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________________ 26. और हे अर्जुन ! जो (व्यक्ति) मन से इन्द्रियों को रोक करके अनासक्त (रहते हुए) कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म-मार्ग में प्रवृत्ति करता है, वह (कर्मेन्द्रियों को रोकने वाले की अपेक्षा) ऊँचे दर्जे का होता है है। 27. परन्तु जो मनुष्य आत्मा में (ही) तृप्त हो तथा (जिसकी) . आत्मा में ही प्रीति हो और जो आत्मा में हो संतुष्ट (हो) (इस लोक में) उसका (कोई) कर्तव्य विद्यमान नहीं (होता है)। 28 उस (आत्मा में सन्तुष्ट व्यक्ति) का इस लोक में (उसके द्वारा) (कार्य) किए जाने से (तथा) (कार्य) न किए जाने से भी कोई प्रयोजन नहीं है । निस्सन्देह इसका किसी भी प्राणी . में कोई स्वार्थपूर्ण प्रयोजन नहीं (है)। 29. इसलिए (तू) अनासक्त (होकर) करने योग्य कार्य को लगातार पूरी तरह से कर, क्योंकि कर्म को करता हुआ . अनासक्त मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर लेता है । _30. जनकादि ने (प्रासक्तिरहित) कर्म के द्वारा ही (जगत् का) खूब कल्याण किया। इसलिए केवल लोक-कल्याण को देखता हुआ भी, (यदि) (तू) कर्म करने के लिए प्रसन्न होता ___ है, (तो) (श्रेष्ठ) (है)। 31. श्रेष्ठ (व्यक्ति) जो जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति भी उस-उसका ही (आचरण करता है)। वह (श्रेष्ठ) (व्यक्ति) (आचरण के) जिस आदर्श को प्रस्तुत करता है, लोग उसका ही अनुसरण करते हैं । चयनिका 13 ] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004162
Book TitleGeeta Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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