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117. (मेरे में ) एकमात्र (अविभक्त) भक्तिवाला (कोई ) अत्यधिक दुष्ट (व्यक्ति) भी यदि मेरी उपासना करता है, (तो) वह भद्र पुरुष ही समझा जाना चाहिए, क्योंकि वह उचित रूप से निर्णय किया हुआ ( है ) ।
118. ह कौन्तेय ! ( वह) शीघ्र ( ही ) सद्गुणी हो जाता है और नित्य शान्ति को प्राप्त करता है । (तुम) ( इस बात को ) समभो (क) मेरा भक्त बर्बाद नहीं होता है ।
119. (तू) मेरे में रुचिवाला हा, (तू) मेरा आराधक (हो), (तू मेरी पूजा करनेवाला (हो), (तू) मुझे प्रणाम कर । इस प्रकार (तू) मेरी भक्तिवाला ( होकर) आत्मा को (मेरे में ) लगाकर मुझे (ही) प्राप्त कर लेगा ।
120. हे अर्जुन ! मैं सब प्राणियों के हृदय में स्थित श्रात्मा (हूँ) | मैं संसार का आदि, मध्य और अन्त हूँ ।
121. हे प्रभु ! यदि आप इस प्रकार मानते हैं (कि) मेरे द्वारा वह (आत्म-स्वरूप) देखा जाना संभव ( है ), (तो) हे योगेश्वर ! आप मेरे लिए (उस) अविनाशी आत्मा को दिखलाइये ।
122. परन्तु (तू) मुझे अपनी वर्तमान आँख से देखने को समर्थ ही नहीं है, (इसलिए) (मैं) तेरे लिए दिव्य नेत्र प्रदान करता हूँ । (उससे) (तू) मेरी दिव्य सम्पत्ति को देख ।
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