1. कर (वि): समास के पन्त में प्रयुक्त होता है।
चयनिका ]
[
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54. यत्साल्यः [(यत्) + (सांख्यैः)] यत् (यत्) ..| सवि. सांख्यैः (सांख्य)
3/3. प्राप्यते (प्र-प्राप्) व कर्म 3/1 सक स्वानं तद्योगैरपि [(स्थानम्) + (तत्)+ (योगः)+ (पपि)] स्थानम् (स्थान) 1/1.. तत् (तत्) 1/1 सवि. योगः (योग) 3/3. अपि (म)= भी. गम्यते (गम्) व कर्म 3/1 सक. एकं सांख्यं च योगं च [(एकम्)+ (सांख्यम्) +(च)+(योगम्)+(च)] एकम् (एक) 2/1 सवि. सांस्यम् (सांख्य) 2 | !. च (अ)= और. योगम् (योग) 2/1. यः (यत्) 1/1 सवि. पश्यति (दृश्) व 3/1 सकस पश्यति [(सः) + (पश्यति)] सः
(तत्) 1/1 सवि. पश्यति (दृश्) व 3/1 सक. 55. ब्रह्मण्यापाय [(ब्रह्मणि) + (प्राधाय)] ब्रह्मरिण (ब्रह्मन्) 7/1. आषाय
(पा-धा+प्राधाय) पूकृ. कर्माणि (कर्मन्) 2/3. सङ्ग त्यक्त्वा [(सङ्गम्)+ (त्यक्त्वा )] सङ्गम् (सङ्ग) 2/1. त्यक्त्वा (त्यज्) पूक. करोति (क) व 3/1 सक य. (यत्) 1/1 मवि लिप्यते (लिप्) व कर्म 3/1 सक न (अ)=नहीं स पापेन [(सः)+ (पापेन)] सः (तत्) 1|| सवि. पापेन (पाप) 3/1 पद्मपत्रमिवाम्भसा [(पापत्रम्) + (इव) + (अम्भमा)] पद्मपत्रम् [(प)-(पत्र) 1/1]. इव (प्र) =जैसे.
अम्भसा (अम्भस्) 3/1. 56. युक्तः (युक्त) 1/। कर्मफलं त्यक्त्वा [(कर्मफलम्) + (त्यक्त्वा )] .
कर्मफलम् [(कर्म)-(फल) 2/1]. त्यक्त्वा (त्यज्) पू. शान्तिमाप्नोति [(शान्तिम्) + (प्राप्नोति)] शान्तिम् (शान्ति) 2/1. प्राप्नोति (प्राप्) ।
स्त्री व 3/1 सक. नैष्ठिकीम् (नैष्ठिक-नैष्ठिको) 2/1 वि प्रयुक्तः(प्रयुक्त) 1/1 वि कामकारेण (कामकार) 3/1 वि फले (फल) 7/1 सक्तो निबध्यते [(सक्तः) + (निबध्यते)] सक्तः (स -+सक्त) भृक 1/1. निबध्यते (निबन्ध) व कर्म 3/1 सक.
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7. सर्वकर्माणि [ ( सर्व ) - ( कर्मन् ) 2 / 3] मनसा (मनस् ) 3 / 1 सन्यस्यास्ते [ ( संन्यस्य) + (श्रास्ते ) ] संन्यस्य (संनि- प्रस् संन्यस्) पूकृ. प्रास्ते (प्रास्) व 3 / 1 प्रक. सुखं वशी [ ( सुखम् ) + (वशी)] सुखम् (क्रिविप्र ) = प्रसन्न -तापूर्वक वशी ( वशिन् ) 1 / 1 वि. नवद्वारे [ ( नव) - ( द्वार)
●
7/1] पुरे (पुर) 7/1 बेही (देहिन् ) 1/1 न ( अ ) = नहीं. एव (प्र) = ही.
कुर्वन्न
वि नव [ (न) + (एव) ]
[( कुर्वन्) + (न)] कुर्वन्
प्रे.
(कृ→ कुर्वत्) वकृ 1 / 1. न ( अ ) = नहीं कारयन् (कृ→कारय् कारयत्) प्रे. वकु 1 / 1.
8. ज्ञानेन (ज्ञान) 3 / 1 तु (प्र) = तो तवज्ञानं येषां नाशितमात्मनः [ (तत्) + (प्रज्ञानम्) + (येषाम्) + ( नाशितम्) + (आत्मनः ) ] (तत्) 1 / 1 सवि. प्रज्ञानम् ( अज्ञान ) 1 / 1. येषाम् (यत्) प्रे. नाशितम् (नश्नाशय् + नाशित) भूकृ 1 / 1. श्रात्मन: (प्रात्मन्) 6/1 तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति [ (तषाम्) + (प्रादित्यवत्) + ( ज्ञानम्) + ( प्रकाशयति ) ] तेषाम् (तत्) 6 / 3 स. प्रादित्यवत् 1 ( प्र ) = प्रे.
सूर्य के समान ज्ञानम् (ज्ञान) 1 / 1. प्रकाशयति ( प्र - काश् + प्रकाशय् ) प्रे. व 3/1 सक. तत्परम् [ (तत्) + (परम् ) ] तत् (तत्) 2 / 1 सवि परम् (पर) 2 / 1 वि.
9. तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः [(तत्) + (बुद्धयः) + (तत्) + ( श्रात्मानः ) + (तत्) + (निष्ठाः) + (तत्) + (परायणाः ) ]
तत्
6/3 स.
1. 'समानता' धर्म को प्रकट करने के लिए संज्ञा या विशेषण शब्दों के साथ 'बत्' जोड़ दिया जाता है और ऐसे शब्द अव्यय हो बाते हैं ।
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[[ (तत्) - (बुद्धि) 1/3] वि] [[ (तत्) - ( म्रात्मन्) 1/3] वि] [[ (तत्) - (निष्ठ) 1/3] वि] [[ (तत्) - ( परायण) 1 / 3] बि] गच्छन्त्यपुनरावृति ज्ञाननिर्धूतकल्मषा: [ ( गच्छन्ति ) + (प्रपुनरावृत्तिम्) + (ज्ञाननिघू तकल्मषाः ) ] गच्छन्ति ( गम् ) व 3/3 सक. अपुनरावृत्तिम् ( पुनरावृत्ति ) 2 / 1. शाननिर्धूतकल्मषा: [[ (ज्ञान) - (निर्घू निघू त ) भूकृ - ( कल्मष ) 1/3] वि]
--
60. इहैव [ ( इह्) + (एव) ] इह (अ) तैः (तत्)
- इस लोक में. एव ( प्र . ) = ही. 3/3 स. जित: (जि. + जित) [ ( सर्गः ) + (येषाम्) + (साम्ये ) ] सर्गः
साम्ये
तैजित: [ (तैः) + ( जित: ) ] भूक 1 / 1. सर्वो येषां साम्ये ( सर्ग) 11. येषाम् (यत्) 6 / 3 स. ( साम्य ) 7/1. स्थितं मन: [ ( स्थितम्) + ( मन )] स्थितम् (स्था स्थित ) भूकृ 1 / 1. मनः (मनस् ) 1/1 निर्दोषं हि [ ( निर्दोषम् ) + (हि)] निर्दोषम् (निर्दोष) | / वि. हि ( अ ) = चूंकि समं ब्रह्म [ ( समम्) + (ब्रह्म)] समम् (सम) 1 / 1 वि. ब्रह्म ( बह्मन्) 1 / 1. तस्माद्ब्रह्मरिण [ ( तस्मात्) +(ब्रह्मरिण ) ] तस्मात् (प्र) = इसलिए. ब्रह्मरिण (ब्रह्मन्) 7/1 ते (तत्) 1 / 3 सवि स्थिताः (स्था स्थित ) भूकृ 1 / 3.
61. न ( प्र ) = नहीं प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य [ ( प्रहृष्येत्) + (प्रियम्) + ( प्राप्य ) ] प्रहृष्येत्' (प्र- हृष्) विधि 3 / 1 ग्रक. प्रियम् ( प्रिय) 2 / 1 वि. प्राप्य (प्र-प्राप्) पूकृ. नोद्विजेत्प्राप्य [ (न) + (उद्विजेत्) + ( प्राप्य) ] न ( अ ) = नहीं. उद्विजेत् 2 ( उद् - विज्) विधि 3 / 1 प्रक. प्राप्य (प्रप्राप्) पूकृ. चाप्रियम् ( (च) + (अप्रियम् ) ] च (व) = और. प्रप्रियम् (अप्रिय ) 2 / 1 वि. स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविब्रह्मरिण [ ( स्थिरबुद्धिः )
1. भविष्यकाल की अभिव्यक्ति कभी-कभी विधिलिङ् द्वारा भी होती है । 2. बिदु (वि) : समास के अन्त में प्रयुक्त होता है ।
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[ गीता
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+ (असंभूढः) + (ब्रह्मविद्) (ब्रह्मणि)] स्थिरबुद्धिः (स्थिरबुद्धि) 1/1 वि. प्रसंमूढः (प्र-संमूढ) I|| वि. ब्रह्मविद् (ब्रह्मविद) 1/1
वि ब्रह्मणि (ब्रह्मन्) 7/1]. स्थितः (स्था+स्थित) भूक 1/1. 62. बाह्यस्पर्शज्यसत्तात्मा [(बाह्यस्पर्शेषु) + (प्रसक्तात्मा)] बाह्यस्पर्शेषु
[(बाह्य) वि-(स्पर्श) 7/3]. असक्तात्मा [(असक्त) + (प्रात्मा)] [(प्रसञ्--प्रसक्त) भूक-(प्रात्मन्) 1/1] विन्दत्यात्मनि [(विन्दति) + (मात्मनि)] विन्दति (विद) व 3/1 सक. प्रात्मनि (पात्मन्) 7/1 यत्सुलम् [(यत्) + (सुखम्)] यत् (यत्) 2/1 सवि. सुबम् (सुख) 2/1. स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा [(सः) + (ब्रह्मयोगयुक्तात्मा)] सः (तत्) 1/| सवि. ब्रह्मयोगयुक्तात्मा [(ब्रह्मयोग) + (युक्त) + (आत्मा)] [(ब्रह्मयोग)-(युज्–युक्त) भूक-(प्रात्मन्) 1/1]. सुखमक्षयमश्नुते [(सुखम्) + (अभयम्) + (प्रश्नुते)] सुखम् (सुख)
2/1 प्रक्षयम् (अभय) 2/1 वि. प्रश्नुते (प्रश्) व 3/1 सक. 63. योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तवान्तज्योतिरेव [(यः) + (अन्तः सुखः) +
(अन्तरारामः) + (तथा) + (अन्तज्योतिः) + (एव)] यः (यत्) 1/1 सवि. अन्तः सुखः [(अन्तर्)+(सुखः)] अन्तर् (अ)= आन्तरिक रूप से. सुखः (सुख) 1/1 वि. अन्तरारामः [(अन्तर्) + (पारामः)] अन्तर् (म)=पान्तरिक रूप से. मारामः (माराम) 1/1. तथा (प्र) =ौर. अन्तज्योतिः [(अन्तर्) + (ज्योतिः)] अन्तर् (प्र)=प्रान्तरिक रूप से. ज्योतिः (ज्योतिस्) 1/1. एव (म)=ही. यः (यत्) 1/1 सवि. स योगी [(सः) + (योगी)] सः (तत्) 1/1 सवि. योगी (योगिन्) 1/1. ब्रह्मानिर्वाणं ब्रह्ममूतोऽधिगच्चति [(ब्रह्मनिर्वाणम्) + (ब्रह्मभूतः) + (अधिगच्छति).] ब्रह्मनिर्वाणम् (ब्रह्म निर्वाण) 2/1. ब्रह्मभूतः (ब्रह्मभूत) 1/। वि. अधिगच्छत्ति (मधि
गम्) व 3/1 सक. चयनिका
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64. मभन्ते (नम्) 43/3सक ब्रह्मनिर्वाणमृषयः[(ब्रग्रनिर्वाणम्) + (ऋषयः)]
ब्रह्मनिर्वाणम् (ब्रह्मनिर्वाण)2/1. ऋषयः (ऋषि)1/3. क्षीरणकल्मषाः [[(क्षि+क्षीण) भूक-(कल्मष) 1/3] वि]. छिन्नदंषा यतात्मनः [(छिन्नद्वधाः) + (यतात्मानः)] छिन्नद्वं धाः [[(छिद-छिन्न) भूक(द्वंध) ।/3] वि] यतात्मानः [(यत) + (प्रात्मानः)] [[(यम्यत) भूक-(प्रात्मन्) 1/3] वि] सर्वभूतहिते [(सर्व) वि-(भूत)
(हित) 7/1] रताः (रम्+रत) भूक 1/3 । 65. यं संन्यासमिति [(यम्) + (संन्यासम्) + (इति)] यम् (यत्) 2/1
सवि. संन्यासम् (संन्यास) 2/1. इति (म)=शब्दस्वरूप द्योतक. प्राहुर्योगं तं विडि [(प्राहुः) + (योगम्)+ (तम्) + (विधि)] प्राहुः (प्र-बू) व 3/3 सक. योगम् (योग) 2/1. तम् (तत्)2/1. स विद्धि (विद्) प्राज्ञा 2/1 सक. पाण्डव (पाण्डव) 8/1. न (अ) नहीं घसंन्यस्तसंकल्पो योगी [(हि) + (प्रसंन्यस्तसंकल्पः) + (योगी)] हि (अ)=क्योंकि. असंन्यस्तसंकल्पः [(प्र-संनि-प्रस्+असंन्यस्त) भूक -(संकल्प) 1/1] योगी (योगिन्) 1/1. भवति (भू) व 3/1 अक
करचन [(कः + चन)] कः चन (किम् + चन') 1/1 स 66. यदा (म)=जब हि (म)=भी नेमियार्षेषु [(न) + (इन्द्रिय) +
(अर्थेषु)] न (अ)=नहीं. [(इन्द्रिय)-(अर्थ)7/3] न (म)= नहीं कर्मस्वनुषजते [(कर्मसु) + (मनुषज्जते)] कर्मसु (कर्मन्) 7/3. अनुषज्जते (अनु-सज्ज) व 3/1 अक. सर्वसंकल्पसंन्यासी [(सर्व)(संकल्प)-(संन्यासिन् 1/1 वि] योगारुडस्तदोच्यते [(योगास्टः) + (तदा) + (उच्यते)] योगास्टः (योगास्ट) 1/1. तदा (म)=तब. उच्यते (बू) व कर्म 3/1 सक.
1. 'किम्' के साथ प्रयुक्त होकर मनिश्वयात्मक पर्व को व्यक्त करता है।
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67. रखरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् [(उदरेद) + (प्रात्मना)+
(मात्मानम्)+ (न) + (मात्मानम्) + (अवसादयेत्)] उदरेत (उद्हृ +उद्-हरेत्-उद्धरेद) विधि 3 || सक. आत्मना (प्रात्मन्) 3/1. प्रात्मानम् (प्रात्मन्)2/1. न (प्र) = नहीं. प्रात्मानम् (प्रात्मन्)2/1.
