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योग-साधना में सक्रिय होने के लिए इन्द्रिय-विषयों में श्रासक्ति पर और मन पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है । मन के जीत लेने पर इन्द्रिय-विषयों में प्रासक्ति भी जीत ली जाती है । निश्चय ही यह मन चंचल है तथा कठिनाई से संयमित किया जानेवाला है । किन्तु इसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है (90) । वैराग्य के लिए जन्म-मरण - बुढ़ापा - रोग से उत्पन्न दुःखों को देखना- समझना उपयोगी होता है (144) । सच है कि संयमित मन ही हमारा बंधु है (परमात्मानुभव के लिए सहायक है) और असंयमित मन ही हमारा शत्रु है ( श्रात्म - विकास को रोकनेवाला है) (68) । मन को नियन्त्रित करने के लिए उपयुक्त आहार-विहार तथा उपयुक्त निद्रा-जागरण मावश्यक है ( 76 ) | ब्रह्मचर्य का पालन तथा अपरिग्रह का जीवन दोनों ही साधना के लिए जरूरी हैं (72, 73, 74 ) । गीता का शिक्षण है कि जब मन बाहर विषयों की ओर दौड़े, तो उसे वहाँ से हटाकर साधक उसे आत्मा में लगाए (85)।
साधना की सफलता के लिए जीवन में सद्गुणों का विकास किया जाना चाहिए । धैर्य, ईर्ष्या से मुक्ति, एकान्तवास, गृह श्रादि में संबंध का प्रभाव, विनम्रता, निष्कपटता, श्रहिंसा, सरलता, श्राध्यात्मिक गुरू की सेवा, आध्यात्मिक ज्ञान की निरन्तरता, एकाग्रता, निष्पक्षता करुरणा, क्षमा, निर्भयता श्रादि गुण विकसित किए जाने चाहिए (46, 136, 139, 143, से 147 ) साधक को चाहिए कि वह अपनी श्रात्मा के सादृश्य से सब प्राणियों में समानता देखे और उनके सुख-दुःख को भी अपनी प्रात्मा के सादृश्य
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गीता
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