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से देखे (89)। साधक को देवी संपदा से युक्त होना चाहिए (160-162)। ____ ध्यान और भक्ति से ही साधना मागे बढ़ती है और पूर्णता तक पहुंच जाती है । जैसे वायु से सुरक्षित स्थान में विद्यमान दीपक हिलता-डुलता नहीं है, उसी प्रकार भात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी का चित्त स्थिर हो जाता है (78)। साधक, शरीर, सिर मौर गर्दन को एक साथ व्यवस्थितरूप से रखता हुमा रढ़ रहे और इधर-उधर न देखता हुमा अपनी नाक के अग्रभाग को देखकर परमात्मा में लीन होवे (73, 74) । गीता का कहना है कि ध्यान के अभ्याससहित चित्त के द्वारा तथा एकाग्रचित्त से ध्यान करता हुमा साधक उच्चतम दिव्य प्रारमा को प्राप्त कर लेता है (103) । ध्यान की साधना के साथ भक्ति भी महत्वपूर्ण है। पर मात्मा का दिव्य स्वरूप भक्ति से अनुभव किया जा सकता है (125) । जो प्राधिक श्रद्धा से युक्त होकर सगुण (व्यक्त) की उपासना करते हैं, वे सर्वोत्तम कहे गये हैं (128)। निर्गुण(प्रव्यक्त) की उपासना करनेवाले भी परमात्मा को पहुंचते हैं, किन्तु यह पथ कठिन है (129, 130, 131) । जो एकनिष्ठ भक्ति-विषि से परमात्मा की उपासना करता है, वह त्रिगुणों के पूर्णतः परे जाकर ब्रह्म हो जाता है (158)। जिनकी परमात्मा में ही बुद्धि है, जिनका उसमें ही मन है, जिनकी उसमें ही श्रया है, जो उसमें ही लीन है, वे पूर्णता को प्राप्त कर लेते हैं (59)।
1. इसका विवेचन पृष्ठ सं. iii और iv पर देखें।
चयनिका
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