अवसादयेत् (प्रव-सद्-+अवसादय) विधि 3/1 सक. प्रात्मैव [(मात्मा) + (एव)] प्रात्मा (प्रात्मन्) 1/1. एव (प्र)=ही. शात्मनो बन्धुरात्मैव [(हि) + (मात्मनः) + (बन्धुः) + (प्रात्मा)+ (एव)] हि (अ)=क्योंकि. प्रात्मनः (प्रात्मन्) 6/1. बन्धुः । (बन्धु) 1/1. प्रात्मा (प्रात्मन्) 1/1. एव (प्र)=ही. रिपुरात्मनः [ (रिपुः)+ .
(प्रात्मनः)] रिपुः (रिपु) 1/1. प्रात्मनः (प्रात्मन्) 6/1. 68. बन्धुरात्मात्मनस्तस्य [(बन्धुः) + (प्रात्मा) + (अात्मनः) + (तस्य)]
बन्धुः (बन्धु)1/1. प्रात्मा (प्रात्मन्) 1/1. प्रात्मनः (प्रात्मन्) 6/1. तस्य (तत्) 6/1 स. येनात्मैवात्मना [(येन) + (प्रात्मा)+ (एव) (प्रात्मना)] येन (यत्) 3/1. स प्रारमा (आत्मन्) 1/1. एव (म)=ही. प्रात्मना (प्रात्मन) 3/1. जितः (जि-जित) भूक 1/1. अनात्मनस्तु [(अनात्मनः)+(तु)] अनात्मनः (मनात्मन्) 6/1 वि. तु (अ)= किन्तु. शत्रुत्वे (शत्रुत्व) 7/1. वर्तेतात्मैव [ (वर्तेत)+ (आत्मा) + (एव)] वर्तेत' (वृत) विधि 3/1 प्रक. प्रात्मा (मात्मन्) 1/1. एव (प्र) =ही. शत्रुवत् (म)= शत्रु के समान .
1. भविष्यकाल की अभिव्यक्ति कभी-कभी विषिमिङ्ग के द्वारा भी होती है। 2. 'समानता' पर्थ को प्रकट करने के लिए संज्ञा या विशेषण शब्दों के साथ 'वत्'
बोड़ दिया जाता है और ऐसे शम्ब अम्यय हो जाते है।
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69. जितात्मनः [ ( जित) + ( श्रात्मनः ) | ( जि+जित) भूकृ- (आत्मन्)
6/1] प्रशान्तस्य (प्र-शम्+ प्रशान्त) भूकू 6 / 1 परमात्मा (परमात्मन् ) 1/1 समाहितः ( समाधानं समाहित) भूकृ 1 / 1 शीतोष्णसुखदुःखेषु [ (शीत) + (उष्ण) + (सुखदुःखेषु) ] [ (शीत) वि- (उष्ण) वि- (सुख) - (दु:ख ) 7/3] तथा (प्र) = एवं मानावमानयो: [ (मान) + ( प्रवमानयोः ) ] [ (मान) - ( प्रवमान) 7/2]
70. ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा
--
[ (ज्ञान) + (विज्ञान) + (तृप्त ) + ( आत्मा ) ] [ [ (ज्ञान) - (विज्ञान) - ( तृप् + तृप्त ) भूकृ ( म्रात्मन् ) 1/1] वि] कूटस्थो विजितेन्द्रियः [ ( कूटस्थ :) + (विजितेन्द्रिय:)] कूटस्थ (कुटस्थ ) 1 / 1 वि. विजितेन्द्रियः (वि- जितेन्द्रिय) 1 / 1 वि. युक्त इत्युच्यते [ ( युक्त:) + (इति) + (उच्यते ) ] युक्तः (युज् + युक्त) भूकं 1 / 1. इति (प्र) = प्रातिपादिकार्थद्योतक उच्यते (ब्रू) व कर्म 3 / 1 सक. योगी ( योगिन् ) 1/1 समलोष्टाश्मकाञ्चनः ( (सम) + (लोष्ट) + (प्रश्म) + ( काञ्चनः ) ] [[ (सम) वि- (लोष्ट ) - ( प्रश्मन् प्रश्म ) - ( काञ्चन) 1 /1] वि]
71. सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु
-
[ ( सुहृद्) + (मित्र) + (अरि) + ( उदासीन) + ( मध्यस्थ ) + (द्वेष्य) + (बन्धुषु ) ] [ ( सुहृद् ) वि(मित्र) - ( अरि ) - ( उदासीन) वि- ( मध्यस्थ) वि- (द्विष् → द्वेष्य) विधि कृ - (बन्धु) 7/3] साधुध्वपि [ ( साधुषु) + (अपि) ] साधुषु (साधु) 7 / 3 वि. अपि ( अ ) = भी. च ( अ ) | = तथा पापेषु (पाप) 7 / 3 वि. समबुद्धिविशिष्यते [ (सम) + (बुद्धि:) + ( विशिष्यते ) ] [ (सम) वि(बुद्धि) 1 / 1] विशिष्यते (वि- शिष्) व कर्म 3 / 1 सक.
72. योगी ( योगिन् ) 1 / 1 युञ्जीत (युज्) विधि 3 / 1 सक सततमात्मानं रहसि [ ( सततम्) + ( श्रात्मानम्) + ( रहसि ) ] सवतम् ( प्र ) =
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·
निरन्तर प्रात्मानम् (ग्रात्मन् ) 2 / 1 रहसि ( रहस् ) 7/1 स्थितः (स्था स्थित ) भूकृ 1 / 1 एकाकी (एकाकिन् ) 1 / 1 वि यतचित्तात्मा [ ( यत) + (चित) + ( आत्मा ) ] [ [ ( यम्+ यत) भूकृ - (चित्त) - (आत्मन् ) 1 / 1 ] वि. ] निराशीरपरिवहः [ ( निराशीः) + (अपरिग्रहः ) ] निराशी : ( निराशिष्) 1 / 1 वि. अपरिग्रह: ( प्रपरिग्रह) 1 / 1 बि.
-X
73. समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः [ ( समम्) + (कायाशिरोग्रीवम् ) + (घारयन्) + (प्रचलम् ) + (स्थिरः ) ] समम् (घ) : 1 = एक ही साथ. कायाशिरोग्रीवम् [ ( काय ) + (शिरस् ) + (ग्रीवम् ) [ ( काय ) - ( शिरस् ) - (ग्रीव) 2 / 1] धारयन् (षु धारयत्) वकृ 1 / 1. अचलम् ( प्र ) = व्यवस्थित रूप से स्थिर: (स्थिर) 1 / 1 वि. संप्रेक्ष्य (संप्र - ईक्ष् → संप्रेक्ष्य ) पूकृ. नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् [ ( नासिका) + (अग्रम्) + (स्वम्) + (दिश:) + (च) + अनवलोकयन् ) ] [ ( नासिका)
- (अग्र ) 2/1] स्वम् (स्व) 2 / 1 वि. दिश: ( दिश) 2 / 3. च ( अ ) = और. नवलोकयन् (ग्रन् - श्रव-लोक् + अनवलोकयत्) वकृ 1 / 1 74. प्रशान्तात्मा [ ( प्रशान्त ) + (ग्रात्मा ) ] [ ( प्र - शम्+ प्रशान्त) भूकृ(ग्रात्मन्) 1 / 1 ] विगतभीमं ह्मचारिव्रते [ ( विगतभीः ) - ( ब्रह्मचारिव्रते ) ] विगतभीः ( विगतभी) 1 / 1 विं. ब्रह्मचारिव्रते [ ( ब्रह्मचारिन्→ ब्रह्मचारि ) - (व्रत) 7/1] स्थितः (स्था + स्थित ) भूकृ 1 / 1 मनः ( मनस) 2 / 1 संयम्य ( संयम् संयम्य) पूक मच्चितो युक्त प्रासीत [ ( मच्चित्तः) + ( युक्तः ) + ( प्रासीत ) ] मन्चित्त: ( मच्चित्त) 1 / 1 वि. युक्तः (युक्त) 1 / 1. प्रासीत ( प्रास्) प्रक. मत्परः ( मत्परः) 1 / 1 वि
विधि 3 / 1
न
75. नात्यश्नतस्तु [ (न) + (प्रति ) + ( प्रश्नतः) + (तु) ] प्रति (अ ) = बहुत प्रश्नत: ( प्रश्नत् ) 6 / 1 वि. तु
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(
प्र ) = नहीं
(प्र) = तो.
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योगोऽस्ति [(योगः) + (अस्ति)] योगः (योग) 1/1. अस्ति (अस्) व 3/1 अक. न (प्र)== नहीं. चैकान्तमनानतः [(च) + (एकान्तम्) + (मनश्नतः)] च (प्र) =ौर. एकान्तम् (म)=बिल्कुल. अनश्नतः (मन्-प्रश्+अन्-प्रश्नत) व 6/1. न (अ)= नहीं चाति स्वप्नशीलस्य [(च) + (अति) + (स्वप्नशीलस्य)] च (प्र)=ही. प्रति (प्र)=बहुत. स्वप्नशीलस्य (स्वप्नशीलस्य)6/1 वि जाग्रतो नैव [(जाग्रतः) + (न)
+ (एव)] जाग्रतः (जागृ+जाग्रत्) वकृ 6/1. न (म)= नहीं. एव (अ)=ही. चार्जुन [(च) + (अर्जुन)] च (अ) =तथा. अर्जुन
(अर्जुन) 8/1. 76. युक्ताहारविहारस्य [(युक्त)+ (पाहार) +विहारस्य)] [[युज्-+युक्त)
भूक-(माहार)-(विहार)6/1]वि]युक्तचेष्टस्य[[(युक्त)-(चेष्टाचेष्ट)6/1] वि] कर्मसु (कर्मन्) 7/3युक्तस्वप्नावबोषस्य [ (युक्त)+ (स्वप्न)+ (प्रवबोधस्य)] [[(युक्त)-- (स्वप्न)-(अवबोध) 6/1] वि] योगो भवति [(योगः) + (भवति)] योगः (योग) 1/1. भवति
(भू) व 3/1 अक. दुःखहा [(दुःख)- (हन्) 1/Iवि]. 77. यदा (प्र)= जब. विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते [(विनियतम्) +
(चित्तम्) + (अात्मनि)+ (एव)+ (अवतिष्ठते)] विनियतम् (विनियम्-विनियत) भूकृ 1/1. चित्तम् (चित्त) 1/1. आत्मनि (प्रात्मन्) 7/1. एव (अ)=ही. प्रवतिष्ठते (अव-स्था) व 3/1 अक. निःस्पृहः (निःस्पृह) 1/1 वि सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते [(सर्व) + (कामेभ्यः)
+ (युक्तः) + (इति)+ (उच्यते)] [(सर्व) वि-(काम) 5/3] युक्तः (युज्+युक्त) भूक 1/1. इति (अ)= शब्दस्वरूपद्योतक. उच्यते (बू) व कर्म 3/1 सक. तदा (अ)=तब. 1. चेष्टा-effort (प्रयत्न). 2 हन् (वि)=नाशक - यह समास के अन्त में प्रयुक्त होता है।
[(पाप्टे: संस्कृत-हिन्दी कोश)] 92 ]
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78. यवा (प्र)=जैसे दीपो निवातस्यो नेगते [(दीपः) + (निवातस्थः)
+ (न) + (इङ्गते)] दीपः (दीप) 1/1. निवासस्थः (निवातस्थ) 1/1 वि. न (अ)=नहीं. इङ्गते (इग्) व 3/1 प्रक. सोपमा [(सा) + (उपमा)] सा (तत्) 1/1 सवि. उपमा (उपमा) 1/1
स्त्री स्मृता (स्मृ-स्मृत--स्मृता) भूकृ 1/1. योगिनो यतचित्तस्य [(योगिनः) + (यतचित्तस्य)] योगिनः (योगिन्) 6/1. यतचित्तस्य [(यम्-+यत) भूक-(चित्त)6/1]. युञ्जतो योगमात्मनः [(युञ्जतः) + (योगम्) + (प्रात्मनः)] युञ्जतः (युज्-+युञ्जत्) वकृ 6/1.
योगम् (योग) 2/1. प्रात्मनः (प्रात्मन्) 6/1. 79. यत्रोपरमते [(यत्र) + (उपरमते)] यत्र (प्र)=जहाँ. उपरमते (उप
रम्) व 3/1 प्रक. चित्तं निलं योगसेवया [(चित्तम्) +निरुतम्) + (योगसेवयां)] चित्तम् (चित्त) 1/1. निरुद्धम् (नि-रुष्-निरुद्ध) भूक 1/1. योगसेवया [(योग)- (सेवा) 3/1]. यत्र (प्र)=जहाँ चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि [(च) + (एव) + (मात्मना)+ (मात्मानम्) + (पश्यन्) + (प्रात्मनि)] च (म)=ौर. एव (अ)= ही. प्रात्मना (प्रात्मन्) 3/1. प्रात्मानम् (मात्मन्) 2/1. पश्यन् . (दृश्-पश्यत्) वकृ ।/1. प्रात्मनि (मात्मन्) 7/1. तुष्यति (तुष)
व 3/1 अक. 80. सुखमायन्तिकं यत्तबुखियागमतीन्द्रियम् [ (सुखम्) + (प्रात्यन्तिकम्)
(यत्) + (तत्) + (बुद्धिग्राह्यम्) + (प्रतीन्द्रियम्)] सुखम् (सुख) 1/1. प्रात्यन्तिकम् (प्रात्यन्तिक) 1/1 वि. यत् (यत्) 1/1 सवि. तत् (तत्) 1/| सवि. बुद्धिग्राह्यम् [(बुद्धि)- (ग्राह्य) 1/1 वि]. प्रतीन्द्रियम् (प्रतीन्द्रिय) 1/1 वि. वेत्ति (विद) व 3/1 सक यत्र (अ)=जब न (अ)=नहीं चैवायं [(च) + (एव) + (अयम्)] च
(अ)=बिस्कुल. एव (प्र)=ही. अयम् (इदम्) 1/1 सवि. स्थितचयनिका
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रचलति [(स्थितः) + (चलति)] स्थितः (स्था-स्थित) भूकृ 1/1.
चलति (चल) व 3/1 अक. तत्त्वतः (म)= वास्तविकता से... 81. यं लब्ध्वा [(यम्)+ लब्ध्वा )] यम् (यत्) 2/1 सवि. लब्ध्वा (लम्)
प्रकृ. बापरं लाभं मन्यते [(च) + (अपरम्)+ (लाभम्)+ (मन्यते)] च (म)=ौर. अपरम् (अपर) 2/1 वि. लाभम् (लाभ) 2/1. मन्यते (मन्) व 3/1 सक. नाषिकं ततः [(न)+ (अधिकम्) + (ततः)] न (म)= नहीं. अधिकम् (अधिक) 2/1 वि ततः (म)= उससे. यस्मिस्थितो न [(यस्मिन्) + (स्थितः) + (न)] यस्मिन् (यंत्) 7/1 स. स्थितः (स्था-स्थित) भूक 1/1. न (अ)=नहीं दुःखेन (दुःख)3/1 गुरुणापि [(गुरुणा) + (अपि)] गुरुणा (गुरु) 3/1 वि. अपि (म)=
प्रे. कर्म भी. विचाल्यते (वि-चल-वि-चालय-वि-चाल्यते) व कर्म 3/1
सक. 82. तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंशितम् [(तम्) + (विद्यात्) +
(दुःखसंयोगवियोगम्) + (योगसंज्ञितम्)] तम् (तत्) 2/1 सवि. विद्यात् (विद्) विधि 3/1 सक. दुःखसंयोगवियोगम् [(दुःख)-(संयोग)(वियोग) 2/1. योगसंज्ञितम [(योग)-(संज्ञित) 2/1 वि]स निश्चयेन [(सः) + (निश्चयेन)] सः (तत्) 1/1 सवि. निश्चयेन (प्र)=निश्चित रूप से. योक्तव्यो योगोऽनिविष्णचेतसा [(योक्तव्यः) + (योगः) + (अनिविण्ण) + (चेतसा) [ योक्तव्यः (युज्+योक्तव्य) विधि कृ 1/1.
