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________________ लिए कर्म में डटा रहता है । इसलिए कर्मयोग ज्ञानयोग (कर्मसंन्यास) से श्रेष्ठ है। - उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि गीता के अनुसार कर्मयोगी लोक के लिए बहुत ही महत्त्व का है। इसी कोटि में भक्तयोगी व गुणातीत भी सम्मिलित हैं। यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि मनासक्तता कर्मयोग का प्राण है, किन्तु पूर्ण अनासक्तता प्रात्मानुभव के पश्चात् ही घटित होती है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि सामान्य व्यक्ति ऐसी स्थिति में कैसे चले ? इसके उत्तर में गीता का कहना है कि सामान्य व्यति यदि अनासक्त वृत्ति का बहुत थोड़ा सा अभ्यास भी करता है तो वह अत्यधिक मानसिक संकट से अपने माप को बचा सकता है (6) । यहाँ यह समझना चाहिए कि जितने अंश में अनासक्तता पाली जाती है, उतने ही अंश में व्यक्ति नैतिक-पाध्यात्मिक रष्टिकोण से आगे बढ़ता है । यद्यपि पूर्णता की प्राप्ति प्रादशं है तथापि उस पोर यथाशक्ति किया गया प्रयास भी हमें विकासोन्मुख बनाता है। इसका अभिप्राय यह है कि व्यक्ति किसी भी न्यायोचित सामाजिक भूमिका में रहते हुए परार्थ के लिए कदम उठा सकता है । स्वार्थपूर्ण मानसिक स्थिति का थोड़ा सा भी त्याग तथा लोक-कल्यात्मक दृष्टि का आचरण व्यक्ति व समाज दोनों के लिए हितकारी होते हैं । यदि मनुष्य समाज में रहते हुए दैवी संपदा से प्रेरित होकर किसी भी न्यायोचित सामाजिक भूमिका का निर्वाह करता है, तो अनासक्ति की अोर कदम बढ़ाना सरल हो जाता है । उस भूमिका मे लोक-कल्याण का अभ्यास, अनासक्ति का अभ्यास ही है, कर्मफलासक्ति का त्याग, समता की ओर अग्रसर होना ही है तथा चयनिका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004162
Book TitleGeeta Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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