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हमें बताता है उससे भिन्न प्रकार की बात योगो हमें बताता है । वैज्ञानिक हमारे लिए कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, किन्तु मूल्यात्मक दिशा तो महायोगियों से ही हमें प्राप्त हो सकती है। के यदि निष्क्रिय हो जाएं, तो व्यक्ति और समाज दिशा-विहीन हो जायेंगे । विज्ञान हमें प्रचुर सुविधा दे सकता है, किन्तु परम शान्ति नहीं । परम शान्ति तो जीवन के मूल्यात्मक विकास से ही संभव होती है। इस मूल्यात्मक विकास का मार्ग महायोगी (कर्मयोगी) ही हमें बता सकते हैं। सच तो यह है कि महायोगी जो प्राचरण करता है सामान्य व्यक्ति भी उसका ही अनुसरण करते हैं । वह आचरण के जिस आदर्श को प्रस्तुत करता है, लोग उसका ही अनुकरण करते हैं (31) । अतः योगी समाज की विभिन्न परिस्थितियों में कर्मों के ऐसे आदर्श प्रस्तुत करे कि लोग उन विभिन्न परिस्थितियों में कर्मों के आदर्श के अनुरूप दृढ़तापूर्वक कर्म करते रहें । कर्मयोगी प्रकाश-स्तम्भ होते हैं और वे ही यदि कर्म-विमुख हो जाएँ तो समाज में अन्धकार व्याप्त हो जायेगा। अतः कर्मयोग, ज्ञानयोग (कर्मसंन्यास) से श्रेष्ठ है (26, 52)।. ... 2) मनोविज्ञान हमें बताता है कि मानव के व्यक्तित्व में ज्ञानात्मक, संवेगात्मक और क्रियात्मक (कर्मात्मक)-ये तीनों पक्ष वर्तमान होते हैं । कर्म, ज्ञान और संवेग पर आश्रित होते है। संवेग सदैव तृप्त होना चाहते हैं जिसके परिणामस्वरूप इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं । इच्छाओं की उत्पत्ति और उनकी तृप्ति की आकांक्षा सदैव साथ-साथ होती है। तृप्ति की यह माकांक्षा उद्देश्यात्मक क्रियाओं में अभिव्यक्त होती है। जैसे किसी के प्रति प्रेम का संवेग है तो वह संवेग संबंधित व्यक्ति को लाभ पहुंचाने
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[ गीता
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