योगः (योग) 1/1. [ (प्रनिर्विण्ण) वि-(चेतस्) 3/1]. 83. संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा [ (संकल्प) + (प्रभवान्) + (कामान्) +
(त्यक्त्वा )] [(संकल्प)-(प्रभव') 2/3वि]. कामान् (काम) 2/3. 1. समास के अन्त में पर्य होता है : उत्पन्न होने वामा (पाप्टे : संस्कृत-हिन्दी - कोश).
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त्यक्त्वा (त्यज्) पूकृ. सर्वानशेषतः [(सर्वान्) + (अशेषतः)] सर्वान् (सर्व) 2/3 वि. अशेषतः (म)=पूर्णतया. मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य [(मनसा)+ (एव) + (इन्द्रियग्रामम्) + (विनियम्य)] मनसा (मनस्) 3/1. एव (प्र)=ही. इन्द्रियग्रामम् (इन्द्रियग्राम) 2/1. विनियम्य
(विनि-यम्) पूकृ. समन्ततः (अ) पूर्णतया. 84. शनैः शनरूपरमेया [ (शनः) + (शनैः) +(उपरमेत्) + (बुढ्या )] शनैः शनैः (अ)= धीरे धीरे उपरमेत (उप-रम्) विधि 3/1 प्रक.
स्त्री बुद्धया (बुद्धि) 3/1. धृतिगृहीतया [ (धृति)-(ग्रह-+गृहीत+गृहीता). भूक 3/1] मात्मसंस्थं मनः [(प्रात्मसंस्थम्)+(मनः)] प्रात्मसंस्थम् [(मात्मन्+यात्म)-(संस्थ) 2/1 वि]. मनः (मनस्) 2/1. कृत्वा (कृ) पूकृ. न (अ)=नहीं किंचिदपि [ (किंचित्) + (अपि)] किंचित (किम् + चित्) 1/1 सवि. अपि (प्र) =भी. चिन्तयेत् (चिन्त) विधि
3/1. सक.
85. यतो यतो निश्चरति [(यतः) + (यतः) + (निश्चरति)] यतः यतः
(अ) =जिस जिस कारण से. निश्चरति (निश्चर्) व 3/1 सक. मनश्चञ्चलमस्थिरम् [(मनः) + (चञ्चलम्) + (अस्थिरम्)] मनः (मनस्) 1/1 चञ्चलम् (चञ्चल) 1/1 वि. अस्थिरम् (अस्थिर)1/1 वि. ततस्ततो नियम्यैतवात्मन्येव [(ततः) + (ततः) + (नियम्य) + (एतत्) + (आत्मनि) + (एव)] ततः ततः (म)= उस उस जगह से. नियम्य (नि-यम्) पूकृ. [(एतत्)-(प्रात्मन्) 7/1] एव (म)=ही.. वशं नयेत् (वशं नी) विधि 3/1 सक.
2. किम् तथा किम् से उत्पन्न अन्य शब्दों में जुड़नेवाला अपय जिससे पर्थ में
प्रनिश्चयात्मकता प्राती है।
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86. युजन्नेवं सदात्मानं योगी [(युजन्) + (एवस्) + (सदा) +
(प्रात्मानम्) + (योगी)] युजन् (युज्+युञ्जत) वकृ /1. एवम् (अ)=इस प्रकार. सदा (म)=निरन्तर. प्रात्मानम् (प्रात्मन्) 2/1. योगी (योगिन्) 1/1. विगतकल्मषः (विगतकल्मष) 1/। वि. सुखेन (अ) =सरलतापूर्वक. ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते [(ब्रह्मसंस्पर्शम्) + (प्रत्यन्तम्) + (सुखम्) + (प्रश्नुते)] ब्रह्मसंस्पर्शम् [(ब्रह्मन्--ब्रह्म)(संस्पर्श) 2/1]. अत्यन्तम् (अत्यन्त) 2/1 वि. सुखम् (सुख) 2/1.
प्रश्नुते (अश्) व 3/1 सक. 87. सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि [(सर्वभूतस्थम्) + (प्रात्मानम्) +
(सर्वभूतानि)] सर्वभूतस्थम् [(सर्व)वि-(भूत)-(स्थ) 21| वि]. आत्मानम् (प्रात्मन्) 2/1. सर्वभूतानि [(सर्व) वि-(भूत) 2/3]. चात्मनि [(च)+ (मात्मनि)] च (म)=ौर. प्रात्मनि (प्रात्मन्) 7/1. ईमते (ई) व 3/1 सक. योगयुक्तात्मा [(योग) + (युक्त)+
(प्रात्मा)] [(योग)-(युज्+युक्त) भूकृ-(प्रात्मन्) 1/1] सर्वत्र . (प्र)=हर समय. समदर्शनः (समदर्शन) 1/1 वि.
.. 88. सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः [(सर्वभूतस्थितम्) + (यः)
+ (माम्)+ (भजति) + (एकत्वम्) + (मास्थित:)] सर्वभूतस्थितम् [(सर्व) वि-(भूत)-(स्था--स्थित) भूक 2/1]. यः (यत्) 1/1 सवि. माम् (अस्मद्) 2/1 स. भजति (भज्) व 3/1 सक. एकत्वम् (एकत्व)2/1. प्रास्थितः (मा-स्था+मास्थित!) भूकृ 1/1 सर्वथा (म)=सर्व तरह से. वर्तमानोऽपि .[(वर्तमानः) +(मपि)] वर्तमानः
1. यह कर्तृवाच्य में प्रयुक्त होता है।
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(वृत-वर्तमान) वकृ 1/1. अपि (प्र)= भा. स योगी [(सः)+ (योगी)] सः (तत्) 1|| सवि. योगी (योगिन्)1/1. मयि (अस्मद)
7/1. स वर्तते (वृत) व 3/1 प्रक. 89. प्रात्मौपम्येन (प्रात्मौपम्य) 3/1 या [(प्रात्म) + (प्रौपम्येन)]
[(प्रात्मन--प्रात्म)- (प्रौपम्य) 3/1]. सर्वत्र (अ)=प्रत्येक स्थान पर (सब प्राणियों में) समं पश्यति [(समम्)+पश्यति)] समम् (सम) 2/1. पश्यति (दृश्) व 3/1 सक. योऽर्जुन [(यः) + (अर्जुन)] यः (यत्) 1/1 सवि. अर्जुन (अर्जुन) 8/1 सुखं वा [(सुखम्) + (वा)] सुखम् (सुख) 2/1. वा (प्र)=ौर. यदि वा (4)= या दुःखं स योगी [(दुःखम) + (सः)+ (योगी)] दुःखम् (दुःख) 2/1. सः (तत्) 1/1 सवि. योगी (योगिन्) 1/1. परमो मतः [(परमः) + (मतः)]
परमः (परम) 1/1 वि. मतः (मन्+मत) भूक 1/1. 90. असंशयं महाबाहो [(असंशयम्) + (महाबाहो)] असंशयमम् (भ) =
निश्चय ही. महाबाहो (महाबाहु) 8/1. मनो दुनिग्रहं चलम् [(मनः)
+ (दुर्निग्रहम्) + (चलम्) ] मनः (मनस्) 1/1 दुनिग्रहम् (दुर्निग्रह) 1/1 वि. चलम् (चल) 1/1 वि. अभ्यासेन (प्रभ्यास) 3/1. तु (अ) =किन्तु. कौन्तेय (कौन्तेय)- 8/1 वैराग्येण (वैराग्य) 3/1 च
(अ)=ोर गृह्यते (ग्रह) व कर्म 3/1 सक. 91. असंयतात्मना [(असंयत)+ (आत्मना)] [(असंयत) वि--(प्रात्मन्)
3/1] योगो दुष्प्राप इति [(योगः) + (दुष्प्राप) + (इति)] योगः (योग) 1/1 दुष्प्रापः (दुष्प्राप) 1/1 वि. इति (अ)= इस प्रकार. मे (अस्मद) 6/1 स. मतिः (मति) 1/1 वश्यात्मना [(वश्य)+ (प्रात्मना।] [(वश्य) वि-(प्रात्मन्) 3/1] तु (अ)=किन्तु. यतता (यत्-यतत्) व 3/1 शक्योऽवाप्तुमुपायतः [(शक्यः) + (अवाप्तुम्)
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(उमायनः) ] शक्यः (शक् +शक्य) विधिक 1/1. अवाप्तुम् (अव
आप् --अवाप्तुम्) हेकृ. उपायतः (अ)= प्रयत्न से 92. मनुष्याणां सहस्रषु [(मनुष्याणाम्) + (सहस्रेषु)] मनुष्याणाम् । __(मनुष्य) 6/3. सहस्रेषु (सहस्र) 7/3. कश्चिद्यतति [(कश्चित्) +
(यतति)] कश्चित् [(कः +चित्] कःचित् (किम् + चित्!) 1/1सवि. यतति (यत्) व 31 अक. सिद्धये (सिद्धि) 4/1 यततामपि [ (यतनाम्) + (अपि)] यतताम् (यत्-+यतत्) 6/3. अपि (अ) = भी. सिद्धानां कश्चिन्नां वेत्ति [(सिद्धानाम्) + (कश्चित्) + (माम्) +वित्ति)] सिदानाम् (सिद्ध) 6/3 वि. कश्चित् [(कः +चित्)] कःचित् (किम् :-चित्) । 1 सवि. माम् (अस्मद्) 2/। स. वेत्ति
(विद्) व 3/1 सक तत्त्वतः (अ) = वस्तुतः 93. त्रिभिर्गुणमयैर्भावरेभिः [(त्रिभिः) + (गुणमयः)+(भावैः) + (एभिः)]
त्रिभिः (त्रि) 3/3 वि. गुणमयः (गुणमय) 3/3 वि. भावः (भाव) 3 /3. एभिः (एतत्) 3/3 सवि. सर्वमिदं जगत् [ (सर्वम्) + (इदम्) + (जगत्)] सर्वम् (सर्व)1/1 सवि. इदम् (इदम्) 1/1 सवि. जगत् (जगत्) 1/1. मोहितं नाभिजानाति [(मोहितम्) + (न) + (अभिजानाति)]मोहितम् (मुह,+मोहय् --मोहित) भूक /1. न (अ)= नहीं. अभिजानाति (अभि-ज्ञा) व 3/1 सक. मामेभ्यः [(माम्) + (एभ्यः)] माम् (अस्मद्) 2/1 स. एभ्यः (एतत्) 5/3 स. परमव्ययम् [(परम्) + (अव्ययम्)] परम् (पर) 2/1 वि. अव्ययम् (अव्यय) 2/1 वि.
1. 'चित्' अनिश्चित प्रर्य को प्रकट करने के लिए जोड़ा जाता है। 2. किसी समुदाय में से एक को छांटने में जिसमें से छांटा जाए उसमें षष्ठी या
सप्तमी होती है।
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94. देवी (देवी) 1/1 षा [ (हि) + (एषा ) ] हि ( अ ) = निश्चय ही. स्त्री
एषा ( एतत् ) 1 / 1 सवि. गुरणमयी (गुणमय गुणमयी) 1 / 1 वि मम स्त्री
(अस्मद् ) 6/1 स माया (माया) 1 / 1 दुरत्यया (दुर्-प्रत्यय → दुर्— प्रत्यया) / 1 वि मामेव [ ( माम्) + (एव) ] माम् (ग्रस्मद् ) 2 / 1 स. एव ( अ ) = ही. ये (यत्) 1/3 स प्रपद्यन्ते ( प्र - पद् ) व 3/3 सक मायामेतां तरन्ति [ ( मायाम्) + ( एताम्) + (तरन्ति ) ] मायाम् (माया) 2 / 1. एताम् ( एतत् ) 2 / 1 सवि. तरन्ति (तृ) व 3 / 3 सक ते (तत्) 1/3 सवि.
95. न ( अ ) = नहीं मां दुष्कृतिनो मूढाः [ ( माम्) + (दुष्कृतिनः ) + ( मूढाः) ] माम् (ग्रस्मद) 2 / 1 स. दुष्कृतिनः (दुष्कृतिन् ) 1/3 वि. मूढा: ( मूढ ) 1/3 वि. प्रपद्यन्ते (प्र-- पद् ) व 3 / 1 सक नराधमाः [ (नर) + (प्रधमाः ) ] [ (नर) – (अधम ) 1 / 3 वि] माययापहृतज्ञाना श्रासुरं भावमाश्रिता: [ ( मायया ) + ( अपहृत ) + (ज्ञानाः ) + (प्रासुरम् ) + (भावम्) + (प्राश्रिताः ) ] मायया (माया) 3 / 1. [ ( अप – हृ→ अपहृत ) भूकृ - (ज्ञान) 1 / 3] आसुरम् (ग्रासुर ) 2 / 1 वि. भावम् (भाव) 2 / 1. प्राश्रिता: 1 (प्रा – श्रि श्राश्रित) भूकृ 1 / 3.
-
96. चतुविधा भजन्ते [ ( चतुविधा:) + (भजन्ते ) ] चतुविधा: ( चतुर्विध ) . 1 / 3 वि. भजन्ते (भज्) व 3 / 1 सक. मां जनाः [ ( माम्) + (जनाः) ] माम् (अस्मद्) 2/1 स जनाः (जन) 1 / 3. सुकृतिनोऽर्जुन [ ( सुकृतिनः ) + (अर्जुन) ] सुकृतिनः ( सुकृतिन् ) 1/3 वि. अर्जुन (अर्जुन)
1. कर्म के साथ कर्तृवाच्य में प्रयुक्त ।
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8/1. प्रा” जिज्ञासुरर्थापों [(प्रात:) + (जिज्ञासुः) + (अर्थार्थी)] प्रातः (मार्त) 1/1 वि. जिज्ञासुः (जिज्ञासु) 1/i वि. अर्थार्थी (अर्थाथिन्) 1/1 वि. जानी (ज्ञानिन्) 1/1 वि . (प्र) = और.
भरतर्षभ [(भरत) + (ऋषभ)] [(भरत)-(ऋषभ) 8/1] 97. तेषां मानी [(तेषाम्) + (ज्ञानी) ] तेषाम् (तत्)6/3 स. ज्ञानी (ज्ञानिन्)
1/1वि नित्ययुक्त एकभक्तिविशिष्यते [(नित्ययुक्तः)+ (एकभक्तिः)+ (विशिष्यते)] नित्ययुक्तः (नित्ययुक्त) 1 || वि. एकभक्तिः [(एक) वि-(भक्ति) 1/1] विशिष्यते (वि-शिष्) व कर्म 3/1 सक. प्रियो हि [(प्रियः) + (हि)] प्रियः (प्रिय) 1/1 वि. हि (अ)= निश्चय ही. ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च [(ज्ञानिनः)+ (प्रत्यर्थम्)+ (अहम् ) + (सः) + (च)] जानिनः (ज्ञानिन्) 6/1 वि. प्रत्यर्थम् (अ)= अत्यन्त. अहम् (प्रस्मद्) 1/1 म. सः (तत्) 1/1 सवि.
