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39. (ज्ञानी) कहते हैं कि इन्द्रियाँ (शरीर से) उच्चतर (हैं); मन
इन्द्रियों से उच्चतर (है); और (वे कहते हैं कि) बुद्धि मन
से उच्चतर (है); तथा बुद्धि से परे वह (आत्मा) (है)। 40. कर्म क्या है ? (और) अकर्म क्या है ? बुद्धिमान् व्यक्ति भी
इस संबंध में चकराया हुआ (रहता है)। (मैं) तेरे लिए उस
कर्म को कहूँगा जिसको जानकर (तू) अशुभ से छूट जायेगा। 41. कर्म का (लक्षण) समझा जाना चाहिए और विकर्म का
(लक्षण) भी समझा जाना चाहिए तथा अकर्म का (लक्षण) (भी) समझा जाना चाहिए क्योंकि कर्म का मार्ग रहस्यपूर्ण
(है)। 42. जो कर्म में अकर्म को देखे और जो अकर्म में कर्म को (देखे),
वह मनुष्यों में बुद्धिमान् (है), योगी (है) (तथा) वह ही सम्पूर्ण कर्मों का कर्ता (है)।
___43. जिसके सभी कर्म प्रासक्ति से (उत्पन्न) फल की प्राशा से
रहित हैं, (जिसने) कर्मों (की. आसक्ति) को ज्ञानरूपी अग्नि
द्वारा जला दिया है, उसको विद्वान् योगी कहते हैं। . ___44. कर्म-फल में आसक्ति को छोड़कर (जो) सदैव (आत्मा में)
तृप्त है और (तृप्ति के लिए) किसी पर निर्भर नहीं (है),
वह कर्म में लगा हुआ भी कुछ भी नहीं करता है। . .. 45. (फल की) कामनारहित पुरुष (जिसके द्वारा) मन और शरीर
वश में किए गए (हैं), (तथा) (जिसके द्वारा) सब वस्तुएँ ‘छोड़ दी गई (हैं) केवल दैहिक कर्म को करता हुआ (भी)
पाप को प्राप्त नहीं करता है। चयनिका
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