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55. कर्मों को परमात्मा में समर्पित करके और (उनमें) आसक्ति
को छोड़कर जो (व्यक्ति) (कर्मों को) करता है, वह (प्रासक्ति से उत्पन्न होने वाले) दोष से मलिन नहीं किया जाता है, जैसे कमल का पत्ता जल के द्वारा (मलिन नहीं किया जाता है)।
योगी (प्रात्मानुभवी) कर्म-फलासक्ति को छोड़कर पूर्ण शांति को प्राप्त करता है, किन्तु साधारण जन (आसक्तिपूर्वक कर्म करने वाला) अपनी कामनाओं में लिप्त रहने के कारण फल में आसक्त (होता है)। (इसके फलस्वरूप) (वह)
(मानसिक तनावों से) दुःखी किया जाता है। 57. जितेन्द्रिय (व्यक्ति) सब कर्मों (कर्मों में फलासक्ति) को
मन से छोड़कर प्रसन्नतापूर्वक रहता है। (और) (इस तरह से) (वह) व्यक्ति नौ द्वार वाले शरीर में (आसक्तिपूर्वक) न ही (कुछ) करता हुआ और न (ही) (कुछ) करवाता हुआ (रहता है)।
58. आत्मा के ज्ञान से जिनका वह अज्ञान नष्ट कर दिया गया
(है), तो सूर्य के समान उनका ज्ञान उस उच्चतम (सत्ता) . को प्रकाशित कर देता है।
59. (जिनकी) उस (परमात्मा) में (ही) बुद्धि (है), (जिनका)
उसमें ही मन (है), (जिनकी) उसमें (ही) श्रद्धा (है) (तथा) (जो) उसमें (ही) पूर्णतया लीन (हैं) (और) (जिनके) दोष ज्ञान द्वारा नष्ट कर दिए गए (हैं), (वे) फिर से संसार में न आने वाली अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं।
चयनिका
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