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________________ 71. (जिस व्यक्ति के मन में) स्नेही, मित्र तथा दुश्मन में, निष्क्रिय तथा सक्रिय में, घृणित तथा संबंधी में, सज्जन तथा दुष्ट में भी समतायुक्त भाव (है), (वह) श्रेष्ठ होता है। 72. (जो) योगी अकेला (स्वतन्त्र) (है), जो चाह और परिग्रह से रहित (है), (जिसके द्वारा) मन और शरीर जीत लिए गए (हैं), (वह) एकान्तवास में स्थित (होकर) निरन्तर प्रात्मा को (परमात्मा में) लगाए। 73. (जो) व्यक्ति योगी (होना चाहता है) (वह) निर्भय ब्रह्म चारी की जीवन-चर्या में स्थित (रहे), तथा स्वस्थचित्त 74. (रहे), (वह) मन को नियन्त्रित करके शरीर, सिर और गर्दन को एक ही साथ व्यवस्थित रूप से रखता हुअा दृढ़ (रहे) ओर दिशाओं (इधर-उधर) को न देखता हुआ अपनी नाक के अग्रभाग को देखकर मेरे में लीन तथा मेरे में मन लगाया हुमा रहे। 75. हे अर्जुन ! योग (साधना) न तो बहुत खानेवाले (व्यक्ति) के घटित होता/होती है और न ही बिल्कुल न खानेवाले (व्यक्ति) के (घटित होता/होती है), न ही बहुत निद्रालु (व्यक्ति) के तथा न ही (बहुत)जागनेवाले (व्यक्ति) के (घटित होता/होती है)। ___76. (जिसका) आहार और विहार (भ्रमण) उपयुक्त (है), (जिसका) (सद्कार्यों में) प्रयत्न उपयुक्त (है), (जिसकी) निद्रा और (जिसका) जागरण उपयुक्त है, (उस) (व्यक्ति के) (जीवन में) (योग घटित होता है), (जो) दुःखों का नाशक (होता है)। चयनिका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004162
Book TitleGeeta Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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