न (अ)= और. मम (अस्मद्) 6 1 स. प्रियः (प्रिय) 1/1 वि. 98. बहूनां जन्मनामन्ते [(बहुनाम्)+ (जन्मनाम्) + (अन्ते)] बहूनाम्
(बहु) 6/3 वि. जन्मनाम् (जन्मन्) 6/3. अन्ते (अन्त) 7/1. ज्ञानवान्मां प्रपद्यते [(ज्ञानवान्) + (माम्)+ (प्रपद्यते)] ज्ञानवान्. (ज्ञानवत्) 1/1 वि. माम् (अस्मद्) 2|| स. प्रपद्यते (प्र-पद्) व 3/1 सक. वासुदेवः (वासुदेव) 1/1 सर्वमिति [(सर्वम्) + (इति)] सर्वम् (सर्व) 1/। सवि. इति (अ)= इस प्रकार. स महात्मा. [(सः) + (महात्मा)] सः (तत्) 1|| सवि. महात्मा (महात्मन्) 1/1 वि. सुदुर्लभः
(सुदुर्लभ) 1/1 वि. 99. येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् [(येषाम्) + (तु) + (अन्त
गतम्) + (पापम्) + (जनानाम्) + (पुण्यकर्मणाम्)] येषाम् (यत्) 6/3
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स. तु (अ)= परन्तु अन्तगतम् (अन्तगत) 1/1 वि. पापम् (पाप) 1/1. जनानाम् (जन)6/3. पुण्यकर्मणाम् (पुण्यकर्मन्)6/3 वि ते (तत्) 1/3 सवि द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते [(द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः)+ (भजन्ते)]द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः [(द्वन्द्व)-(मोह)-(निस्-मुच्-निर्मुक्त) भूकृ 1/3] भजन्ते (भज्) व 3/3 सक. मां दृढव्रताः [(माम्) + (ढव्रताः)] माम्
(अस्मद्) 2/1 स. दृढव्रताः [[(ढ) वि- (व्रत) 1/3]वि]. 100. जरामरणमोक्षाय [(जरा)-(मरण)- (मोक्ष) 4/1] मामाश्रित्य
[(माम)+ (माश्रित्य)] माम् (अस्मद्) 2/1 स. पाश्रित्य (प्रा-श्रि+
आश्रित्य) पूकृ. यतन्ति (यत्) व 3/3 अक ये (यत्) 1/3 सवि. ते (तत्) 1/3 सवि. ब्रह्म (ब्रह्मन्) 2/1 तद्विदुः [(तत्) + (विदुः)] तत् (तत्) 2/1 सवि. विदुः (विद) व 3/3 सक. कृत्स्नमध्यात्म कर्म [(कृत्स्नम्) + (अध्यात्मम्)+(कर्म)] कृत्स्नम् (कृत्स्न) 2/1 वि. अध्यात्मम् (अध्यात्म) 2/1 वि. कर्म (कर्मन्) 2/1 चाखिलम् [(च)+
(अखिलम्)1 च (अ)=तथा अखिलम् (अंखिल) 2/1 वि. 101. अन्तकाले (अन्तकाल)7, 1 च (म)= और मामेव [ (माम्) + (एव)]
माम् (अस्मद्) 2|| स. एव (अ) =ही. स्मरन्मुक्त्वा [ (स्मरन्) + (मुक्त्वा)] स्मरन् (स्मृ-स्मरत्) वकृ 1 /1. मुक्त्वा (मुच्+मुक्त्वा) पूकृ. कलेवरम् (कलेवर) 2/1 यः (यत्) 1/1 सवि प्रयाति (प्र-या) व 3/1 सक स मभावं याति [(स.)+ (मदभावम्) + (याति)] सः (तत्) 1/1 सवि. मदभावम् (मद्भाव) 2/1. याति (या) व 3/1 सक. नास्त्यत्र [(न) + (मस्ति) + (अत्र)] न (म)=नहीं. प्रस्ति (प्रस्)
व 3/। प्रक. प्रत्र (म)- इसमें संशयः (संशय) 1/1. 02. यं यं वापि [(यम्) + (यम्) + (वापि)] यम् (यत्) 2/1 सवि. वापि
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(अ)= और स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते [ (स्मरन्) + (भावम्) । (त्यजति)
+ (अन्ते)] स्मरन् (स्मृ-स्मरत्) वकृ 1/1. भावम् (भाव) 2/1. त्यजति (त्यज्) व 3/1 सक. अन्ते (अन्त) 7/1. कलेवरम् (कलेवर) 2/1 तं तमेवैति [(तम्) + (तम्) + (एव) । (एति)] तम् (तत्) 2/1 सवि. एव (अ)=ही. एति (इ) व 3/1 सक. कौन्तेय (कौन्तेय) 8/1 सदा (प्र) = सदैव तद्भावभावित. [(तद्भावभावित [(तद्भाव)
प्रे.
भावित) भूकृ 1/1].
:
.
(भू-भावय-+भावित) भूकृ 1/1]. 103. अभ्यासयोगयुक्त न [(अभ्यास)– (योग)-(युज्+युक्त) भूक 3/1
चेतसा (चेतस्) 3/1 नान्यगामिना [(न)+ (अन्यगामिना)] न (अ, (अ)=नहीं. अन्यगामिना (अन्य गामिन्) 3/1 वि. परमं पुरुषं दिव्य याति [(परमम्) + (पुरुषम्)+(दिव्यम्)+ (याति)] परमम् (परम) 2// वि. पुरुषम् (पुरुष) 2/1. दिव्यम् (दिव्य) 2|| वि. याति (या) व 3/1 सक. पार्थानुचिन्तयन् [(पार्थ) + (अनुचिन्तयन्)] पार्थ (पार्थ)
8/1. अनुचिन्तयन् (अनुचिन्त-अनुचिन्तयत्) वकृ 1 || 104. प्रयाएकाले [(प्रयाण)- (काल) 7/1] मनसाचलेन [(मनसा) +
(अचलेन)] मनसा (मनस्) 3/1. अचलेन (अचल) 3/1 वि. भक्त्य (भक्ति) 3/1 युक्तो योगबलेन [(युक्तः) + (योगबलेन) युक्तः (युज्युक्त) भूक 1/1. योगबलेन (योगबल) 3/। चैव [(च) + (एव) च (अ)=तथा. एव (अ)=ही. भवोर्मध्ये [(भ्र वोः) । (मध्ये) भ्र वोः (5) 6/2. मध्ये (मध्य) 7/1. प्राणमावेश्य [(प्राणम्) +
(आवेश्य)] प्राणम् (प्राण) 2/1. आवेश्य (प्रा-विश्+पा-वेशय्मावेश्य) पूकृ. सम्यक् (म)=पूरी तरह से. स तं परं पुरुषमुपैति [(सः
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+ (तम्) + (परम्) + (पुरुषम्) + (उपति ) ] सः (तत्) 1 / 1 सवि. तम् (तत्) 2 / 1 सवि परम् (पर) 2 / 1 वि. पुरुषम् (पुरुष) 2 / 1. उपैति (उप-ई) व 3 / 1 सक. दिव्यम् ( दिव्य ) 2 / 1.
105. सर्वद्वाराणि [ (सर्व) वि- ( द्वार) 2/3] संयम्य (संयम् ) पूकृ. मनो हृदि [ ( मन:) + (हृदि ) ] मन: (मनस् ) 2 / 1. हृदि (हृद् ) 7 / 1. निरुध्य ( नि-रुघ्) पूकृ च ( अ ) = श्रौर सूर्याधायात्मनः [ ( मूर्ध्नि) + ( प्राधाय ) + ( श्रात्मन:)] मूर्ध्नि (मूर्धन् ) 7 / 1 प्राधाय ( श्रा - घा) पूकृ. आत्मन: (आत्मन् ) 6 / 1. प्रारण मास्थितो योगधारणाम् [ ( प्रारणम्) - ( प्रास्थितः ) + ( योगधाररणाम् )] प्राणम् ( प्रारण ) 2 / 1. अस्थितः (आस्था प्रास्थित ) भूकृ 1 / 1. योगधारणाम् [ (योग) - ( धारणा ) 2/1]
106. श्रोमित्येकाक्षरं ब्रह्म [ ( श्रोम्) + (इति) + (एकाक्षरम्) + (ब्रह्म) ] ओम् (श्र) = प्रोम्. इंति ( प्र ) - शब्दस्वरूपद्योतक. एकाक्षरम् (एका क्षर) 2 / 1 बि. ब्रह्म (ब्रह्मन्) 2 / 1. व्याहरन्मामनुस्मरन् [ ( व्याहरन् ) + (माम्) + (अनुस्मरन ) ] व्याहरन् (व्या - हृ + व्याहरत् ) वकु 1 / 1. माम् (प्रस्मद् ) 2 / 1 ग्रनुस्मरन् (अनुस्मृ मनुस्मरत्) वकृ 1 / 1 य (यत्) 1 / 1 सवि प्रयाति (प्र-या) व 3 / 1 सक
-
त्यजन्देहं स याति (त्यज्+त्यजत् )
त्यजन्
| (स्वजन्) + (देहम्) + (सः) + (याति ) ] बकृ 1 / 1. देहम् (देह) 2 / 1. सः (तत्) 1 / 1 सवि. याति (या) ब
स्त्री
3 / 1 सक. परमां गतिम् [ ( परमाम्) + (गतिम् ) ] परमाम् (परम → परमा) 2 / 1 वि. गतिम् (गति) 2 / 1.
107. मामुपेत्य [ (माम्) + (उपेत्य ) ] माम् (ग्रस्मद् ) 2 / 1 स. उपेत्य (उपइ→उप-इत्य→उपेत्य) पूकृ. पुनर्जन्म (पुनर्जन्मन् )
21 दुःखालयम
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शाश्वतम् [(दुःख) + (प्रालयम्) + (प्रशाश्वतम्)] [(दुःख)-(मालय) 2/1] प्रशाश्वतम् (प्रशाश्वत) 2|| वि. नाप्नुवन्ति [(न)+ (प्राप्नुवन्ति)] न (म)=नहीं. प्राप्नुवन्ति (प्राप्) व 3/3 सक. महात्मनः (महात्मन्) 1/3 संसिद्धि परमां गताः । (संसिद्धिम्) + (परमाम्) + (गताः)] संसिद्धिम् (संसिद्धि) 2/1. परमाम्
स्त्री (परम-परमा) 2/1. गताः (गम्-गत) भूक 1/3. 108. पुरुषः (पुरुष) 1/1 स परः [(सः) + (परः)] सः (तत्) 1 || सवि.
परः (पर) 1/1 वि. पार्थ (पार्य) 8/1. भक्त्या (भक्ति) 3|| लभ्यस्त्वनन्यया [(लभ्यः) + (तु)+ (अनन्यया)] लभ्यः (लभ्य)। ||
वि. तु (अ)=ौर. अनन्यया (अनन्य-+अनन्या) 3|| वि. यस्यान्तःस्थानि [(यस्य) + (अन्तःस्थानि)] यस्य (यत्) 6/1 स. अन्तःस्थानि (अन्तःस्थ) 1/3 वि. भूतानि (भूत) 1/3 येन (यत्) 3/1 सवि सर्वमिदं ततम् [(सर्वम्) + (इदम्) + (ततम्)] सर्वम् (सर्व) 1/1
वि. इदम् (इदम्) 1/1 सवि. ततम् (तन्त त) भूक 1/1. 109. प्रश्रद्दधानाः (म-श्रद्-धा-+प्रश्रद्-दधान-+प्रश्रद्दधान) वकृ 1/3.
पुरुषा धर्मस्यास्य [(पुरुषाः) + (धर्मस्य) + (अस्य)] पुरुषाः (पुरुष) 1/3. धर्मस्य (धर्म) 6/1. प्रस्य (इदम्) 6/1 स. परंतप (परंतप) 8।। अप्राप्य (प्र-प्र-प्राप्-+प्रप्राप्य) पूकृ. मां निवर्तन्ते [(माम्) + (निवर्तन्ते)] माम् (अस्मद्) 2|| स. निवर्तन्ते (
निवृत) व 3/3 प्रक. मृत्युसंसारवमनि [(मृत्यु)-(संसार)- (वमन्) 7/1]
1 कृदन्त शब्दों के योग में कर्ता और कर्म में षष्ठी होती है।
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110. सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च [(सततम्) + (कीर्तयन्तः) + (माम्)
+ (यतन्तः) +(च)] सततम् (अ)=सदा. कीर्तयन्तः (कीत् → कीर्तयत्) वकृ 1/3. माम् (अस्मद्) 2/1 स. यतन्तः (यत्+यतत्) वक 1 /3. चं (अ)=ौर. दृढव्रताः . दृढव्रत) 1/3 वि नमस्यन्तश्च [(नमस्यन्तः) । (च)] नमस्यन्तः (नमस्य-नमस्यत्) व 1/3. च (अ)=ौर. मां भक्त्या [(मा) + (भक्त्या )] माम् (अस्मद्) 2/1 स. भक्त्या (क्रिविन)= भक्तिपूर्वक. नित्ययुक्ता उपासते [(नित्ययुक्ताः + (उपासते)] नित्ययुक्ताः [ (नित्य) वि-(युज् +युक्त) भूकृ
1/3. उपासते (उप-प्रास्) व 3/3 सक. 111. ज्ञानयज्ञेन [ (जान)-(यज्ञ) 3/1] चाप्यन्ये [ (च) - (अपि) + (अन्ये)]
च (अ)== और अपि (अ)= भी. अन्ये 1/3 सवि. यजन्तो मामुपासते [(यजन्त ) + (माम्)+ (उपासते)] यजन्तः (यज्-+यजत्) वकृ 1/3. माम् (अस्मद्) 2/1 स. उपासते (उप-प्रास्) व 3/3 सक. एकत्वेन (एकत्व) : 11 पृथक्त्वेन (पृथक्त्व) 3/1 बहुधा (प्र)= बहुत प्रकार से
विश्वतोमुखम् (विश्वतोमुख) 2/1 वि. 112. अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये [(अन्याः )+ (चिन्तयन्तः) + (माम्) +
(ये)] अनन्याः (अनन्य) 1/3 वि. चिन्तयन्तः (चिन्त्-चिन्तयत्) वकृ 1/3. माम् (अस्मद्) 2/1 स. ये (यत्) 1/3 सवि. जनाः (जन) 1/3 पर्युपासते (पयुप-प्रास्) व 3/3 सक तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् [(तेषाम्) + (नित्याभियुक्तानाम्) + (योगक्षेमम्) + (वहामि) + (अहम्)] तेषाम् (युस्मद्) 6/3 स. नित्याभियुक्तानाम् [(नित्य) ति- (अभि-युज्+अभियुक्त) भूक 6/3]. योगक्षेमम् (योगक्षेम) 2/1. वहामि (वह) व 1|| सक. अहम् (अस्मद्) 1/1 स.
