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सम्मति
क्लासिक ग्रन्थ की प्रमुख विशेषता उसकी शब्द-शक्ति है जो अपने समय और सन्दर्भ को पार कर हर युग और संदर्भ को संबोधति करती है। हर व्यक्ति को लगता है कि उसके प्रश्न का समाधान उस ग्रन्थ में दिया हुआ है। गीता के बारे में यह विशेष रूप से चरितार्थ है। परमाणु के विस्फोट के समय वैज्ञानकि ने गीता में इसके स्वरूप का साक्षातकार किया-एक विराट् अनन्त का। जब डॉग हैमरशोल्ड अत्यन्त दुस्तर कार्य के लिए शुद्ध कर्त्तव्यबुद्धि के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ के महामन्त्री के रूप में वायुयान से जा रहे थे, तो उन्हें गीता का वह अमृतवाक्य याद आयाः कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन (9)।
भारत ने जब स्वातन्त्रय संघर्ष लड़ा तो तिलक, गाँधी ने गीता का सहारा लिया। उसकी नयी व्याख्या प्रस्तुत की। सुभाषचन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू जैस सेनानियों को उसने अजस्र प्रेरणा दी। यही नहीं स्वतन्त्रता पा लेने के बाद जब राष्ट्र के आर्थिक उत्थान का प्रश्र उठा तो उसका समाधान विनोबा ने गीता की व्याख्या करके दिया। मुझे जब कोई विद्यार्थी पूछता है कि अध्ययन-अनुसन्धान में मन निरन्तर कैसे लगाऊँ, तो उत्तर देता हूँ - अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते (90)। यानि कि चाहे प्रश्न मेरा हो, समाज का हो, विश्व का हो गीता में चिन्तन का कोई ऐसा सूत्र मिल जाता है जो मार्ग-दर्शक बन जाता है। पर यह कतई आवश्यक नहीं कि जो श्लोक मेरा मार्ग-दर्शक
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