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46. (जो) संयोगवश लाभ से संतुष्ट (है) (जो) दो विरोधी (हर्ष
शोक आदि) अवस्थाओं से परे जानेवाला (है), (जो) ईर्ष्या से मुक्त (है), तथा (जो) सफलता और असफलता में तटस्थ (समान) (है), (वह) (व्यक्ति) (कर्मों को) करके भी नहीं बाँधा जाता है।
47. हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि लकड़ियों को राखरूप कर
देती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सब कर्मों (आसक्तियों) को नष्ट कर देती है।
48. निस्सन्देह इस लोक में (दिव्य) ज्ञान के समान (कुछ भी)
पवित्र नहीं है; (जिसके द्वारा) योग-साधना पूर्णतः ग्रहण की गई (है), (वह) (व्यक्ति) अात्मा में उस (ज्ञान) को अपने आप समय पर अनुभव कर लेता है ।
49. श्रद्धालु, उसमें (परमात्मा में) संलग्न (तथा) इन्द्रिय-निग्रही
(व्यक्ति) ही (दिव्य) ज्ञान को प्राप्त करता है । (दिव्य) ज्ञान को प्राप्त करके (वह) अनुपम शान्ति को तुरन्त ही अनुभव कर लेता है।
50. अज्ञानी और अश्रद्धालु तथा संशय करनेवाला (व्यक्ति)
नष्ट हो जाता है। (उनमें से) संशय करनेवाले (व्यक्ति) के (जीवन में) सुख नहीं (रहता है), न यह लोक (उपयोगी) रहता है (और) न (ही) पर (लोक) (फलदायक) (होता है)।
चयनिका
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