.. चयनिका
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113. पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे [(पत्रम्) + (पुष्पम्) + (फलम्) + (तोयम्)
+ (यः) + (मे)] पत्रम् (पत्र) 2/1. पुष्पम् (पुष्प) 2/1. फलम् (फल) 2/1. तोयम् (तोय) 2/1. यः (यत्) 1/1 सवि. मे (अस्मद्) 4/1. भक्त्या (क्रिविन)== भक्तिपूर्वक प्रयच्छति (प्र-दाण्य च्छ) व 3/1 सक तवहं भक्त्युपहतमश्नामि [(तत्) + (महम्) + (भक्ति) + (उपहृतम्) + (प्रश्नामि)] तत् (तत्) 2/1 स. अहम् (अस्मद्) 1/1 स. [(भक्ति)-(उप-ह-+उपहृत) भूक 2/1] प्रश्नामि (प्रश्) व 1/1 सक. प्रयतात्मनः [(प्रयस) + (प्रात्मनः)][(प्र—यम् -+प्रयत) भूकृ—(प्रात्मन्) 6/1].
114. यत्करोषि [(यत्) + (करोषि)] यत् (यत्) 2/1 सवि. करोषि (क)
व 2/1 सक. यदश्नासि [(यत्) + (प्रश्नासि)] यत् (यत्) 2/1 सवि. प्रश्नासि (प्रश्) व 2/1 सक. यज्जुहोषि [(यत्) + (जुहोषि)] यत् (यत्) 2/1 सवि. जुहोषि (हु) व 2/1 सक. ददासि (दा) व 2/1 सक यत् (यत्) 2/1 सवि. यत्तपस्यसि [(यत्) + (तपस्यसि)] यत् (यत्) 2/1 तपस्यसि (तपस्य) व 2/1 सक. कौन्तेय (कौन्तेय) 8/1 तत्कुरुष्व [(तत्) + (कुरुष्व)] तत् (तत्) 2/1 सवि. कुरुष्व (कृ) आज्ञा 2/1 सक. मदर्पणम् (मदर्पण) 2/1
115. शुभाशुभफलैरेवं मोक्यसे [(शुभ) + (अशुभ) + (फलैः) + (एवम्)
+ (मोक्ष्यसे)] [(शुभ)-(अशुभ)-(फल) 3/3] एवम् (अ)= इस प्रकार. मोश्यसे। (मुच्) भवि. कर्म 2/1 सक कर्मबन्धनैः [(कर्मन्-+कर्म)- (बन्धन) 3/3] संन्यासयोगयुक्तात्मा [(संन्यास) + (योग) + (युक्त) + (प्रात्मा)] [(संन्यास)-(योग)-(युज्+
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युक्त) भूकृ - ( प्रात्मन्) 1 / 1] विमुक्तो मामुपैष्यसि [ ( विमुक्त:) + (माम्) + ( उपैष्यसि ) ] विमुक्तः (वि- मुच् विमुक्त) भूकृ 1 / 1. माम् (अस्मद् ) 2 / 1 स. उपैष्य (उप- इ + उप - एष्यसि उपैष्यसि ) भवि
2 / 1 सक.
16. समोऽहं सर्वभूतेषु [ ( समः ) + ( ग्रहम्) + ( सर्वभूतेषु ) ]
सम: ( संम) 1 / 1 वि. अहम् ( अस्मद् ) 1 / 1 स. सर्वभूतेषु [ (सर्व) वि - (भूत) 7 / 3]. न ( अ ) = नहीं मे (प्रस्मद् ) 4 / 1 स द्वेष्योऽस्ति [ (द्वेष्यः) + ( अस्ति ) ] द्व ेष्यः (द्व ेष्य ) 1 / 1 वि. अस्ति (अस् ) व 3 / 1 अक न ( अ ) = नहीं प्रियः ( प्रिय) 1 / 1 वि ये (यत्) 1 / 3 सवि भजन्ति (भज्) व 3/3 सक तु ( अ ) = परन्तु मां भक्त्या [ ( माम्) + (भक्त्या ) ] माम् (अस्मद् ) 2 / 1 स. भक्त्या ( अ ) = भक्तिपूर्वक मयि (अस्मद् ) 7/1 स ते (तत्) 1/3 सवि तेषु (तत्) 7/3 स चाप्यहम् [ (च) + (अपि) + ( अहम् ) ] च ( अ ) = श्रीर. अपि ( अ ) = भी. अहम् (अस्मद् ) 1 / 1 स.
17. श्रपि ( अ ) - भी चेत्सुदुराचारो भजते [ ( चेत्) + (सुदुराचारः) +(भजते ) ] चेत् (प्र) = यदि सुदुराचारः (सु-दुराचार ) 1 / 1 वि. भजते (भज्) व 3 / 1 सक. मामनन्यभाक् [ ( माम्) + (अनन्य भाक् ) ] माम् (श्रस्मद् ) 2 / 1 स. अनन्यभाक् (अनन्यभाज् ' ) वि. साधुरेव [ ( साधुः ) + (एव) ] साधु: ही. स मन्तव्य: [ (सः) + ( मन्तव्यः ) ] सः
1 / 1
एव ( अ ) =
सवि. मन्तव्यः
( मन् मन्तव्य ) विधि कृ 1 / 1. सम्यग्व्यवसितो हि [ ( सम्यक्) +
चयनिका
-
(साधु)
(तत्)
1. 'भाज्' (वि) प्रायः समास के अन्त में प्रयुक्त होता है ।
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(व्यवसितः)+ (हि)] सम्यक् (अ)= उचित रूप से. व्यवसित: (विअव-सो+व्यव-सित-व्यवसित) भूक 1/1. हि (अ) = क्योंकि. सः
(तत्) 1/1 सवि. 118. क्षिप्रं भवति [(क्षिप्रम्) - (भवति)] क्षिप्रम् . (अ)--- शीघ्र. भवति
(भू) व 3/1 अक. धर्मात्मा (धर्मात्मन्) 1|| वि शश्वच्छान्ति निगच्छति [(शश्वच्छान्तिम्) + (निगच्छति)] शश्वच्छान्तिम् [(शश्वत्)
+ (शान्तिम्)] शश्वत् (अ)=नित्य. शान्तिम् (शान्ति) 2/1. निगच्छति (नि-गम्) व 3/1 सक. कौन्तेय (कौन्तेय) 8/1 प्रतिजानीहि (प्रति-ज्ञा) आज्ञा 2/1 सक नं (अ)= नहीं मे (अस्मद्) 6|| स भक्तः (भक्तः) 1/1. प्रणश्यति (प्र-नश्) व 3/1 अक..
119. मन्मना भव [(मन्मना.)] + (भव)] मन्मनाः (मद् + मनस् =
मन्मनस्) 1/1 वि. भव (भू) प्राज्ञा 2/| ग्रक मभक्तो मद्याजी [(मद्भक्तः) + (मद्याजी)] मद्भक्तः (मद्भक्त) 1/1 वि. मद्याजी (मद् + याजिन् = मद्याजिन्) 1/। वि. मां नमस्कुरु [(माम्) + (नमस्) + (कुरु) ] माम् (अस्मद्) 211 स. नमस् (अ) == प्रणाम. कुरु (कृ) आज्ञा 2|| सक. मामेवैष्यसि [(माम् ) + (एव) + (एष्यसि)] माम् (अस्मद) 2/1 स. एव (प्र) =ही. एष्यसि (इ) भवि 2/1 सक. युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः [(युक्त्वा) + (एवम्) + (प्रात्मानम्) + (मत्परायणः)] युक्त्वा (युज्+युक्त्वा) पूकृ. एवम् (अ) = इस प्रकार. प्रात्मानम् (प्रात्मन्) 2/1. मत्परायणः (मत्परायण) 1/1 वि.
1. याजिन् (वि)=समास के अन्त में प्रयुक्त ।
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गोता
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120. ग्रहमात्मा [ ( ग्रहम्) + ( आत्मा ) ] अहम् (ग्रस्मद् ) 1 / 1 स. आत्मा ( श्रात्मन् ) 1/1. गुडाकेश (गुडाकेश) 8/1 सर्वभूताशयस्थितः [ (सर्व) (भूत) - ( आशय ) (स्थास्थित) भृकृ 1 / 1] ग्रहमादिश्च [ ( अहम् ) + (प्रादिः) + (च) ] ग्रहम् (ग्रस्मद् ) 1 / 1 स. आदि: ( आदि) 1 / 1. च (प्र) = श्रौर. मध्यं च [ ( मध्यम्) + (च) ] मध्यम् (मध्य) 1 / 1. भूतानामन्त एव [ ( भूतानाम्) + (प्रन्तः ) ] भूतानाम् (भूत) 6 / 3. अन्त: ( प्रन्त ) 1 1. एव ( अ ) = ही. च ( अ ) = प्रौर
/
121. मन्यसे ( मन्) व 2 / 1 सक यदि
तत्
+ ( शक्यम्) + ( मया ) ] 1 / 1 वि. मया ( श्रस्मद् ) 3 / 1 द्रष्टुम् (दृश्) हेकृ कर्म इति ( अ )
तच्छक्यं मया [ (तत्) (तत्) 1 / 1 सवि शक्यम् (शक्य ) स. द्रष्टुमिति [ ( द्रष्टुम् ) + (इति) ] - इस प्रकार. प्रभो (प्रभु) 8 / 1 8 / 1 ततो मे [ ( ततः) + (पे)] तत: (अ) स त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् [ ( त्वम्) + ( दर्शय )
=
योगेश्वर ( योगेश्वर ) तो मे ( श्रस्मद् ) 4 /
1
प्रे.
(प्र) – यदि
=
.+ ( श्रात्मानम्) + (श्रव्ययम् ) ] त्वम् ( युष्मद् ) 1 / 1 स. (दृश् दर्शय् > दर्शय ) आज्ञा 2/1 संक. आत्मानम् ( श्रात्मन् ) 2 / 1 श्रव्ययम् (श्रव्यय) 2/1 fa.
व
122. न ( प्र ) = नहीं. तु ( अ ) = परन्तु मां शक्यसे माम (प्रस्मद् ) 2 / 1 स. शक्यसे (शक् ) [ ( द्रष्टुम् ) + (अनेन) + (एव) ] द्रष्टुम् (श्) हे. कृ. प्रनेन (इदम्) 3 / 1 स एव ( प्र ) ही. स्वचक्षुषा [ (स्व) - (चक्षुस् ) 3 / 1] विष्यं दामि [ (दिव्यम्) + ( ददामि ) ] दिव्यम् (दिव्य ) 2 / 1 वि. ददामि
-
1. इदम् == वर्तमान ( प्राप्टे : संस्कृत-हिन्दी कोश)
चयनिका
[ ( माम्) + ( शक्यसे ) ]
2 / 1 प्रक. द्रष्टुमनेनैव
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(दा) व 1/1 सक. ते (युष्मद्) 4/1 स. चक्षुः (चक्षुस्) 2/1 पश्य (दृश्) प्राज्ञा 2/1 सक मे (अस्मद्) 6/1 स योगमेश्वरम् [(योगम्)
+ (ऐश्वरम्)] योगम् (योग) 2/1. ऐश्वरम् (ऐश्वर) 2/1. 123. विवि (दिव्) 7/1 सूर्यसहस्रस्य [(सूर्य) - (सहस्र) 6/1] भवेद्य ग
पत्थिता [(भवेत) + (युगपत्)+(उत्थिता)] भवेत् (भू) विधि 3/1 प्रक. युगपत् (म)= एक ही समय. उत्थिता (उद्-स्था--उद्-स्थित
स्त्री उत्थित-+उत्थिता) भूकृ 1/1. यदि (प्र)=यदि भाः (भास्) 1/1
- स्त्री सद्दशी (सदृश+सहशी) 1/1 वि स (तत्) 1/1 सवि स्याभासस्तस्य [(स्यात्) + (भासः) + (तस्य)] स्यात् (प्र) =शायद. भासः (भास्1)
6/1. तस्य (तत्) 6/1 स. महात्मनः (महात्मन्) 6/1. 124. स्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य [(त्वम्) + (अक्षरम्) + (परमम्) +
(वेदितव्यम्) +(त्वम्) + (अस्य)] त्वम् (युष्मद्) 1/1 स. अक्षरम् (अक्षर) 1/1 वि. परमम् (परम) 1/1 वि. वेदितव्यम् (विद्) विधि कृ 1/1. त्वम् (युष्मद्) 1/1 स. अस्य (इदम्) 6/1 स. विश्वस्य 6/1 परं निषानम् [(परम्)+ (निधानम्)] परम् (पर) 1/1 वि. निधानम् (निधान) 1/1. त्वमव्ययः ] (त्वम्) + (अव्ययः)] त्वम् (युष्मद्) 1/1 स. अव्ययः (अव्यय) 1/1 वि. शाश्वतधर्मगोप्ता [(शाश्वत) वि-(धर्म)-(गोप्तृ) 1/1 वि] सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे [(सनातनः) + (त्वम्) + (पुरुषः)+ (मतः)+(म)] सनातनः (सनातन) 1/1 वि. त्वम् (युष्मद्) 1/1 स. पुरुषः (पुरुष) 1/1. मतः (मन्+मत) भूकृ 1/1 मे (प्रस्मद्) 6/1 स. 1. 'भास्' (स्त्रीलिंग)मामा 2. कृदन्त (मतः) के योग में कर्ता (अस्मद्) में षष्ठी
110
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गीता
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125. भक्त्या (भक्ति) 3/1 त्वनन्यया [(तु)+ (अनन्यया)] तु (प्र)=परन्तु.
स्त्री अनन्यया (अनन्य--अनन्या) 3/1 वि. शक्य अहमेवंविषोऽर्जुन [(शक्यः) + (महम्)+(एवंविधः) + (अर्जुन)] शक्यः (शक्य) 1/1 वि. अहम् (अस्मद्) 1/1 स. एवंविधः (एवंविष) 1/1 वि. अर्जुन (अर्जुन) 8/1. ज्ञातुं द्रष्टुं च [(ज्ञातुम्)+ (द्रष्टुम्) + (च)] ज्ञातुम् (शा) हेकृ. द्रष्टुम् (दश) हेकृ. च (अ)=ौर. तत्त्वेन (क्रिविन)= वास्तव में. प्रवेष्टंच [(प्रवेष्टुम्) + (च)] प्रवेष्टुम् (प्र-विश्+प्रवेष्टुम्) हेकृ. च (अ)= तथा परंतप (परंतप) 8/1.
126. मत्कर्मकुन्मत्परमो मभक्तः [(मत्कर्मकृत)+ (मत्परमः)+ (मभक्तः)]
मत्कर्मकृत् [(मत्कमंन्+मत्कर्म)-(कृत) 1/1 वि]. मत्परमः - (मत्परम) 1/1 वि. मद्भक्तः (मभक्त) 1/1 वि. सङ्गजितः
[(सङ्ग)-(वृज्+वजित) भूकृ 1/1] निर्वरः (निर्-वैर) 1/1 वि सर्वभूतेषु [(सर्व)- (भूत) 7/3] यः (यत्) ।/1 सवि. स मामेति [(सः) + (माम्) + (एति)] सः (तत्) 1/1 सवि. माम् (अस्मद्) 2/1 स. एति (इ) व 3/1 सकृ. पासव (पाण्डव) 8/1.
127. एवं सततयुक्ता ये [(एवम्) + (सततयुक्ताः ) + (ये)] एवम् (प)=
इस प्रकार. सततयुक्ताः [ (सतत) वि-(युज्-+युक्त) भूक 1/3] ये (यत्) 1/3 सवि. भक्तास्त्वां पर्युपासते ।(भक्ताः ) + (त्वाम्) + (पर्युपासते)] भक्ताः (भक्त) 1/3 त्वाम् (युष्मद्) 2/1 स. पर्युपासते (पर्युप-प्रास्) व 3/3 सक. ये (यत्) 1/3 सवि. चाप्यक्षरमव्यक्तं
1. कृत् (वि):समास के अन्त में प्रयुक्त ।
चयनिका ]
111 ].
