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________________ 15. (जिसका) मन दुःखों में शोकरहित (है), (तथा) (जिसकी) सुखों में लालसा नष्ट हो गई (है), (जिसका) राग, भय और क्रोध बिदा हो गया (है), (वह) मुनि स्थिर'समतामयी। तनाव-मुक्त बुद्धिवाला कहा जाता है। 16. जो (व्यक्ति) सदैव आसक्तिरहित (होता है) (तथा) भिन्न भिन्न इष्ट-अनिष्ट-(वस्तु)-समूह को पा करके न (उसको) चाहता है और न (उससे) घृणा करता है, उसकी बुद्धि स्थिर/ समतामयी/तनाव-मुक्त (होती है)। 17. (और) यह (व्यक्ति) जब इन्द्रियों को पूरी तरह से इन्द्रियों के विषयों से (रोकता है), जैसे कछुवा (सब ओर से):(अपने) अंगों को पीछे खींच लेता है, (तब) उसकी बुद्धि स्थिर। समतामयी।तनाव-मुक्त (होती है)। . 18. (ऐसा होता है) कि विषयोंरूपी पाहार का त्याग करने वाले मनुष्य के (केवल) इन्द्रिय-विषय रुक जाते हैं, (किन्तु) स्वाद/रस नहीं; (परन्तु) परमात्मा का अनुभव करके इस समतामय (व्यक्ति) का स्वाद/रस भी समाप्त हो जाता है । 19. उन सभी (इद्रिन्यों) को रोक करके कुशल (व्यक्ति) मेरे (परमात्मा) में लीन होवे; क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ नियन्त्रण में (होती हैं), उसकी बुद्धि स्थिर/समतामयी/तनाव-मुक्त (होती है)। 20. विषयों का चिन्तन करते हुए पुरुष के (मन में) उन (विषयों) के प्रति आसक्ति पैदा हो जाती है; आसक्ति से (विषयों की) कामना पैदा होती है; (विषयों की) कामना से क्रोध पैदा होता है। . . चयनिका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004162
Book TitleGeeta Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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