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(63) । (x) जो प्रात्मा को सब प्राणियों में स्थित देखता है तथा सब प्राणियों को प्रात्मा में स्थित देखता है वह प्रात्मानुभव से युक्त व्यक्ति (स्थितप्रश) हर समय इसी प्रकार समानरूप से देखनेवाला होता है (87) । (xi) पवित्र योगी निरन्तर प्रात्मों को परमात्मा में लगाता हुमा परमात्मा के प्रत्यक्ष ज्ञान को प्राप्त करता है और उसके फलस्वरूप वह अनन्तसुख का अनुभव करता है (86)।
जो स्थितप्रज्ञ हो जाता है, जो योगी हो जाता है, वह ही कर्मयोगी, भक्तयोगी भोर गुणातीत होता है । उनकी निम्नलिखित विशेषताएं हैं - कर्मयोगी:
(i) प्रासक्तिपूर्वक कर्म करनेवाले की बुद्धि अस्थिर होती है, किन्तु अनासक्तिपूर्वक कर्म करने वाले (कर्मयोगी) की बुद्धि स्थिर और ऊर्जावान होती है (7, 8) । (ii) प्रज्ञावान मनुष्य कर्मों से उत्पन्न फल में प्रासक्ति को छोड़कर स्वस्थ (समतामयी) स्थिति को प्राप्त करते है (12) । (iii) जो पुरुष समस्त कामनामों को छोड़कर मासक्तिरहित, अहंकाररहित तथा सन्तुष्ट होकर व्यवहार करता है, वह शान्ति प्राप्त करता है (23) । (iv) जो मनुष्य पात्मा में ही तृप्त है तथा प्रात्मा में ही सन्तुष्ट है, उसका लोक में कोई कर्तव्य विद्यमान नहीं है । उसका किसी भी प्राणी से कोई स्वार्थपूर्ण प्रयोजन नहीं है । किन्तु गीता का शिक्षण है कि ऐसा व्यक्ति (कर्मयोगी) करने योग्य कर्म करता रहे, क्योंकि कर्म को करता हुमा अनासक्त मनुष्य परमात्मा को
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