________________
लगते हैं । एक ओर वह आत्म-संयम, ईमानदारी, अहिंसा, सत्य, विनय, दानशीलता, अक्रोध, सरलता, धैर्य आदि नैतिक गुणों को अपने में विकसित करता है, तो दूसरी ओर वह अभय, प्राणी मात्र के प्रति करुणा, प्राध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति में दृढ़ता, त्यागशीलता, अलोलुपता, आत्म-बल, क्षमा, उदारता, स्वाध्याय, तपस्या, शान्ति आदि आध्यात्मिक गुणों को अपने में विकसित करने की ओर अग्रसर होता है (160,16,162)। जिनके जीवन में देवी संपदा नहीं बढ़ती है, वे व्यक्ति आसुरी संपदा से उत्पन्न विकारी प्रवृत्तियों को ग्रहण करने लगते हैं। वे नाना प्रकार की इच्छाओं के वशीभूत होकर जालसाजो, उदण्डता, अहंकार, क्रोध, निर्दयता, कामुकता, दुराचरण आदि के वशीभूत रहते हैं (163, 166) । ऐसे व्यक्ति मृत्यु तक असंख्य चिन्ताओं से घिरे रहते हैं, विषय-भोगों में प्रवृत्ति करते हैं और अन्याय से धन कमाने में भी नहीं हिचकते हैं (167, 168)। इस तरह से जिस व्यक्ति में देवी संपदा बढ़ती जाती है, वह व्यक्ति परम शान्ति प्राप्त कर लेता है। इसके विपरीत पासुरी संपदावाला व्यक्ति प्रशान्ति, व्याकुलता, चिन्ता और मानसिक तनाव का शिकार रहता है (164, 170) । अतः कहा जा सकता है कि देवी संपदा अर्जित की जानी चाहिए
और आसुरी संपदा का त्याग किया जाना चाहिए। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि समाज में किए गए वे कर्म जो दैवी संपदा से प्रेरित हैं वे ही व्यक्ति व समाज को उत्थान की ओर ले जा सकते हैं और वे कर्म जो आसुरी संपदा से प्रेरित हैं वे व्यत्ति व समाज को पतन के गर्त में धकेल देते हैं। .
समाज में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को प्रतिष्ठा के
iv
]
गीता
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org