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________________ 94. निश्चय ही त्रिगुणयुक्त यह शक्ति कठिनाई से जीती जाने वाली मेरी माया (है)। जो व्यक्ति मुझ को ही पहुंचते हैं, वे इस माया को जीत लेते हैं । 95. दुराचारी, अज्ञानी, बहुत बुरे मनुष्य, दानवी भाव को अनुसरण किए हुए (व्यक्ति तथा (वे व्यक्ति) (जिनकी)समझ माया द्वारा हर ली गई है, ( मुभको नहीं पहुंचते हैं। 96. हे भरत-क्षेत्र में श्रेष्ठ, हे अर्जुन ! सद्कर्म करनेवाले दुःखी, ज्ञान का इच्छुक, धन का इच्छुक और (आत्म) ज्ञानी-ये चार प्रकार के मनुष्य मेरी अराधना करते हैं। 97. उनमें (प्रात्म)-ज्ञानी (जो) (मेरे में) सदा लीन (होता है) (तथा) (मेरे में) (जिसकी) भक्ति अद्वितीय (है), (वह) दूसरों से ऊँचे दर्जे का होता है। निश्चय ही मैं (परमात्मा) आत्मज्ञानी का अत्यन्त प्रिय (रहता हूँ) और वह (आत्मज्ञानी) (भी) मेरा (परमात्मा का) प्रिय (होता है)। 98. बहुत जन्मों की समाप्ति पर ज्ञानी मुझको पहुँचते हैं। समस्त (जगत्) कृष्णरूप (परमात्म-स्वरूप) है । इस प्रकार (अनुभव करनेवाला) वह श्रेष्ठ (व्यक्ति) अत्यन्त विरल (होता है)। परन्तु जिन शुभ कर्मों को करनेवाले मनुष्यों के दोष नाश को प्राप्त हुए.(हैं) (तथा) (जिनके) शुभ-संकल्प दृढ़ (हैं), वे (सुख-दुःखादि की) विरोधी अवस्थाओं से (उत्पन्न) व्याकुलता से रहित (व्यक्ति) मेरी आराधना करते हैं। यनिका ___37 ] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004162
Book TitleGeeta Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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