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________________ प्राप्त कर लेता है (27, 28, 29)। (v) अनासक्त मनुष्य (कर्मयोगी) लोक-कल्याण के लिए कर्म करता है (34)। (vi) जो संयोगवश लाभ से सन्तुष्ट है, जो दो विरोधी (हर्ष-शोक मादि) प्रवस्थानों से परे (द्वन्द्वातीत) है, जो ईर्ष्या से मुक्त है, जो सफलता और असफलता में समान है, जिसने समस्त संशय को ज्ञान द्वारा छिन्न-भिन्न कर दिया है, जिसने समस्त कर्मफलासक्ति को त्याग दिया है, वह व्यक्ति (कर्मयोगी) लोक-कल्याण के लिए कर्मों को करके भी नहीं बांधा जाता है (46, 51)। (vii) साधारण जन अपनी कामनामों में लिप्त रहने के कारण कर्म-फल में आसक्त रहते हैं, इसलिए मानसिक तनाव से दुःखी होते हैं । किन्तु कर्मयोगी कर्मफलासक्ति को छोड़कर कर्म करते हुए भी शान्ति प्राप्त करता है (56) । (viii) जिनके द्वारा सब दोष नष्ट कर दिए गए हैं, जिनके द्वारा सब सन्देह समाप्त कर दिए गए हैं जिनके द्वारा मन वश में कर लिया गया है, जो सब प्राणियों के कल्याण में संलग्न रहते हैं, वे ऋषि (कर्मयोगी) परमात्मा में लीन अवस्था को प्राप्त करते है (64) । (ix) जब कोई न तो इन्द्रियों के विषय में और न ही कों में पासक्त होता है, तो सब 'कर्मफल की प्राशा का त्याग करनेवाला वह व्यक्ति योगारूढ (कर्मयोगी) कहा जाता है (66)। भक्तयोगी : (i) कर्मों को परमात्मा में समर्पित करके और उनमें मासक्ति को छोड़कर जो व्यक्ति (भक्तयोगी) कर्मों को करता है, वह मासक्ति से उत्पन्न होने वाले दोषों से मलिन नहीं किया जाता है (55)। (ii) परमात्मा में विश्वास करनेवाला जो व्यक्ति सब प्राणियों में स्थित परमात्मा को भजता है, वह भक्तयोगी चयनिका [ xiii Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004162
Book TitleGeeta Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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