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रहते हैं, प्रात्मा का अनुभव करते हुए ज्ञानी के जीवन में वह रात्रि (इन्द्रिय-सुख) निरर्थक होती/होता है (22)। जिसकी इन्द्रियाँ नियन्त्रण में होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है (19) । (iv) जो व्यक्ति मासक्तिरहित होता है तथा भिन्न-भिन्न इष्ट-अनिष्ट वस्तुओं को प्राप्त करके न उनको चाहता है और न ही उनसे घृणा करता है, वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है (16)। (v) विषयोंरूपी पाहार का त्याग करनेवाले सामान्य मनुष्य के केवल इन्द्रियविषय ही दूर होते हैं, किन्तु उनमें स्वाद-रस समाप्त नहीं होता है। परमात्मा का अनुभव करने के पश्चात् स्थितप्रज्ञ का इन्द्रिय-विषयों के दूर होने के साथ-साथ उनमें स्वाद-रस भी समाप्त हो जाता है (18)। (vi) जो निरासक्त और स्थिर बुद्धिवाला है, वह ब्रह्मज्ञानी ब्रह्म में स्थिर रहता है । वह प्रिय वस्तु को प्राप्त करके हर्षित नहीं होता है और अप्रिय वस्तु को प्राप्त करके दुःखी नहीं होता है (61) । (vii) जिस अवस्था को प्राप्त करके जब व्यक्ति दूसरे किसी भी लाभ को उस अवस्था से अधिक ग्रहणीय नहीं मानता है और जिस अवस्था में स्थित व्यक्ति अत्यधिक दुःख के द्वारा भी जब विचलित नहीं किया जाता है, तो व्यक्ति की वह अवस्था योग की अवस्था (स्थितप्रज्ञ-अवस्था) कही जाती है (81)। (viii). जो व्यक्ति माध्यात्मिक अनुभव और लौकिक ज्ञान से तृप्त है, जो सर्वोच्च अनुभव पर स्थित है, जो जितेन्द्रिय है और जिसके लिए ढेला, कीमती पत्थर मौर सोने से बनी हुई वस्तु समान है, वह योगी (स्थितप्रज्ञ) परमात्मा में लीन कहा जाता है (70) । (ix) जो व्यक्ति प्रान्तरिकरूप से शान्त है, जिसमें प्रान्तरिक रूप से प्रसन्नता है और जो आन्तरिक रूप से प्रकाश ही है, वह योगी (स्थितप्रज्ञ) है और वह परमात्मा में लीन अवस्था प्राप्त करता है चयनिका
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