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21. क्रोध से व्याकुलता उत्पन्न होती है; व्याकुलता से (हेय
उपादेय के) चिन्तन में अव्यवस्था (होती है); चिन्तन के क्षीण होने से (नैतिक-पाध्यात्मिक मूल्यों की) समझ का नाश (होता है) तथा समझ के नाश होने से (जीवन का सार ही) नष्ट हो जाता है।
(सामान्यतया) सब मनुष्यों के (जीवन में) जो रात्रि (विस्मृत आध्यात्मिक स्थिति)(है), उस (आध्यात्मिक स्थिति) के प्रति संयमी (व्यक्ति) (सदैव) जागता (सक्रिय) रहता है। जिस (इन्द्रिय-सुख) में मनुष्य जागते (सक्रिय) रहते हैं, (परमात्मा को) देखते हुए ज्ञानी के (जीवन में) वह (इन्द्रिय-सुख) रात्रि (निरर्थक) होता होती है ।
33. जो पुरुष समस्त कामनाओं को छोड़कर आसक्तिरहित,
अहंकाररहित तथा सन्तुष्ट (होकर) व्यवहार करता है, वह शान्ति को प्राप्त करता है।
हे निष्कलंक (अर्जुन) ! इस लोक में दो प्रकार की (उच्चतम) अवस्था मेरे द्वारा पहले कही गई है; (दिव्य) ज्ञानियों की (उच्चतम अवस्था) ज्ञानयोग से (कही गई है) और (अनासक्त) योगियों की (उच्चतम अवस्था) कर्मयोग से (कही गई है)।
25. निस्सन्देह कोई (भी) व्यक्ति एक क्षण के लिए भी किसी
समय कर्म को न करनेवाला नहीं रहता है, क्योंकि प्रकृति · से उत्पन्न गुणों (सत्व, रज और तम) के द्वारा कर्म कराये जाते हैं । (इसलिए) सभी (व्यक्ति) पराश्रित हैं।
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