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________________ जाता है ( 117, 118) । मृत्यु के समय में परमात्मा का स्मरण करता हुआ जो जीव शरीर को छोड़कर बिदा होता है वह उच्चतम दिव्य परमात्मा को प्राप्त करने के योग्य बन जाता है ( 101, 104, 105, 106) । भक्ति की पूर्णता होने पर अनासक्त कर्म स्वाभाविक हो जाता है । इस तरह से भक्तयोगी भी कर्मयोगी की कोटि में आ जाता है । 1 उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भक्तयोगी, गुणातीत व कर्मयोगी श्रात्मानुभव की उच्चतम अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् लोक-कल्याण के लिए अनासक्तिपूर्वक कर्म करते हैं । किन्तु ज्ञानयोगी या कर्मसंन्यासी उस अवस्था पर पहुँचने पर कर्मों को त्याग देता है । यद्यपि दोनों प्रकार के योगियों की अन्तरंग अवस्था एक सी है, फिर भी एक अनासक्तिपूर्वक कर्म करता है और दूसरा कर्मों से विमुख हो जाता है। इसका कारण योगियों की प्रकृति ही प्रतीत होता है । किन्तु गीता तो कर्मयोगी को ही ज्ञानयोगी ( कर्मसंन्यासी) से श्रेष्ठ मानती है । इसके निम्नलिखित कारण गीता में उल्लिखित हैं : 1) इस जगत में जनकादि महायोगी हुए हैं। आत्मानुभव की उच्चतम अवस्था प्राप्त कर लेने के पश्चात् जैसा उन्होंने किया है, वैसा ही अन्य योगियों को भी करना चाहिए । गीता का कहना है कि जनकादि ने कर्म के द्वारा जगत का कल्याण किया है । इसलिए प्रत्येक योगी को चाहिए कि लोक-कल्याण को महत्वपूर्ण मानता हुआ कर्म में संलग्न रहे ( 30 ) । ठीक ही है कर्म से विमुख होने पर लोक को नैतिक-प्राध्यात्मिक मूल्यों की भोर कौन प्राकषित करेगा ? यहाँ यह समझना चाहिए कि वैज्ञानिक जो बात चयनिका ] [ xi Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004162
Book TitleGeeta Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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