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मात्मा मनादि, मनश्वर और चिरस्थायी है (2)। शरीर के नाश होने पर यह नष्ट नहीं होता है (2) । जैसे जीव के वर्तमान शरीर में बचपन, जवानी और बुढ़ापा देखा जाता है, वैसे ही मृत्यु के पश्चात् इस जीव के लिए दूसरे शरीर का मिलना (1)। जैसे कोई मनुष्य फटे-पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़ों को धारण करता है, वैसे ही जीव जर्जर शरीर को छोड़कर दूसरे नये शरीरों में प्रवेश करता है (3)। प्रात्मा की अनश्वरता में श्रद्धा होने पर. शरीर परिवर्तन की स्थिति में व्याकुलता नहीं होती है (1)। ____शाश्वत मात्मा में श्रद्धा के साथ-साथ मनुष्य में यह ज्ञान उत्पन्न होना चाहिए कि वह स्वयं ही स्वयं का बन्धु है और वह स्वयं ही स्वयं का शत्रु है । प्रतः स्वयं के द्वारा ही स्वयं का उद्धार संभव है (67) । स्वयं की दृढ़ता के बिना योग-साधना असंभव ही रहती है । साधक को यह समझना चाहिए कि विषयों का चिन्तन मन में उनके प्रति प्रासक्ति पैदा कर देता है। प्रासक्ति से विषयों की कामना पैदा होती है। विषयों की कामना-पूर्ति में अड़चन पैदा होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से व्याकुलता पैदा होती है । व्याकुलता से हेय-उपादेय के चिन्तन में अव्यवस्था होती है। चिन्तन के क्षीण होने से नैतिक-प्राध्यात्मिक मूल्यों की समझ का नाश हो जाता है और इस समझ के समाप्त होने पर जीवन का सार ही समाप्त हो जाता है (20, 21) । साधक को यह ज्ञान भी होना चाहिए कि इन्द्रिया शरीर से उच्चतर हैं; मन इन्द्रियों से उच्चतर है; बुद्धि मन से उच्चतर है और बुद्धि से परे प्रात्मा स्थित है (39) । चयनिका ]
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