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डॉ० कमलचन्द सोगाणी ने न केवल स्वयं मूल के प्रति निष्ठा बनाये रखने का पूरा प्रयत्न किया है, बल्कि यह भी प्रयत्न किया है कि पाठक स्वयं इस मूलानुगामिता की जांच कर सके। मेरी जानकारी में धर्मग्रन्थों की व्याख्या में व्याकरण शास्त्र का इतना व्यापक उपयोग पहली बार डॉ० सोगाणी ने ही किया है।
गीता-चयनिका की प्रस्तावना को देखें तो ज्ञात होगा कि डॉ० सोगाणी ने गीता को गीता के माध्यम से ही देखने का स्तुत्य प्रयास किया है। किसी भी प्रबुद्ध पाठक को संहज ही पता चलेगा कि उन्होंने तटस्थ रहने का भरसक प्रयत्न किया है और वे ज्ञान, कर्म और भक्ति के विवाद में नहीं पड़े हैं। उनकी मौलिकता यही है कि उन्होंने कहीं भी मल्लिनाथ के इस आदर्श को नहीं छोड़ा है कि "नामूलं लिख्यते किञ्चिन्नापेक्षितमुच्यते"
यही आदर्श इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता बन गया है।
डॉ० दयानन्द भार्गव आचार्य एवं अध्यक्ष, संस्कृत विभाग तथा अधिष्ठाता, कला, शिक्षा और सामाजिक
विज्ञान संकाय
(XII)
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