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154. जब द्रष्टा गुणों से अन्य (किसी) को कर्ता नहीं
देखता है और गुणों से भिन्न (आत्मा) को अनुभव कर लेता है, तो वह मेरे स्वभाव (परमात्मा) को प्राप्त कर लेता है।
155. देह के साथ जन्म लेता हुअा आत्मा इन तीनों गुणों के परे
जाकर जन्म, मरण और बुढ़ापे के दुःखों से रहित (हो जाता है) (तथा) अमरता (परमात्मा) को प्राप्त कर लेता है। .
156. (जो) आत्मा में स्थित (है), (जिसके लिए) सुख-दुःख समान 157. (हैं), (जो) अपनी निन्दा-प्रशंसा में समतायुक्त (है), (जिसके
लिए) इष्ट-अनिष्ट (वस्तुएँ) समान श्रेणी की (होती हैं), (जो) प्रशान्त (है), (जिसके लिए) मिट्टी का ढेला, (कीमती) पत्थर और सोना समरूप (हैं), (जो) मान-अपमान में संतुलित (होता है), (जो) शत्रु और मित्र के विषय में एक सा (रहता है) तथा (जो) सब प्रकार की हिंसा का त्यागी (होता है), वह (इन) तीन गुणों (सत्त्व, रज और तम) से परे कहा जाता है।
158. और (जो) एकनिष्ठ भक्ति-विधि से मुझको उपासता है
(वह) इन गुणों के पूर्णतः परे जाकर ब्रह्म हो जाने के लिए योग्य होता है।
159. प्रयत्न करते हुए साधक ही आत्मा में विद्यमान इस
(परमात्मा) को अनुभव करते हैं; (किन्तु) असंयमी (और) अज्ञानी (व्यक्ति) प्रयत्न करते हुए भी इसको अनुभव नहीं कर पाते हैं।
वयनिका
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