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51. हे अर्जुन ! उस आत्मानुभवी व्यक्ति को (जिसने) योग
साधन से (समस्त) कर्मासक्ति को त्याग दिया है तथा (जिसने) समस्त संशय को ज्ञान द्वारा छिन्न-भिन्न कर दिया (है), (उसको) (लोक-कल्याण के लिए किए गए) कर्म नहीं बाँधते हैं।
52. (आत्मानुभव के पश्चात्) कर्मों का त्याग और अनासक्ति
पूर्वक कर्म-करना, दोनों (ही) मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं, तो भी उनमें कर्मों के त्याग से अनासक्तिपूर्वक कर्म-करना अच्छा समझा जाता है।
53. अज्ञानी (व्यक्ति) सांख्य (दिव्यज्ञान/कर्मों का त्याग) और
योग(अनासक्तिपूर्वक कर्म-करने) को भिन्न कहते हैं, (किन्तु) बुद्धिमान (व्यक्ति) (उनको) (अन्तरंगरूप से) (भिन्न) नहीं (कहते हैं)। (वास्तव में) एक को भी पूर्णतः धारण किया हुआ (मनुष्य) दोनों के (दिव्य) प्रयोजन को प्राप्त कर लेता है।
54. जो (उच्चतम) अवस्था सांख्य (दिव्य ज्ञान कर्मों के त्याग) के
द्वारा प्राप्त की जाती है, वह (ही) योग (अनासक्तिपूर्वक कर्म-करने) के द्वारा भी पहुँची जाती है। (अतः) जो (व्यक्ति) सांख्य (दिव्यज्ञान/कर्मों के त्याग) और योग . (अनासक्तिपूर्वक कर्म-करने) को एक देखता है, वह (दिव्य दृष्टि से) देखता है।
चयनिका
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