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तेषां के [(च) + (अपि) + (अक्षरम्)+ (अव्यक्तम्) + (तेषाम्) + (के)] च (अ)=और. अपि (अ)=केवल. अक्षरम् (अक्षर)2/1 वि. अव्यक्तम् 2/1 वि. तेषाम् (तत्) 6/3 स. के (किम्) 1/3 सवि. योगवित्तमाः [(योग)- (विद्+तम= वित्तम) 1/3 वि]
. 128. मय्यावश्य [(मयि) + (आवेश्य)] मयि (प्रस्मद्) 7/1. आवेश्य
(प्रा-विश्+आवेशय्-+मावेश्य) पूकृ. मनो ये . [ (मनः) + (ये)] मनः (मनस्) 2/1. ये (यत्) 1/3 सवि. मां नित्ययुक्ता उपासते [(माम्) + (नित्य युक्ताः ) + (उफासते)] माम् (अस्मद्) 2/1 स. नित्ययुक्ताः [ (नित्य) वि-(युज्+युक्त) भूक 1/3]. उपासते (उपप्रास्) व 3/3 सक. श्रद्धया (श्रद्धा) 3/1 परयोपेतास्ते [ (परया) + (उपेता.)+(ते)] परया (पर+परा) 3/1 वि. उपेताः (उपेत). 1/3 वि. ते (तत्) 1/3 सवि. मे (अस्मद्) 6/1 स. युक्ततमा मताः [(युक्ततमाः) + (मताः)] युक्ततमाः (युक्ततमा) 1/3 वि. मताः (मन्+मत) भूक 1/3..
29. ये (यत्) 1/3 सवि त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते [(तु)+ (अक्षरम्)
+ (अनिर्देश्यम्) + (अव्यक्तम्) + (पर्युपासते)] तु (अ)= और. अक्षरम् (अक्षर) 2/1 वि. अनिर्देश्यम् (अनिर्देश्य)2/1 वि. अव्यक्तम् (अव्यक्त) 2/1 वि. पर्युपासते (पर्युप-प्रास्) व 3/3 सक. सर्वत्रगमचिन्त्यं च [(सर्वत्रगम्)+ (अचिन्त्यम्) + (च)] सर्वत्रगम् (सर्वत्रग)
1. समुदाय में से एक के छांटने में, जिसमें से छांटा जाए उसमें षष्ठी या सप्तमी
होती है।
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गीता ]
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2/1 वि. अचिन्त्यम् (अचिन्त्य) 2/1 वि. च (प्र)=ोर. कूटस्थमचलं ध्र वम् [(कूटस्थम्) + (प्रचलम्) + (ध्र वम्)] कूटस्थम् (कूटस्थ)
2/1 वि. प्रचलम् (प्रचल) 2/1 वि. ध्रुवम् (ध्रुव) 2/1 वि. 130. संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र [(संनियम्य) + (इन्द्रियग्रामम्)+ (सर्वत्र)]
संनियम्य (संनि-यम्) पूकृ. इन्द्रियग्रामम् (इन्द्रियग्राम) 2/1. सर्वत्र (अ)= हर समय. समबुख्यः (समबुद्धि) 1/3 वि. ते (तत्) 1/3 सवि प्राप्नुवन्ति (प्र-प्राप्) व 3/3 सक. मामेव [(माम्) + (एव)] माम् (अस्मद्) 2/1 स. एव (प्र)=ही. सर्वभूतहिते [(सर्व)-(भूत) - (हित) 7/1] रताः (रम्+रत) भूकृ 1/3.
131. क्लेशोऽधिकतरस्तेवामव्यक्तासक्तचेतसाम् [(क्लेशः) + (अधिकतरः)+
(तेषाम्) + (अव्यक्त) + (प्रासक्त) + (चेतसाम्)] क्लेशः (क्लेश) 1/1. अधिकतरः (मधिकतर) 1/1 वि. तेषाम् (तत्) 6/3 स. [(अव्यक्त) वि-(प्रा-सङ्ग्यासक्स). भूक-(चेतस्) 6/3] अव्यक्ता
__ स्त्री (अव्यक्त-अव्यक्ता) 1/1 वि हि (अ)=क्योंकि. गतिर्दुखं बेहवद्भिरवाप्यते [(मतिः) + (दुःखम) + (देहवभिः ) + (अवाप्यते)] गतिः 1/1. दुःखम् (क्रिविन)=कठिनाई से. देह दिभः (दहवत्) 3/3.
, कर्म प्रवाप्यते (प्रव-प्राप्+अवाप्य) व कर्म 3/1 सक.
132. मम्येव [(मयि)+ (एव)] मयि (अस्मद्) 7/3 स. एव. (अ)=ही
मन प्रापत्स्व [(मनः)+ (माधत्स्व)] मनः (मनस्) 2/1. प्राधत्स्व (मा-बा) प्राज्ञा 2/1 सक.. बुद्धि निवेशय [(बुद्धिम्) + (निवेशय)]
चयनिका
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बुद्धिम् (बुद्धि) 2/1. निवेशय (नि-विश्+निवेशय) प्रे. प्राज्ञा 2/1 सक. निवसिष्यसि (नि-वस्) भवि 2/1 अक. मन्येव [(मयि) + (एव)] मयि (अस्मद्) 7/1 स. एव (म)=ही. प्रत उध्वं न [(प्रत ऊध्वंम्) + (न)] प्रतऊर्ध्वम् (प्र)= इसके पश्चात् न (प्र) =नहीं.
संशय (संशय) 1/1 133. अथ (अ)=यदि. चित्तं समाषातुं न [(चित्तम्) + (समाधातुम्) +
(न)] चित्तम् (चित्त) 2/1. समाषातुम् (समा-धा) हेकृ. न (अं)= नहीं. शक्नोषि (शक्) व 2|| सक मयि (अस्मद्) 7/1 स्थिरम् (स्थिर) 2/1 वि. अभ्यासयोगेन [(अभ्यास)-(योग) 3/1] ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय [(ततः) + (माम्) + (इच्छ) + (पाप्तुम) + (धनंजय)] ततः (म)=तो. माम् (अस्मद्) 2/1 स. इच्छ (इष्)
आज्ञा 2|| सक. प्राप्तुम् (प्राप्) हेकृ. धनंजय (धनंजय) 8/1. 134. अभ्यासेप्यसमर्थोऽसि [(प्रभ्यासे) + (पि) + (असमर्थः) + (प्रति )]
अभ्यासे (अभ्यास) 7/1. पि2 (अ) = भी. असमर्थः (असमर्थ) 1/1 वि. असि (प्रस्) व 2/1 अक. मत्कर्मपरमो भव [(मत्कर्म) + (परमः) + (भव)] [(मत्कर्मन्+मत्कर्म)-(परम) 1|| वि] भव (भू) प्राज्ञा 2/1 अक. मदर्थमपि [(मदर्थम्)+(अपि)] मदर्थम् (अ)=मेरे लिए. अपि (अ)= भी. कर्माणि (कर्मन्) 2/3. कुर्वन्सिहिमवाप्स्यसि [(कुर्वन्) + (सिद्धिम्) + (प्रवाप्स्यसि)] कुर्वन् (कृ+ कुर्वत) व 1/1. सिद्धिम् (सिद्धि) 2/1. अवाप्स्यसि (अव-प्राप्)
भवि 2/1 सक. 1. स्थिर (वि)=श्रद्धालु 2. पि-अपि (कई बार '' का लोप हो जाता है।)
माप्टे : हिन्दी-संस्कृत कोश ।
-
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135. अर्थतदप्यशक्तोऽसि [(अथ) + (एतत्) + (अपि) + (प्रशक्तः) +
(असि)] प्रथ (प्र)=यदि. एतत् (एतत्) 2/1 सवि. अपि (म)= भी. अशक्तः (अशक्→अशक्त) भूकृ 1/1. असि (अस्) व 2/1 अक. कर्तुं मद्योगमाश्रितः [(कर्तुम्) + (मद्योगम्) + (प्राश्रितः)] कर्तुम् (कृ--कर्तुम) हेकृ. मद्योगम् (मद्-योग) 2/1. पाश्रितः (मा-धि
आश्रित) भूक 1/1. सर्वकर्मफलत्यागं ततः । (सर्वकर्मफलत्यागम्) + (ततः)] सर्वकर्मफलत्यागम् [(सर्व) बि-(कर्मन्- कर्म)-(फल)(त्याग) 2/1]. ततः (अ)=तो.कुरु (कृ) प्राज्ञा 2/1 सक. यतात्मवान् [(यत)+ (प्रात्मवान्)] [(यम्-+यत) भूक- (प्रात्मवत्) 1|| वि].
136. प्रद्वेष्टा (अद्वेष्टु) 1/1 वि सर्वभूतानां मैत्रः [(सर्वभूतानाम्) +
(मैत्रः)] सर्वभूतानाम् [(सर्व) वि-(भूत) 613]. मैत्रः (मैत्र) 1/1 वि. करण एव [(करुणः) + (एव)] करुणः (करुण) 1/1 वि. एव (म)=ही. च (अ)=और निर्ममो निरहंकार [(निमंमः) + (निरहमार:)] निर्ममः. (निर्मम) 1/1 वि. निरहंकारः (निरहकार) 1/1 वि. समदुःखसुखः (समदुःखसुख)1/1 वि ममी (क्षमिन्) 1/! वि.
137. संतुष्टः (संतुष्+संतुष्ट) भूकृ 1/| सततं योगी [(सततम्)+
(योगी)] सततम् (अ)=सदा. योगी (योगिन्) 1/1 वि. यतारमा . (यतात्मन्) 1/1 वि दृढनिश्चयः (दृढनिश्चय) 1/1 वि. मर्पित. मनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः [ (मयि) + (अर्पितमनोबुद्धिः) + (यः)] मयि
(अस्मद्) 7/1 सं. अर्पितमनोबुद्धिः (अर्पितमनोबुद्धि) 1/1 वि. य:
1. 'कर्म' के साथ कर्तृवाच्य में प्रयुक्त होता है।
(माप्टे, सं. हि. कोश) 2. मात्मवत् (वि)=शान्त
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(यत्) 1/1 सवि. मद्भक्तः (मद्भक्त) 1./1. स मे [(सः) + (मे)]
सः (तत्) 1/1 सवि. मे (अस्मद्) 4/1 स. प्रियः (प्रिय) 1/1 वि. 138. यस्मान्नोद्विजजे [(यस्मात्) + (न)+(उद्विजते)] यस्मात् (म)=
जिससे. न (अ)=नहीं. उद्विजते (उद्-विज्) व 3/1 अक. लोको लोकान्नोटिजते [(लोकः)+ (लोकात्) + (न) + (उद्विजते)] लोकः (लोक) 1/1. लोकात (लोक) 5/1. न (प्र)= नहीं. उद्विजते (उद्विज्) व 3/1 अक. च (अ)=और यः (यत्) 1/1 सवि. हर्षामर्षभयोगर्मुक्तो यः [(हर्ष) + (अमर्ष) + (भय) + (उद्घ गैः) + (मुक्तः) + (यः)] [(हर्ष)-(प्रमर्ष)-(भय)-(उद्वेग) 3/3] मुक्तः (मुच्+ मुक्त) भूकृ 1/1. यः (यत्) 1/1 सवि. स च [(सः) + (च)] सः (तत्) 1/1 वि. च (प्र)=ौर. मे (अस्मद्) 4/1 स. प्रिय: (प्रिय) 1/1 वि.
139. अनपेनः (अनपेक्ष) 1/1 वि शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्ययः [(शुचिः)
+(दक्षः) + (उदासीनः) + (गतव्यथः)] शुचिः (शुचि) 1/1 वि. दक्षः (दक्ष) 1/1 वि. उदासीनः (उदामीन) 1/1 वि. गतव्यथः (गतव्यथ) 1/1 वि. सर्वारम्भपरित्यागी [(सर्व) वि-(प्रारम्भ)-(परित्यागिन्) 1/1 वि] यो मद्भक्तः [(यः) + (मभक्तः)] यः (यत्) 1/1 सवि. मद्भक्तः (मद्भक्त)1/1 स मे [ (सः) + (मे)] सः (तत्)
1/1 सवि. मे (अस्मद्) 4/1 स. प्रियः (प्रिय) 1/1 वि. . 140. यो न [(यः)+ (न)] यः (यत्) 1/1 सवि. न (म)=नहीं. हण्यति
(हः) व 3/1 अक न (म)=नहीं वेण्टि (विष्) व 3/1 सक न (अ)=नहीं शोचति (शुच्) व 3/1 प्रक न (अ)= नहीं. काक्षति (कार) व 3/1 सक शुभाशुभपरित्यागी[(शुभ)+ (अशुभ) + (परि
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त्यागी)] [ (शुभ) वि- (अशुभ) वि-(परित्यागिन्) 1/1 वि] भक्तिमान्यः [(भक्तिमान्) + (यः)] भक्तिमान् (भक्तिमत्) 1/। वि. यः (यत्) 1/। सवि. स मे [(सः) + (मे)] सः (तत्) 1/1 सवि. मे (अस्मद्) 4/1 स. प्रियः (प्रिय) 1/1 वि.
41. समः (सम) 1/1 वि शत्रौ (शत्रु)7!1 च (अ)= पोर मित्रे (मित्र)
7/1 च तथा (अ)=तथा मानावमानयोः [(मान)+ (अवमानयोः)] [(मान)-(अवमान) 7/2] शीतोष्णसुखदुःखेषु [(शीत) + (उष्ण) (सुख) + (दुःखेषु)] [(शीत)-(उष्ण)-(सुख)-(दुःख) 7/3] समः (सम) 1/1 वि सङ्गविजितः [(सङ्ग)-(विवृज-वि-वजित) भूक 1/1]
142. तुल्यनिन्दास्तुतिमौ नी [(तुल्य) + (निन्दा) + (स्तुतिः) + (मौनी)]
[(तुल्य) वि-(निन्दा)-(स्तुति) 1/1]. मौनी (मौनिन्) 1/1 वि. संतुष्टो येन केनचित् [(संतुष्टः) + (येन केनचित्)] संतुष्ट: (संतुष्) भूक 1/1. येन केनचित् (प्र) =जिस किसी से. अनिकेतः (अनिकेत) 1/1 वि. स्थिरमतिभंक्तिमान्मे [(स्थिरमतिः) + (भक्तिमान्) + (मे)] स्थिरमतिः (स्थिरमति) 1/1 वि. भक्तिमान् (भक्तिमत्) 1/1 वि. मे (अस्मद्) 4/1 स. प्रियो नरः [(प्रियः) + (नरः)] प्रियः
(प्रिय) 1/1 वि. नरः (नर) 1/1.. 143. प्रमानित्वमम्भित्वमहिंसा [(प्रमानित्वम्) + (अदम्भित्वम्) +
(अहिंसा)] अमानित्वम् (प्रमानित्व) 1/1. अहिसा (अहिंसा)] 1/1. शान्तिराजवम् [(क्षान्तिः)+ (प्रार्जवम्)] क्षान्तिः (क्षान्ति) 1/1. पार्जवम् (मार्जव) 1/1. प्राचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः [(प्राचार्य) + (उपासनम्) + (शौचम्) + (स्थर्यम्) + (प्रात्मविनिग्रहः)]
चयनिका
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].
