________________
:
और दुष्कर्म दोनों को ही त्याग देता है और समतापूर्वक कर्म करता है (11) ।
जिस प्रकार समता की भूमिका में अनासक्तता पनपती है, उसी प्रकार गुणातीत होने पर भी अनासक्तता उत्पन्न होती है । कर्मयोगी गुणातीत होता है, इसलिए अनासक्तिपूर्वक कर्म करता है । वह प्रकृति के गुणों (सत्त्व, रज और तम ) भोर उनसे उत्पन्न कर्मों में आसक्त नहीं होता है ( 37 ) । प्रकृति के गुणों से मोहित सामान्य व्यक्ति गुणों और कर्मों में आसक्त होते हैं (38, 93 ) । यहाँ यह समझना चाहिए कि गुण-सत्त्व, रज और तम प्रकृति से उत्पन्न होते हैं । वे अविनाशी आत्मा को शरीर में बाँधते है (150) 1 सत्त्व के बढ़ने पर प्रकाश और प्राध्यात्मिक ज्ञान उत्पन्न होते हैं ( 15 ) । रजोगुण के बढ़े हुए होने पर लोभ, घोर सांसारिक जीवन, कर्मों के लिए हिंसा, मानसिक अशान्ति तथा विषयों में लालसा - ये उत्पन्न होते है (152 ) । तमोगुण के बढ़े हुए होने पर आध्यात्मिक अन्धकार, भालस्य-युक्त प्राचरण, महत्वपूर्ण कार्यों की अवहेलना तथा आसक्ति-ये पैदा होते हैं (153) । जब योगी गुणों से भिन्न आत्मा का अनुभव कर लेता है, तो वह गुणातीत होकर अमरता को प्राप्त कर लेता है और अनासक्ति का जीवन जीता है (154, 155) ।
जिस प्रकार समता की भूमिका में अनासक्ति पनपनी है और जिस प्रकार गुणातीत को भूमिका में भी अनासक्तता उत्पन्न होती है, उसी प्रकार भक्ति की भूमिका में भी अनासक्तता का उदय होता है । गोता के अनुसार सगुण भक्त (व्यक्त की उपासना करने
चयनिका
ix]
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org