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________________ वाला और निर्गुण भक्त (अव्यक्त की उपासना करनेवाला)-दोनों ही सब प्राणियों के कल्याण में संलग्न रहते हैं (129)। भक्त सभी कर्म परमात्मा को अर्पण करके करता है, इसलिए वह फलों में आसक्ति से रहित होता है (114, 115, 126, 134, 135)। चाहे भक्त अव्यक्त की उपासना करनेवाला हो, चाहे वह व्यक्त की उपासना करनेवाला हो-दोनों अवस्थाओं में उसके कर्म अनासक्ति पूर्वक होते हैं (130, 135) । गोता ने चार प्रकार के भक्त कहे हैं : दुःखी, ज्ञान का इच्छुक, धन का इच्छुक और ज्ञानी (96) । इनमें से ज्ञानी की भक्ति ही अद्वितीय होती है (97) । वह ही अनासक्तिपूर्वक कर्म करने के योग्य होता है। यहाँ यह ध्यान देना प्रासंगिक है कि गीता के अनुसार अव्यक्त परमात्मा की उपासना करनेवालों की अपेक्षा व्यक्त परमात्माकी उपासना करनेवाले श्रेष्ठ हैं, क्योंकि मनुष्यों द्वारा अव्यक्त-उपासना का पथ कठिनाई से पकड़ा जाता है (127, 128, 131) । अतः गीता का शिक्षण है कि भक्ति का अभ्यास करते हुए सब कर्मों के फल में आसक्ति का त्याग करना चाहिए (135) । यहाँ यह समझना चाहिए कि भक्ति के दृढ़ होने से कर्मों के फल में आसक्ति का त्याग होता है और कर्मों के फल में आसक्ति का त्याग करने से भक्ति रढ़ होती है । चाहे व्यक्त परमात्मा की उपासना की जाए, चाहे अव्यक्त की उपासना की जाए-दोनों में पूर्णता प्राप्त कर लेने पर लोक-कल्याण के लिए कर्म किए जाते है और कर्मों के फलों में कोई प्रासक्ति नहीं रहती है । भक्ति का माहात्म्य समझाने के लिए गीता कहती है कि जो भक्ति-विधि से व्यक्त की उपासना करते हैं, वे गुणातीत होकर ब्रह्ममय हो जाते हैं (158) । यदि दुर्जन व्यक्ति भी भक्ति में लग जाता है, तो वह शीघ्र ही सद्गुणी बन गीता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004162
Book TitleGeeta Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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