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10. हे अर्जुन ! आसक्ति को छोड़कर (तथा) सफलता और
असफलता में तटस्थ (समान) होकर (और) (इस तरह से) योग (समता) में विद्यमान (रहकर) कर्मों को कर । (सचमुच) समता (तनाव-मुक्तता) (ही) योग कहा जाता है ।
11.
(तनाव-मुक्त) बुद्धिसहित (व्यक्ति) (तनाव उत्पन्न करने वाले) दोनों सुकर्म और दुष्कर्म को इस लोक में (ही) छोड़ देता है । इसलिए (तू) योग (समता/तनाव-मुक्तता) के लिए (अपने को) तैयार कर । (समझ) कर्मों को करने में कुशलता ही योग (समतापूर्वक कर्मों को करना) (है)।
12. हा
निश्चय ही (तनाव-मुक्त) बुद्धिसहित प्रज्ञावान् मनुष्य (जो) जन्म-(मरण) के बन्धन से मुक्त (है) कर्मों से उत्पन्न फल . (फल में आसक्ति) को छोड़कर स्वस्थ (समतामयी) स्थिति को प्राप्त करते हैं।
13.
हे कृष्ण ! समाधि (समतामयी अवस्था) में ठहरनेवाले तथा तनाव-मुक्त समतामय/स्थिर बुद्धिवाले मनुष्य (स्थितप्रज्ञ) की क्या परिभाषा है ? (जिसकी) बुद्धि स्थिर (हो जायेगी) (वह) कैसे बोलेगा ? कैसे बैठेगा ? (तथा) कैसे चलेगा?
14. हे अर्जुन! जब (व्यक्ति) मन में स्थित समस्त इच्छामों को
त्याग देता है (तथा) आत्मा से ही आत्मा में तृप्त होता है, - तब (वह) तनाव-मुक्त | स्थिर | समतामयी । बुद्धिवाला
(स्थितप्रज्ञ) कहा जाता है। चयनिका
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