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82. उस दुःख-संयोग के प्रभाव को (तथा) (उस) योग नामवाली
(अवस्था) को जानना चाहिए। वह योग खिन्नतारहित मन से निश्चितरूप से किया जाना चाहिए ।
83. कर्म-फल की आशा से उत्पन्न होने वाली सभी इच्छाओं 84. को पूर्णतया त्यागकर (तथा) मन के द्वारा ही इन्द्रिय-समूह
को पूर्णतया नियन्त्रित करके, धैर्य को प्राप्त बुद्धि के द्वारा आत्मा में मन को स्थिर करके (व्यक्ति) धीरे-धीरे शान्त हो जाए (और) कुछ भी न विचारे ।
85. जिस-जिस कारण से अस्थिर और चंचल मन बाहर की ओर
जाता है, उस-उस जगह से (मन को) नियन्त्रित करके इस आत्मा में ही (उसे लगावे) (और) (उसे) जीत ले ।
86. इस प्रकार पवित्र योगी निरन्तर आत्मा को (परमात्मा में)
लगाता हुआ सरलतापूर्वक परमात्मा के प्रत्यक्ष ज्ञान को प्राप्त करता है (और) (उसके) (फलस्वरूप) अनन्त सुख का (अनुभव करता है)।
87 (जो) प्रात्मा को सब प्राणियों में स्थित देखता है तथा सब
प्राणियों को प्रात्मा में (स्थित) (देखता है) (वह) प्रात्मानुभव से युक्त (व्यक्ति) हर समय (इसी प्रकार) समान रूप से देखने वाला (होता है)।
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