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में परार्थ के लिए कर्म करने की प्रतिष्ठा बढ़ेगी और व्यक्ति की स्वार्थपूर्ण वृत्तियों पर अंकुश लग सकेगा। इस कारण से भी कर्मयोग, ज्ञानयोग (कर्मसंन्यास) से श्रेष्ठ है।
. 4) मनुष्य में त्रिगुणात्मक प्रकृति विद्यमान है । अतः वह सत्त्व, रज और तम के वशीभूत होकर कर्म करता ही है । वह कर्म करने में पराश्रित है, त्रिगुणात्मक प्रकृति पर माश्रित है (25) । जब सर्वत्र प्रकृति के गुणों द्वारा कर्म कराये जाते हैं, तो यह मान लेना कि व्यक्ति उनका कर्ता है अनुचित है। कर्तृत्व भाव के समाप्त होने से अहंकार समाप्त होता है और व्यक्ति अनासक्त हो जाता है (37) । केवल प्रकृति के गुणों से मोहित व्यक्ति ही गुरण और कर्मों में प्रासक्त होते हैं (38)। यहाँ गीता का शिक्षण है कि अनासक्त व्यक्ति कर्म न करके मोहित व्यक्तियों को न भेटकाए (38)। आवश्यकता यह है कि व्यक्ति के मोह को तोड़ा जाए, किन्तु उसे कर्मों से विमुख न किया जाए । कर्तृत्व भाव को समाप्त किया जाए, कर्मों को नहीं। कर्मों को लोक-कल्याणकारी दिशा दे दी जावे । कर्मयोगी ऐसी दिशा में ही कर्म करता है। .अतः कर्मयोग, ज्ञानयोग (कर्मसंन्यास) से श्रेष्ठ है।
___5) कर्मयोग की पुष्टि में गीता का कहना है कि परमात्मा स्वयं कर्म में लगा हुमा है । यद्यपि परमात्मा के लिए तीनों लोकों में कुछ भी कर्तव्य नहीं है तथा जो वस्तु प्राप्त की जानी चाहिए. वह भी अप्राप्त नहीं है, तथापि वह कर्म में ही डटा रहता है (32) । ऐसा नहीं करने पर जगत में अव्यवस्था व्याप्त हो जायेगी
और मनुष्य भी कर्म न करने का अनुसरण करेंगे (33) । प्रतः कर्मयगी (परमात्मा की तरह) अनासक्त होकर लोक-कल्याण के
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गोता
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