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________________ 65. हे अर्जुन ! जिसको (लोग) संन्यास (कर्मों से रहित आत्मा नुभव की अवस्था) कहते हैं, उसको (ही) (तू) योग (कर्मफलासक्ति से रहित आत्मानुभव की अवस्था) जान, क्योंकि (जिसके द्वारा) कर्मफल की आशा नहीं त्यागी गई (है), (ऐसा) कोई भी (व्यक्ति) योगी नहीं होता है। 66. जब भी (कोई) न (तो) इन्द्रियों के विषयों में और न (ही) कर्मों में आसक्त होता है, तब सब (कर्म) फल की आशा का त्याग करनेवाला (वह) (व्यक्ति) योगारूढ़ कहा जाता है। 67. स्वयं के द्वारा स्वयं का उद्धार करना चाहिए । (स्वयं के द्वारा) स्वयं को बर्बाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि स्वयं ही स्वयं का बन्धु (है) (और) स्वयं ही स्वयं का दुश्मन (है)। 68. जिस व्यक्ति के द्वारा मन ही जीत लिया गया (है), उस व्यक्ति का मन ही (उसका) बन्धु (होगा), किन्तु (असंयमित) मन ही शत्रु के समान असंयमित व्यक्ति की शत्रुता में चलेगा। (चू कि) जितेन्द्रिय और शांत (व्यक्ति) के (अनुभव में) परमात्मा स्थापित (होता है), (इसलिए) (वह) शीत-उष्ण (तथा) सुख-दुःख में एवं मान (और) अपमान में (समतायुक्त होता है)। 70. (जो) व्यक्ति आध्यात्मिक अनुभव और लौकिक ज्ञान से तृप्त (है), (जो) सर्वोच्च अनुभव पर स्थित (है) (जो) जितेन्द्रिय (है) (और) (जिसके लिए) ढेला, (कीमती) पत्थर और सोने से बनी हुई वस्तु समान (है), (वह) योगी (परमात्मा में) लीन कहा जाता है। चयनिका 27 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004162
Book TitleGeeta Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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