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साधना को पूर्णता : ___साधना की पूर्णता होने पर हमें ऐसे महायोगो के दर्शन होते हैं जो पात्मानुभव को सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् लोक-कल्याणकारी कर्मों में संलग्न रहता है तथा व्यक्ति और समाज के नैतिक-माध्यात्मिक विकास के लिए प्रेरणा-स्तम्भ होता है। गीता में ऐसे महायोगी की विशेषतामों को बड़ी सूक्ष्मता से दर्शाया गया है। उसे कर्मयोगो, भक्तयोगी, गुणातीत, योगारूढ़, बह्मयोगी, ब्रह्मज्ञानी आदि शब्दों से इंगित किया गया है। यहाँ यह समझना चाहिए कि इन सभी योगियों की बुद्धि स्थिर हो जाती है, इसलिए ये सभी स्थितप्रज्ञ भी कहे जा सकते हैं। स्थितप्रज्ञ अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् ही लोक-कल्याण के लिए सफलतापूर्वक कर्म किए जा सकते हैं । अतः महायोगी स्थितप्रज्ञ होता है । उसकी निम्नलिखित विशेषताएं हैं :
(i) जब व्यक्ति समस्त इच्छात्रों को त्याग देता है तथा आत्मा से ही प्रात्मा में तृप्त होता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है (14) । (ii) जिसका मन दुःखों में शोकरहित बना रहता है, जिसकी सुखों में लालसा नष्ट हो गई है, जिसका राग, भय और क्रोध विदा हो गया है, वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है (15)। (ii) जब व्यक्ति इन्द्रियों को इन्द्रिय-विषयों में प्रवृत्त होने से पूरी तरह से रोक लेता है, जैसे कछुवा सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है (17)। सामान्यतया सब मनुष्यों के जीवन में जो रात्रि (विस्मृत आध्यात्मिक स्थिति) है, उस प्राध्यात्मिक स्थिति के प्रति संयमी सदैव जागता (सक्रिय) रहता है । जिस इन्द्रिय-सुख में मनुष्य जागते (सक्रिय)
गीता ]
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