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________________ 88. जो (परमात्मा में) विश्वास करनेवाला (व्यक्ति) सब प्राणियों में स्थित मुझ एक (परमात्मा) को भजता है, वह योगी सब तरह से कर्तव्य निभाते हुए भी मेरे (परमात्मा) में टिका रहता है । 89. हे अर्जुन ! जो स्व (अपनी आत्मा) के सादृश्य से प्रत्येक स्थान पर (सब प्राणियों में) समानता को देखता है और (उनके) सुख को या दुःख को (भी) (अपनी आत्मा के सादृश्य से) (देखता है), वह योगी श्रेष्ठ माना गया (है) । 90. हे महाबाहु ! निश्चय ही (यह) मन चंचल (है) (तथा) कठिनाई से संयमित किया जानेवाला (है), किन्तु हे कौन्तेय ! अभ्यास और वैराग्य से (इसे) नियन्त्रित किया जाता है। 91. असंयमी व्यक्ति के द्वारा योग अप्राप्य (होता है)। इस प्रकार मेरा विश्वास है। किन्तु प्रयत्न करते हुए संयमी व्यक्ति के द्वारा ही (योग प्राप्य है), चूंकि (उचित) प्रयत्न से ही (उसको) प्राप्त करना संभव (होता है)। 92. मनुष्यों की बहुत बड़ी संख्या में से कुछ (मनुष्य) (ही) शुद्धता के लिए प्रयत्न करते हैं; (शुद्धता के लिए) प्रयत्न करते हुए सफल (व्यक्तियों) में कुछ (मनुष्य) (ही) मुझ (परमात्मा) को वस्तुतः जानते हैं । 93. इन तीन गुणों (सत्त्व, रज और तम) से युक्त भावों के द्वारा (ही) यह सम्पूर्ण जगत् मोहित (है)। इन (गुणों) से परे मुझ शाश्वत (त्रिगुणातीत) को. (यह जगत्) नहीं जानता है। चयनिका [ 3500 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004162
Book TitleGeeta Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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