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[ ( प्राचार्य) - ( उपासन) 1 / 1]. शौचम् (शौच) 1 / 1. स्थैर्यम् ( स्थैर्य ) 1 / 1. आत्मविनिग्रहः [ ( प्रात्मन् श्रात्म ) - (विनिग्रह ) 1 / 1 ]
+
144. इन्द्रियार्थेषु [ ( इन्द्रिय) + (अर्थेषु ) ] [ ( इन्द्रिय) – (अर्थ) 7/3] वैराग्यमनहंकार एव च [ ( वैराग्यम्) + ( प्रनहंकार :) + ( एव च ) ] वैराग्यम् (वैराग्य) 1 / 1 ग्रनहंकार : ( धन्- ग्रहंकार नहंकार) एव च (प्र) = श्रौर जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् [ (जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोष) + (अनुदर्शनम् ) ] [ (जन्म) – (मृत्यु) – (जरा) ( व्याधि) – (दुःख) – ( दोष ) – धनुदर्शन ) 1 / 1 ].
-
-
नित्यम्,
145. प्रसक्तिरमभिः [ ( प्रसक्ति:) + (ग्रनभिष्वङ्गः ) ] ग्रसक्तिः (प्रसक्ति) 1 / 1 प्रनभिष्वङ्गः (अन् - प्रभिष्वङ्ग) 1 / 1. पुत्रदारगृहादिषु [ (पुत्र) - (दार) - (गृहादि ) 7/3] नित्यं च [ ( नित्यम्) + (च) (नित्य) 1 / 1 वि. च ( अ ) = और. समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु [ ( सम) + (चित्तत्वम्) + (इष्ट) + (अनिष्ट) + ( उपपत्तिषु ) ] [ (सम) वि - (चित्तत्व) 1 / 1] [ (इष्ट) वि (प्रनिष्ट) वि- ( उपपत्ति) 7/3]
46. मयि ( अस्मद) 7/1 स चानन्ययोगेन ( (च) + (अनन्ययोगेन ) ] च ( अ ) = श्रीर. अनन्ययोगेन [ ( अनन्य ) त्रि - (योग) 3 / 1]. भक्तिव्यभिचारिणी [ ( भक्तिः) + (श्रव्यभिचारिणी )] भक्तिः (भक्ति) 1 / 1. प्रव्यभिचारिणी ( श्रव्यभिचारिन् श्रव्यभिचारिणी) 1 / 1 वि विविक्तवेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि [ ( विविक्तदेशसे वित्वम्) + ( प्र रतिः) + ( जनसंसदि) विविक्तदेश मे वित्वम् [ (वि- विच् + विविक्त) भूक - (देश) - ( सेवित्व) 1/1] अरति: ( अरति) 1 / 1. जनसंसदि [ ( जन ) - ( संसद्) 7/1].
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गीता
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147. अध्यात्मशाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्षदर्शनम् [(अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम्)
+ (तत्त्व) + (मान) + (अर्थ) + (दर्शनम्) अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम् [(अध्यात्म)-(ज्ञान)-(नित्यत्व) 1/1]. [(तत्व)-(ज्ञान)(अर्थ)-(दर्शन) 1/1]. एतन्मानमिति [(एतद) +(ज्ञानम्) + (इति)] एतत् (एतद) 1/1 सवि. ज्ञानम् (ज्ञान)1/1. इति (म)= समूह बोषक. प्रोक्तमज्ञानं यवतोऽन्यथा [(प्रोक्तम्) + (मज्ञानम्) + (यद) + (प्रतः) + (अन्यथा)] प्रोक्तम् (प्र-वच्-प्र-उक्त+प्रोक्त) भूक 1/1. प्रज्ञानम् (प्रशान) 1/1. यत् (यत्) 1/1 सवि. प्रतः (अ)= इसलिए. अन्यथा (म) = इसके विपरीत.
148. ध्यानेनात्मनि [(ध्यानेन) + (आत्मनि)] ध्यानेन (ध्यान) 3/1.
प्रात्मनि (प्रात्मन्) 7/1. पश्यन्ति (द) व 3/3 सक. केचिदात्मानमात्मना [(केचित) + (मात्मानम्) + (मात्मना)] केचिद (किम्चित्) 1/3 स. प्रात्मानम् (प्रात्मन्) 2/1. प्रात्मना (मात्मन्) 3/1. अन्ये (अन्य) 1/3 सवि. सांख्येन (सांस्य) 3/1 योगेन (योग) 3/1 कर्मयोगेन (कर्मयोग) 3/1 बापरे [(च) + (मपरे)] च (अ)=और. अपरे (प्रपर) 1/3 वि.
149. अन्ये (अन्य)1/3 सवि त्वेवमजानन्तः [(तु)+ (एवम्)+ (अनानन्त:)]
तु (म)=किन्तु. एवम् (म)=इस प्रकार. प्रजानन्तः (म-जा--- जानत) वकृ. 1/3. श्रुत्वान्येभ्य उपासते [(श्रुत्वा)+ (अन्येभ्यः)+ (उपासते)] श्रुत्वा (७) प्रकृ. अन्येभ्यः (अन्य) 513 सवि. उपासते (उप-पास्) व 3/3 सक. तेपि [(ते) + (अपि)] ते (तत्) 1/3 सवि. अपि (म)=भी. चातितरन्त्येव [(च)+ (प्रतितरन्ति)+(एव)] चं (म)=ौर. अतितरन्ति (पति-तृ) व 3/3 सक. एव (म)=
चयनिका
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निस्सन्देह. मृत्यु श्रुतिपरायणाः [(मृत्युम्) + (श्रुतिपरायणाः)] मृत्युम
(मृत्यु) 2/1. श्रुतिपरायणाः [(श्रुति)-(परायण) 1/3 वि] 150. सत्त्वं रजस्तम इति [सत्वम्) + (रजः) + (तमः) + (इति)] सत्त्वम्
(सत्त्व) 1/1. रजः (रजस्) 1/1 तमः (तमस्) 1/1. इति (प्र) = इस प्रकार. गुणाः (गुण) 1/3. प्रकृतिसंभवाः [(प्रकृति)-(संभव) 1/3 वि] निबध्नन्ति (निबन्ध) व 3/3 सक महाबाहो (महाबाहु) 8/1 देहे (देहे) 7/1 देहिनमव्ययम् [(देहिनम्)+ (अव्ययम्)] देहिनम् (देहिन्) 2/1. अव्ययम् (अव्यय) 2/1.. .
151. सर्वद्वारेषु [(सर्व) वि-(द्वार) 7/3] देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते
[(देहे) + (अस्मिन्) + (प्रकाशः) + (उपजायते)] देहे (देहे) 7/1. अस्मिन् (इदम्) 7/1 सवि प्रकाशः (प्रकाश) 1/1. उपजायते (उप
-जन्) व 3/1 अक. ज्ञानं यदा तदा [(ज्ञानम्) + (यदातदा)] ज्ञानम् (ज्ञान)1/1. यदा तदा (अ)=जब कभी विद्याद्विवलं सत्त्वमित्युत [(विद्याद) + (विवृतम्) + (सत्त्वम्) + (इति) + (उत)] विद्यात् (विद्) विधि 3/1 सक. विवृद्धम् (वि-वृष्-विवृद्ध) भूक 1/1.
सत्त्वम् (सत्त्व) 1/1. इति (म)= इस तरह. उत (अ) =और. 152. लोभः (लोभ) 1/1. प्रवृत्तिरारम्भः [(प्रवृत्तिः) + (प्रारम्भः)]
प्रवृत्तिः (प्रवृत्ति) 1/1. प्रारम्भः (प्रारम्भ) 1/1. कर्मणामशमः [(कर्मणाम्) + (प्रक्षमः)] कर्मणाम् (कर्मन्) 6/3. प्रशमः (प्र
1. परायण (वि) : समास के अन्त में प्रयुक्त होने पर इसका अर्थ होता है माश्रित मावि
(पाप्टे, सं. हि. कोश) 2. समास के अन्त में अर्थ होता है : उत्पन्न ।
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गीता
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शम) 1: 1. स्पृहा (स्पृहा) 1/1 रजस्येतानि [(रजसि) + (एतानि)] रजसि (रजस्) 7/1. एतानि (एतत्) 1/3 सवि. जायन्ते (जन्) व 3/3 अक विवृद्ध (वि-वृष्--विवृद्ध) भूकृ 7/1 भरतर्षभ [ (भरत) + (ऋषभ)] [(भरत)-(ऋषभ) 8/1]
153. अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च [(अप्रकाशः) + (अप्रवृत्तिः) + (च)] अप्रकाशः
(अप्रकाश) 1/1. अप्रवृत्तिः (अप्रवृत्ति) 1/1. च (अ)=ौर. प्रमादो मोह एव च [(प्रमादः) + (मोहः)+ (एव च)] प्रमादः (प्रमाद) 1/1. मोहः (मोह) 1/1. एव च (अ) तथा. तमस्येतानि [(तमसि)+ (एतानि)] तमसि (तमस्)7/1. एतानि (एतत्) 1/3 सवि. जायन्ते (जन्) व 3/3 अक विवृहे (वि-वृध्-+वि-वृद्ध) भूक 7/1 कुरुनन्दन (कुरुनन्दन) 8/1.
____154. नान्यं गुणेभ्यः [(न) + (अन्यम्)+ (गुणेभ्यः)] न (अ)= नहीं अन्यम्।
(अन्य) 2/1 सवि. गुरणेभ्यः (गुण) 5/3. कर्तारं यदा [(करिम) + (यदा)] कर्तारम् (कर्तृ) 2/I वि. यदा (अ)=जब. द्रष्टानुपश्यति [(द्रष्टा)+ (अनुपश्यति)] द्रष्टा (द्रष्ट्र) 1/1. अनुपश्यति (अनु-श्) व 3/1 सकः गुणेभ्यश्च [(गुणेभ्यः)+ (च)] गुणेभ्यः (गुण) 5/3. च (प्र) =ौर. परं वेत्ति [(परम्) + (वेत्ति)] परम् (पर)2/1 वि.
1. भिन्न अथवा प्रतिरिक्त अर्थ बोधक 'अन्य, 'पर' के योग में पंचमी विभक्ति होती है।
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वेत्ति (विद ) व 3 / 1 सक. मद्द्भावं सोऽधिगच्छति [ ( मद्भावम्) + (सः) + (प्रधिगच्छति ) ] मद्भावम् ( मद्भाव ) 2 / 1. सः (तत्) 1 / 1 सवि. अधिगच्छति (प्रधि - गम्) व 3 / 1 सक.
-
155. गुरणानेतानतीत्य [ ( गुणान्) + ( एतान् ) + (प्रतीत्य ) ] गुरणान् (गुण) 2 / 3. एतान् ( एतत् ) 2/3 सवि प्रतीत्य (प्रति इ + प्रति इत्य + प्रतीत्य) पूकृ. श्रीन्देही [ ( त्रीन्) + (देही) ] त्रीन् (त्रि) 2/3 वि. देही ( देहिन् ) 1 / 1 बेहसमुद्भवान् [ (देह) - ( समुद्भव 1 ) 2/3 वि] जन्ममृत्युजरादुःखैविमुक्तोऽमृतमश्नुते [ ( जन्ममृत्युजरादुख:) + ( विमुक्त:) + (प्रमृतम्) + (प्रमुते ) ] जन्ममृत्युजरादुःखैः [ (जन्म) - (मृत्यु) – (जरा) – (दुःख) 3/3] विमुक्त: (वि- मुच् विमुक्त) भूकृ 1 / 1 प्रमृतम् (अमृत) 2 / 1. प्रश्नुते ( प्रश्) व 3 / 1 सक.
-
156. समदुःखसुखः [[ (सम) वि- (दुःख) - (सुख) 1 / 1 ]वि ] स्वस्थ : ( स्वस्थ ) 1 / 1 वि. समलोष्टाश्मकाञ्चनः [ ( सम) + (लोष्ट) + (प्रश्म) + ( काञ्चनः ) ] [[ (सम) वि- (लोष्ट ) - ( अश्मन् श्म) - ( काञ्चन) 1 / 1] वि] तुल्य-प्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः [ ( तुल्य) + ( प्रिय) + (अप्रियः ) + (षीर:) + (तुल्य) + ( निन्दा ) + (ग्रात्म) + (संस्तुति:)] [[ ( तुल्य) वि- ( प्रिय) - (अप्रिय) 1 / 1] वि] धीरः (धीर) 1/1 वि [[ (तुल्य) वि- ( निन्दा ) - ( प्रात्मन् (egfar) 1/1]far]
ग्रात्म) -
---
157. मानावमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः [ (मान) + ( श्रवमानयोः ) ] + (तुल्यः) + (तुल्यः) + (मित्र) - (अरि ) + (पक्षयोः ) ] [ (मान) -
-
1. समास के अन्त में इसका अर्थ होता है 'उत्पन्न, जन्म लेते हुए प्रादि । ( प्राप्टे : संस्कृत-हिन्दी कोश )
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गीता
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(अपमान) 7/2] तुल्यः (तुल्य) 1 1 वि. तुल्यः (तुल्य) 1/1 वि. [(मित्र)- (अरि)-(पक्ष) 7/2]. सर्वारम्भपरित्यागी [(सर्व) + (प्रारम्भ) + (परित्यागी)] [(सर्व) वि-(प्रारम्भ)-(परित्यागिन्) 1/1 वि]. गुरणातीतः [ (गुण) + (प्रतीतः)] [(गुण)- (अतीत) 1/1 वि] स उच्यते [ (सः) + (उच्यते)] सः (तत्) 1/1 सवि. उच्यते (वच्--
उच्यते) व कर्म 3/1 सक. 158. मां च [(माम्) + (च)] माम् (अस्मद्) 2/1 स. च (अ)=और.
योऽव्यभिचारेण [(यः)+ (अव्यभिचारेण)) यः (यत्) 1/1 सवि. अव्यभिचारेण (अव्यभिचार) 3/1. भक्तियोगेन [(भक्ति)- (योग) 3/1] सेवते (सेव्) व 3/1 सक स गुणान्समतीत्यतान्ब्रह्मभूयाय [ (सः) + (गुणान्) + (समतीत्य) + (एतान्) + (ब्रह्मभूयाय)] सः (तत्) 1/। सवि. गुणान् (गुण) 2/3. समतीत्य (सम्-प्रति-इ+ सम्-अति-इत्य-+समतीत्य) पूकृ. एतान् (एतत) 2/3 सवि. ब्रह्मभूयाय
(ब्रह्मभूय) 4/1. कल्पते (क्लप्) ब3/} प्रक. 159. यतन्तो योगिनरचनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् [(यतन्तः)+ (योगिनः) ।
(च) + (एनम्) + (पश्यन्ति) + (प्रात्मनि) + (अवस्थितम्)] यतन्तः (यत्-यतत्) वकृ 1/3. योगिनः (योगिन्) 1/3. च (प्र)= ही. एनम् (एन) 2/1 सवि. पश्यन्ति (ड) व 3/3 सक. प्रात्मनि (प्रात्मन्) 7/1. अवस्थितम् (प्रव-स्था-+अव-स्थित+ अवस्थित) भूक 2/1. यतन्तोऽयकृतात्मानो नैनः पश्यन्त्यचेतसः [(यतन्तः)+(अपि) + (प्रकृतात्मानः)+ (न) + (एनम्) + (पश्यन्ति)
1, संप्रदान के साथ इसका अर्थ होता है : 'योग्य होना' । चयनिका.
