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________________ 148. कुछ लोग परमात्मा को आत्मा के द्वारा ध्यान के साधन से आत्मा में अनुभव करते हैं; दूसरे (कुछ लोग) दिव्यज्ञान रूपी विधि से और दूसरे (कुछ लोग) (अनासक्तिपूर्वक) कर्म करने की विधि से (परमात्मा का अनुभव करते हैं)। 149. किन्तु दूसरे (कुछ लोग) जो इस प्रकार न समझते हुए (रहते हैं), (वे) दूसरे (अनुयायियों) से (परमात्मा के विषय में) सुनकर उपासना करते हैं; और निस्सन्देह वे सुनने पर आश्रित (होकर) भी मृत्यु को जीत लेते हैं। 150. हे महाबाहु ! गुण-सत्त्व, रज और तम-(ये सब) प्रकृति से उत्पन्न (होते हैं)। (वे) अविनाशी आत्मा को शरीर में बाँधते हैं। 151. जब कभी इस देह में (और) (इसके) सब द्वारों में प्रकाश और आध्यात्मिक ज्ञान उत्पन्न होता है, (तो) (समझो कि) सत्त्व बढ़ा हुआ (है)। (इसे) इस तरह (ही) पहचानना चाहिए। 152. हे भरत क्षेत्र में श्रेष्ठ ! रजोगुण के बढ़े हुए होने पर लोभ, (घोर) सांसारिक जीवन, कर्मों के (लिए) हिंसा, मानसिक अशान्ति, (विषयों में) लालसा - (ये) उत्पन्न होते हैं। 153. हे अर्जुन ! तमोगुण के बढ़े हुए होने पर आध्यात्मिक अन्धकार, और आलस्ययुक्त आचरण, (महत्वपूर्ण कार्यों की) अवहेलना तथा आसक्ति-(ये) उत्पन्न होते हैं। चयनिका 55 ] Jain Education International ternational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004162
Book TitleGeeta Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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