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+ (अचेतसः)] यतन्तः (यत्-+यतत्) वकृ 1/3. अपि (अ) = भी. अकृतात्मानः (प्र-कृतास्मन्) 1/3 वि. न (अ)= नहीं. एनम् (एन)
2/1 सवि. पश्यन्ति (दृश्) व 3/3 सक. प्रचेतसः (अचेतस्) 1/3 वि. 160. अभयं सत्त्वसंशुविनियोगव्यवस्थितिः [ (अभयम्) + (सत्त्वसंशुद्धिः) +
(ज्ञानयोगव्यवस्थितिः)] अभयम् (अभय) 1/1. सत्त्वसंशुद्धिः . (सत्त्वसंशुद्धि) 1/1. ज्ञानयोगव्यवस्थितिः [(ज्ञान)-(योग)- (व्यवस्थिति) 1/1] दानं दमश्च [(दानम्) + (दमः) + (च)] दानम् (दान) 1/1. दमः, (दम) I/I. च (अ)=ोर. यज्ञश्च [(यज्ञः) + (च)] यज्ञः (यज्ञ) 1/1. च (प्र) = और. स्वाध्यायस्तप प्रार्जवम् [(स्वाध्यायः)
+ (तपः)+ (प्रार्जवम्)] स्वाध्यायः (स्वाध्याय) 1/1. तपः (तपस्)
1/1. प्रार्जवम् (मार्जव) 1/1... 161. अहिंसा (अहिंसा) 1/1 सत्यमकोषस्त्यागः [ (सत्यम्) + (अक्रोधः) +
(त्यागः)] सत्यम् (सत्य) 1/1. अक्रोधः (अक्रोष) 1/1. त्यागः (त्याग) 1/1. शान्तिरपगुनम् [(शान्तिः) + (अपंशुनम्)] शान्तिः (शान्ति) 1/1. अपैशुनम् (अपैशुन) 1/1. क्या (दया) 1/1 मूतेष्वलोलुत्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् [(भूतेषु) + (अलोलुप्त्वम्) + (मार्दवम्) + (ह्री:)
+(अचापलम्)] भूतेषु (भूत) 7/3. अलोलुप्त्वम् (अलोलुप्त्व) 1/1. मार्दवम् (मार्दव) 1/1. ह्रीः (ह्री) 1/1. अचापलम् (अचापल)1/1.
62. तेजः (तेजस्) 1/1 क्षमा (क्षमा) 1/1. धृतिः (ति) 1/1
शौचमद्रोहो नातिमानिता [(शोचम्)+(प्रद्रोहः) + (न) + (प्रतिमानिता)] शौचम् (शौच) 1/1. अद्रोहः (प्रद्रोह) 1/1. न (अ)= नहीं. प्रतिमानिता (प्रतिमानिता) 1/1 भवन्ति (भू) व 3/3 अक. संपदं देवीमभिजातस्य [(संपदम्)+ (देवीम्) + (अभिजातस्य)] संपदम्
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गीता
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( संपद ) 2 / 1. देवीम् (देवी) 21 वि. अभिजातस्य (प्रभि - जन्' + अभिजात) भूकृ 6 / 1. भारत ( भारत ) 8 / 1.
163. दम्भो वर्षोऽतिमानश्च [ ( दम्भः) + (दर्पः) + (प्रतिमान:) +(च)] दम्भ: ( दम्भ ) 1/1. दर्प (दर्प) 1 / 1. प्रतिमान: ( प्रतिमान) 1 / 1. च (प्र) = श्रौर. क्रोध: (क्रोध) 1/1 पारुष्यमेव च [ ( पारुष्यम्) + ( एव च ) ] पारुष्यम् ( पारुष्य ) 1 / 1. एष च (प्र) = और. प्रज्ञानं चाभिजातस्य: [ (अज्ञानम्) + (च) + (अभिजातस्य ) ] अज्ञानम् (अज्ञान) 1 / 1. च ( प्र ) = तथा अभिजातस्य ( अभि-जन् प्रभिजात) भूकृ 6 / 1. पार्थ (पार्थ) 8/1 संपदमासुरीम् [ ( संपदम्) + (प्रासुरीम् ) ] संपदम् (संपद्) 2/1. ग्रासुरीम् (आसुरी ) 2 / 1 वि.
→
164. देवी (देवी) 1/1 वि संपद्विमोक्षाय [ ( संपद्) + (विमोक्षाय ) ] संपद् ( संपद) 1 / 1. विमोक्षाय (विमोक्ष) 4 / 1. निबन्धायासुरी [ ( निबन्धाय) + (प्रासुरी ) ] निबन्धाय (निबन्ध) 4 / 1. प्रासुरी (प्रासुरी) 1/1 वि. स्त्री
मता ( मन्मत→ मता ) मूकृ 1 / 1. मा ( प्र ) = मत ( प्र ) शुचः (शुच्3) मू 2/1 अक संपदं देवीमभिजातोऽसि [ ( संपदम् ) + (दैवीम् ) + (अभिजातः) + (असि ) ] संपदम् (संपद ) 2 / 1. दैवीम् (देवी) 2 / 1 वि. अभिजात : (अभि-जन् + अभिजात) भूकृ 1 / 1. असि (प्रस्) व 3/1 अक. पाण्डव ( पाण्डव) 8 / 1
1. अकर्मक धातुएं उपसर्ग लगने से प्रायः प्रर्थानुसार सकर्मक हो जाती हैं और उनके साथ कर्म का प्रयोग होता है ।
2. देखें श्लोक 162.
3.
' मा लुङ् (सामान्य भूत) लकार की क्रिया के साथ प्रयुक्त होता है, तब ग्रागम प्र का लोप हो जाता है, किन्तु अर्थ विधि का होता है ।
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165. प्रवृत्ति च [(प्रवृत्तिम्) +, (च)] प्रवृत्तिम् (प्रवृत्ति) 2/1. च (म)=
तथा निवृत्ति [(निवृत्तिम्)+ (च)] निवृत्तिम् (निवृत्ति) 211. च (अ) तथा जना न [(जनाः) + (न)] जनाः (जन) 1/3. न (म)=नहीं. विदुरासुसः [ (विदुः) + (मासुराः) ] विदुः (विद्) भू 3/3 सक. प्रासुराः (प्रासुर) 1/3 वि. न (अ)= नहीं. शौचं नाएि [(शौचम्) + (न) +अपि)] शौचम् (शौच) 1/1. न (अ)= नहीं. अपि (म)=ही. चाचारो न [(च)+(प्राचारः) + (न)] च (म)= और. प्राचारः (प्राचार) 1/1. न (अ)=नहीं. सत्यं तेषु [(सत्यम्) + (तेषु)] सत्यम् (सत्य) 1/1. तेषु (तत्) 7/3 स. विद्यते (विद्)
व 3/1 प्रक. 66. काममाश्रित्य [ (कामम्)+ (प्राश्रित्य)] कामम् (काम) 2/1. पाश्रित्य
(प्रा-त्रि-आश्रित्य) पूल दुष्पूरं बम्भमानमदान्विता [(दुष्पूरम्) + (दम्भ) + (मान) + (मद) + (अन्विताः)] दुष्पूरम् (दुष्पूर)2/1 वि. [(दम्भ)-(मान)-(मद)- (अन्वित) 1/3 वि]. मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिताः [ (मोहात)+ (गृहीत्वा)+ (असत्)+ (बाहान्) + (प्रवर्तन्ते) + (अशुचिव्रताः)] मोहात् (क्रिविन)=प्रज्ञान से. गृहीत्वा (ग्रह-गृहीत्वा) पू. [(प्रसत्)-(पाह)2/3]. प्रवर्तन्ते (प्र-वृद) व 3/3 सक. अशुचिताः [[(अशुचि) वि-(व्रत)
1/3] वि]. 167. चिन्तामपरिमेयां च [(चिन्ताम्) + (अपरिमेयाम्) + (च)] चिन्ताम्
स्त्री (चिन्ता) 2/1. अपरिमेयाम् (प्र-परिमेय--अपरिमेया) 2/1 वि. च (म)=तथा. प्रलयान्तामुपाश्रिताः [(प्रलयान्ताम्) + (उपाश्रिताः)] प्रलयान्ताम् (क्रिविम)= मृत्यु तक. उपाश्रिताः (उपा-श्रि-+उपाश्रित) भूक 1/3. कामोपभोगपरमा एतावदिति [(कामोपभोगपरमाः)+
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कामोपभोगपरमाः
( एतावत्) + (इति) ] [ काम) + ( उपभोग ) + (परमा: ) ] [ (काम) – ( उपभोग ) – (परम 1 ) 1/3 वि) एतावत् ( अ ) = इतने इति ( अ ) = इस तरह निश्चिता: ( निश्चित ) 1 / 3 वि.
168. प्रशापाशशतैर्बद्धा: [ ( प्राशा )
+ (पाश) + (शतैः) + ( बद्धाः ) ] [ ( प्राशा ) - (पाश) - (शत ) 3 / 3 ] बद्धा: ( बन्घ्बद्ध) भूकृ 1 / 3: कामक्रोधपरायणाः [ (काम) - (क्रोध) - ( परायण 2 ) 1/3 fa] ईहन्ते (ई) व 3/3 सक कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् [ (काम) + (भोग) + (अर्थम्) + ( प्रन्यायेन) + (अर्थ) + ( सञ्चयान् ) ] [ ( काम ) - (भोग) - (प्रर्थम्) चतुर्थी बोधक अव्यय ] अन्यायेन ( प्रन्याय) 3 / 1 [ ( प्रथं ) - ( सञ्चय) 2/3]
=
169. इदमद्य [ (इदम्) + (ख)] इदम् (इदम्) 1 / 1 सवि. अद्य ( प्र ) = श्राज मया (प्रस्मद् ) 3 / 1 स. लब्धमिदं प्राप्स्ये [ ( लब्धम् ) + (इदम्) + ( प्राप्स्ये ) ] लब्धम् (लम् + लब्ध) भृकृ 1 / 1. इदम् 8 (अ) = यहाँ. प्राप्स्ये ( प्र प्राप्) भवि 1 / 1 सक. मनोरथम् ( मनोरथ ) 2/1. इदमस्तीदमपि [ (इदम्) + (प्रस्ति ) + (इदम्) + (अपि)] इदम् (इदम्) 1 / 1 सवि. अस्ति (स्) व 1 / 1 प्रक. इदम् ( अ ) = इसी प्रकार अपि (प्र) = भी. मे (प्रस्मद्) 4 / 1 स भविष्यति (भू) भवि3 / 1 ग्रक पुनर्धनम् [ ( पुनर्) + ( धनम् ) पुनर् (प्र) = दुबारा धनम् (धन) 1 / 1.
1.
2.
3.
समास के अन्त में अर्थ होता है 'पूर्णतः संलग्न'
परायण (वि) : समास के अन्त में पर्थ होता है, वशीभूत प्रादि ( प्राप्टे, संस्कृतहिन्दी कोश )
इदम् (प्र) = here (यहाँ ), In this manner ( इसी प्रकार ) प्रादि (M. Williams, Sans-Eng. Dictionary)
चयनिका
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1
Page #173
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170. अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसभावृताः [(अनेकचित्तविभ्रान्ताः)+
(मोहजालसमावृताः)] अनेकचित्तविभ्रान्ता. [(अनेक) वि-(चित्त)(वि-भ्रम्-विभ्रान्त) कृ 1/3]. मोहजालसमावृताः [(मोह)(जाल)-(सम्-प्रा-वृ+समावृत) कृ 1/3] प्रसक्ताः (प्र-सञ्-प्रसक्त)
कृ1/3. कामभोगेषु [ (काम)-(भोग) 7/3] पतन्ति (पत्) व 3/3 प्रक. नरकेऽशुचौ [(नरके)+ (अशुचौ) ] नरके (नरक) 7/1. अशुची (अशुचि) 7/1 वि.
[ 128
गीता
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चयनिका
गीता
क्रम
क्रम
अध्याय 2 ( पर्व 24 )
1
2
3
4
5
6
7
8
9
10
11
12
13
गीता - चयनिका एवं गीता'
श्लोक- क्रम
चयनिका
13
20
22
23
39
40
41
44
47
48
50
51
54
चयनिका
क्रम
14
55
15
56
16
57
17
58
18
59
19
61
20
62
21
63
22
69
23
71
अध्याय 3 ( पर्व 25 )
गीता
क्रम
24
25
26
3
5
7
1 भीष्मपर्व (महाभारत की छठी पुस्तक) के
अन्तर्गत भगवद्गीतापर्व, सम्पादक, श्री एस. के. बेलवेलकर (भण्डारकर प्राच्य शोध संस्थान, पूना, 1947 )
चयनिका
क्रम
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गीता
क्रम
27
17
28
18
29
19
30
20
31
2.1
32
22
33
23
34
25
35.
26
36
27
37
28
38
29
39
42
अध्याय 4 (पर्व 26 )
40
16
129 ]
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________________
चयनिका
गीता
चयनिका
गीता
गीता चयनिका क्रम .
क्रम
क्रम
क्रम
क्रम
क्रम
19
20
26
37
66
60 1980
21 1761 2081
22 18 62 63
24 83 44
64
25 .84 25 45
21 अध्याय 6 (पवं 28) 46 22 65 , 2 86 28
4 87 . 29 38
67 5 88 31 39 68 . 6
89
32 790 41 70 891 अध्याय 5 (पर्व
71.
9 अध्याय (पर्व 29) ____ 2 72
10 92 4 73
13 93 54 5
1494 - 14 55 10 75
16
95 56 12 76
17 96
16 57 13, 77
18 97 58 1678 19 98
19 59 17 79 20 99 28
50
40
69
35
51
52
53
74
15
17
130
]
गीता
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________________
चयनिका क्रम
गीता चयनिका
गीता चयनिका
गीता
क्रम
क्रम
क्रम
क्रम
क्रम
17
18
19
___ 100
29. 119 3 4 अध्याय 8 (पर्व 30) अध्याय 10 (पर्व 32) 101
_120 20 102
अध्याय 11 (पर्व 33) 103 8 121
4 104
10 122 105
12 123 106
13
124 107
15 125 108 22 126
55 अध्याय 9 (पर्व 31) अध्याय 12(पर्व 34) 109
127 11014 128 111 15 129
3 112 22 130
4 113 . 26 . 131
5 114 - 27 132
8 115
133 116 29 134
10 117
30 135 . 11 31. 136
13
137 138
15 139
16 140 141 142 अध्याय 13 (पर्व 35) 143 144 145 146
10 147 148
24 149 मध्याय 14 (पर्व 36) 150 151
11 152
12 153
13 154 155
in
25
४
.
19
118
20
चयनिका
131 ]
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गीता
चयनिका क्रम
गीता चयनिका
क्रम
गीता चयनिका .. क्रम क्रम
क्रम
क्रम
..
7 10
151
156 24
25 158 मन्याय 15 (पर्व 37) 159 11
26
अध्याय 16 (पर्व 38)... 165 160
1 166 161
167 162 3 168 163
4 169 164
5. 170
12
.
13 16
000
132
गीता ]
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________________ "ISBN No. 978-81-89698-41-6] For Personal & Private Use Only wwwujainelibrary.org